भारत में अपनाई गई मतदान प्रणाली यानी ‘फर्स्ट पास द पोस्ट’ में यह सुविधा है कि 30-35 फीसदी वोट हासिल करके चुनाव जीता जा सकता है। इसलिए गवर्नेंस के नाम पर अपनाई जा रही शासन व्यवस्था में एक निश्चित संख्या में मतदाताओं को टारगेट किया जाता है। उनके बीच प्रचार किया जाता है। उनकी जरूरतों के बारे में फीडबैक लेकर उसे पूरा करने का बंदोबस्त किया जाता है। उसे बार बार याद दिलाया जाता है कि उसने सरकार माई-बाप का नमक खाया है। फिर वह नमकहलाल लाभार्थी वर्ग उस खास पार्टी के पक्ष में मतदान करता है। इन दिनों सभी पार्टियां इसी तरह की राजनीति कर रही हैं। सबने अपनी विचारधारा को ताक पर रख दिया है और मतदाताओं को लुभाने वाली घोषणाएं कर रही हैं। पिछले दिनों यह मामला सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा था, जहां सर्वोच्च अदालत के सामने चुनाव आयोग ने साफ तौर पर कह दिया कि उसके पास इसे रोकने का अधिकार नहीं है। चुनाव आयोग ने कहा कि लोगों को ही तय करना है कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा।
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इसका मतलब है कि चुनाव आयोग या अदालत रोक नहीं लगा सकती है। पार्टियां कुछ भी वादा करने के लिए स्वतंत्र हैं। हाल में खत्म हुए संसद सत्र में राज्यसभा में यह बात भी उठी थी कि पार्टियां जो वादा करें, उसे पूरा करने के लिए उनको कानूनी रूप से बाध्य किया जाए। अगर ऐसा होता भी है तो इस मॉडल के शासन पर क्या फर्क पड़ना है। जैसे अरविंद केजरीवाल ने बताया कि पंजाब में अगर हर वयस्क महिला को एक-एक हजार रुपए नकद देते हैं तो उसका खर्च साल का 10-12 हजार करोड़ रुपए होगा और तीन सौ यूनिट फ्री बिजली का खर्च डेढ़ हजार करोड़ रुपए होगा। पंजाब जैसे बड़े राज्य में किसी सरकार के लिए इतना देना बड़ी बात नहीं है। कर राजस्व में से कुछ पैसे इस तरह से खर्च कर देना बड़ी बात नहीं है। सरकार का असली काम जनता पर बोझ डाले बिना राजस्व बढ़ाना, बुनियादी ढांचे का विकास करना ताकि सम्मान की नौकरी लोगों को मिल सके, लोगों का जीवन बेहतर बनाने के लिए सामाजिक क्षेत्र में निवेश बढ़ाना लेकिन इस मॉडल में इन पर ध्यान नहीं रहता है। यह लंबे समय में देश और आम नागरिक दोनों के लिए अच्छा नहीं होगा क्योंकि एक समय ऐसा आएगा, जब सरकार के पास सब कुछ फ्री में देने के लिए पैसे नहीं होंगे। दूसरे, एक वर्ग के साथ स्पष्ट भेदभाव की नीति भी ज्यादा समय तक नहीं चल सकती है।