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56 इंची छाती और पिचकी कूटनीति

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56 इंची छाती और पिचकी कूटनीति

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 56 इंची छाती वाले हैं और वे इसी अकड़ के साथ घरेलू राजनीति करते हैं। घरेलू राजनीति में उन्होंने केंद्रीय एजेंसियों के सहारे सभी राजनीतिक दलों के नेताओं, गैर सरकारी संगठनों, मीडिया समूहों आदि को उनकी हैसियत दिखा कर रखी है। लेकिन जब अंतरराष्ट्रीय राजनीति की बात आती है तो 56 इंची छाती वाले प्रधानमंत्री भी सॉफ्ट डिप्लोमेसी ही करते हैं। अंतरराष्ट्रीय राजनीति में कहीं उन्होंने कड़ी राजनीति की हो इसकी मिसाल नहीं है। दक्षिण एशिया में ही इतनी उथल-पुथल मची है लेकिन उसमें कहीं भी प्रधानमंत्री मोदी ने एक्टिव भूमिका नहीं निभाई है। इसकी बजाय वे भारत की निजी कंपनियों में बनी कोरोना वायरस की वैक्सीन दान करके विश्व नेता बन रहे हैं। इस तरह की सॉफ्ट और कल्चरल कूटनीति तो भारत पहले भी करता रहा है पर उससे विश्व नेता नहीं बना जाता है।

सोचें, प्रधानमंत्री मोदी अपने से पहले वाले जिन नेताओं को कमजोर और गया-गुजरा बताते हैं उनमें से कई नेताओं ने दक्षिण एशिया के देशों के आंतरिक मामलों में सैन्य दखल दिया था। इंदिरा गांधी ने पाकिस्तान के घरेलू मामले में सैन्य हस्तक्षेप करके बांग्लादेश का गठन कराया था। गलत या सही राजीव गांधी ने भी श्रीलंका में एलटीटीई को खत्म करने के लिए शांति सेना भेजी थी। उन्हीं के जमाने में मालदीव में तख्तपलट रोकने के लिए भारतीय सेना गई थी। राष्ट्रपति गयूम की अपील पर नवंबर 1988 में भारतीय सेना की टुकडी वहां पहुंची थी और मालदीव व श्रीलंका के हथियारबंद हमलावरों द्वारा की जा रही तख्तापलट को नाकाम करके सरकार बहाल कराई थी। जिस समय मनमोहन सिंह की सरकार थी उस समय भी राष्ट्रपति नशीद का तख्तापलट हुआ था और तब भी नशीद ने भारतीय उच्चायोग में शरण ली थी और भारत सरकार ने उनकी सक्रिय मदद की थी।

लेकिन अभी क्या हो रहा है? नेपाल में राजनीतिक संकट चल रहा है। कम्युनिस्ट पार्टियों के आपसी झगड़े में केपी शर्मा ओली की सरकार संकट में है। राष्ट्रपति ने संसद भंग की थी लेकिन अदालत ने उसे बहाल कर दिया है। चुनाव होगा या नहीं यह सस्पेंस है। इस घटनाक्रम के बीच में चीन वहां कम्युनिस्ट पार्टियों में सुलह कराने और किसी तरह से संकट सुलझा कर अपना वर्चस्व बनाए रखने की कूटनीति कर रहा है और भारत चुपचाप तमाशा देख रहा है। नेपाल में चल रहे पूरे घटनाक्रम में भारत की कोई भूमिका नहीं है।

इसी तरह अफगानिस्तान से अमेरिकी फौजों की वापसी होनी है। उससे पहले अमेरिका अफगानिस्तान की चुनी हुई सरकार के ऊपर इस बात के लिए दबाव डाल रहा है कि वह तालिबान के साथ तालमेल करे। तालिबान को अगर अफगानिस्तान की सरकार में हिस्सेदारी मिलती है तो सबसे ज्यादा खतरा भारत के लिए खड़ा होगा। शांत पड़ रहा आतंकवाद एक बार फिर भड़केगा। इसके बावजूद भारत की सरकार पूरी तरह से गाफिल पड़ी है। एक बार भी यह नहीं सोचा गया है कि अगर अमेरिकी फौजें वापस जा रही हैं तो उनकी जगह भारत की फौजें तैनात हों और चुनी हुई सरकार के साथ मिल कर तालिबान पर लगाम लगाए। अगर भारत सरकार अपनी फौज वहां तैनात करे और अमेरिका वाली भूमिका निभाए तो दक्षिण एशिया से लेकर पश्चिमी और मध्य एशिया तक भारत का वर्चस्व बनेगा औऱ दुनिया भी नए नजर से भारत को देखेगी। लेकिन वहां भी भारत पैसे देकर सड़क और बिल्डिंग बनाने की सॉफ्ट डिप्लोमेसी ही कर रहा है।

उधर म्यांमार में सेना ने चुनी हुई सरकार को अपदस्त कर तानाशाही बहाल कर दी है। चुनी हुई नेता आंग सान सू ची को जेल में बंद किया गया है और इसका विरोध करने वालों को गोलियों से भुना जा रहा है। हालात बिल्कुल वैसे हैं, जैसे 1970 में थे, जब पूर्वी पाकिस्तान में अत्याचार के चलते लोग आंदोलन कर रहे थे और सेना के अत्याचार की वजह से भारत में शरणार्थियों की भरमार हो रही थी। तब इंदिरा गांधी ने फौज भेज कर बांग्लादेश को आजाद कराया था। आज भी म्यांमार में जुल्म हो रहा है और बड़ी संख्या में शरणार्थी भारत में घुस रहे हैं। लेकिन भारत सरकार की हिम्मत नहीं हो रही है कि वह म्यांमार में सैन्य दखल दे।

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