प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गुजरात में वह प्रयोग किया है, जिसकी भारत में कल्पना भी नहीं की जा सकती। इसकी कुछ कुछ कुमारस्वामी कामराज की 1963 की योजना से तुलना की जा सकती है। पंडित नेहरू के समय कामराज ने यह प्रयोग किया था, लेकिन उसका मकसद सिर्फ इतना था कि नेहरू की नीतियों पर सवाल उठाने वाले मोरारजी देसाई जैसे कुछ नेताओं को सरकार से बाहर किया जाए। सो, उस प्लान के तहत छह वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों ने इस्तीफा दिया था और बाद में नेहरू ने लाल बहादुर शास्त्री को वापस बिना विभाग के मंत्री के तौर पर सरकार में शामिल करके एक तरह से उनको उप प्रधानमंत्री का दर्जा दे दिया था। उससे नेहरू के बाद उनका उत्तराधिकार तय हो गया था। यह प्लान बाद में इंदिरा गांधी के सत्ता संभालने में भी बहुत काम आया था। Nationalization of Regional Politics
लेकिन मोदी का अलग अपना कामराज प्लान है, जिसके तहत वे एक के बाद एक मुख्यमंत्रियों को बदल रहे हैं और एक झटके में एक दर्जन केंद्रीय मंत्रियों का इस्तीफा लेकर उनको सरकार से बाहर का रास्ता दिखा दिया। उनकी जगह जो मंत्री बनाए गए उनके चेहरे देखें तो पता चलेगा कि उनमें से शायद ही कोई नेता होगा, जो अपने दम पर चुनाव लड़ने और जीतने की हैसियत रखता होगा। इधर उधर की मदद या कृपा से राज्यसभा में पहुंचे नेताओं को मंत्री बनाया गया या मोदी लहर में चुनाव जीते लोकसभा के सांसद मंत्री बने। इसी तरह राज्यों में ऐसे नेताओं को मुख्यमंत्री बनाया गया, जिनकी एकमात्र योग्यता यह है कि वे बिना किसी जमीनी आधार या करिश्मे के हैं। उनकी असली ताकत दिल्ली में बैठे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हैं। वे सब आभासी ताकत वाले लोग हैं। इसमें बासवराज बोम्मई से लेकर पुष्कर धामी और मनोहर लाल खट्टर से लेकर भूपेंद्र पटेल तक का नाम लिया जा सकता है।
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प्रधानमंत्री का यह प्रयोग या उनका अपना कामराज प्लान पहली नजर में तो ऐसा लग रहा है कि बहुत बड़ा मास्टरस्ट्रोक है। उन्होंने एक झटके में पुराने और मजबूत नेताओं की छुट्टी कर दी और उनकी जगह बिल्कुल नए चेहरे ला दिए। इससे एंटी इन्कंबैंसी कम होगी तो नेतृत्व के लिए पैदा होने वाली संभावित चुनौती भी खत्म हो जाएगी। गुजरात के बदलाव पर उन्होंने खुद कहा कि ये शानदार काम करने वाले कार्यकर्ता हैं। कार्यकर्ताओं को सर्वोच्च पद देकर उन्होंने पार्टी के काडर को बड़ा मैसेज दिया है। लेकिन साथ ही उन्होंने प्रादेशिक क्षत्रपों के लिए बड़ा मौका भी बना दिया है। गुजरात या उत्तराखंड या कर्नाटक का प्रयोग प्रादेशिक क्षत्रपों को बड़ी ताकत देगा। उनके लिए यह मौका है कि वे अपनी जगह बना सकें।
असल में नरेंद्र मोदी ने गुजरात में जो प्रयोग किया है उसे नेशनलाइनजेशन ऑफ रिजनल पोलिटिक्स कह सकते हैं। प्रादेशिक राजनीति का उन्होंने राष्ट्रीयकरण किया है। यह काम वे किसी न किसी पैमाने पर पिछले सात साल से कर रहे हैं और उन प्रयोगों की सफलता ने उनको प्रेरित किया कि वे इसे संपूर्ण रूप से लागू करें। इस लिहाज से गुजरात का प्रयोग एक बड़ा सैद्धांतिक प्रयोग है। उन्होंने तय किया है कि गुजरात की राजनीति राष्ट्रीय एजेंडे और राष्ट्रीय चेहरे पर होगी। प्रदेश के चेहरे गौण होंगे। उनके होने का कोई मतलब नहीं होगा। जो है, सो केंद्र सरकार सरकार की उपलब्धियां हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का करिश्मा है। चुनाव से एक साल पहले बिल्कुल नया मुख्यमंत्री और सारे नए मंत्री बनाने का मकसद है कि पार्टी को चुनाव न तो पिछले करीब ढाई दशक की भाजपा की राज्य सरकार की उपलब्धियों पर लड़ना है और न मुख्यमंत्री और मंत्रियों के चेहरे पर लड़ना है। अगर ऐसे समय में कोई प्रादेशिक क्षत्रप उभरता है, जो क्षेत्रीय भावना को उभारे तो उसे कामयाबी मिल सकती है। हो सकता है कि गुजरात में अभी तुरंत इसमें थोड़ी मुश्किल आए क्योंकि राष्ट्रीय चेहरा होने के बावजूद प्रधानमंत्री मोदी गुजराती अस्मिता का भी प्रतीक हैं। लेकिन गुजरात से बाहर दूसरे राज्यों में प्रादेशिक क्षत्रपों के लिए बड़ा मौका है।
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ध्यान रहे करीब ढाई दशक तक देश में रिजनलाइजेशन ऑफ नेशनल पोलिटिक्स यानी राष्ट्रीय राजनीति का क्षेत्रीयकरण हो गया था। प्रदेशों में मजबूत क्षत्रप थे और वे तय करते कि केंद्र सरकार कैसे बनेगी और कैसे काम करेगी। नरेंद्र मोदी ने इस ट्रेंड को उलट दिया है। अब उन्होंने ऐसी व्यवस्था बनाई है, जिसमें राज्यों का कोई मतलब नहीं है। सब कुछ केंद्र से होगा। यह स्थिति क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति को उभार सकती है। भाजपा के कमजोर प्रादेशिक नेताओं के मुकाबले मजबूत प्रादेशिक क्षत्रप बड़ी आसानी से चुनावी सफलता हासिल कर सकते हैं। यह काम तब भी हो सकता है, जब नरेंद्र मोदी राष्ट्रीय राजनीति में बेहद लोकप्रिय हों। उनकी लोकप्रियता के बावजूद राज्यों में पार्टी के कमजोर क्षत्रप चुनाव हार सकते हैं। प्रधानमंत्री पद के लिए उनको समर्थन देने वाले मतदाता भी क्षेत्रीय अस्मिता की राजनीति के तहत प्रदेश में दूसरे क्षत्रप को समर्थन दे सकते हैं। इसका रास्ता भी खुद मोदी ने दिखाया हुआ है। उन्होंने जिस तरह से छह करोड़ गुजरातियों के नाम की राजनीति की थी या अब भी कर रहे हैं उस तरह कोई 10 करोड़ बंगालियों और साढ़े 12 करोड़ मराठियों, 10 करोड़ बिहारियों, आठ करोड़ तमिलों या साढ़े तीन करोड़ मलयालियों की राजनीति कोई और क्षत्रप कर सकता है। अस्मिता की इस राजनीति में प्रादेशिक क्षत्रपों को भाजपा अपने मजबूत प्रादेशिक क्षत्रप के चेहरे से ही चुनौती दे सकती थी। लेकिन धीरे धीरे उसके तमाम प्रादेशिक क्षत्रप हाशिए में जा रहे हैं। सो, यह तय मानें कि आने वाले दिनों खुद नरेंद्र मोदी या उनकी जगह लेने वाला भाजपा का राष्ट्रीय चेहरा राज्यों में प्रादेशिक क्षत्रपों को चुनौती नहीं दे सकेगा। भाजपा जब तक इस बात को समझेगी, बहुत देर हो चुकी होगी।
क्षत्रपों के लिए राज्यों में मौका
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