
देश देश में इससे पहले भी केंद्र और राज्य सरकारों की नीतियों या फैसले के खिलाफ आंदोलन होते रहे हैं। मनमोहन सिंह की सरकार ने अपने दूसरे कार्यकाल में जितने आंदोलन और प्रदर्शन देखे, उसकी मिसाल आजाद भारत के इतिहास में नहीं है। लेकिन आंदोलन करने वालों को न तो देशद्रोही कहा गया, न उनके लिए टुकड़े टुकड़े गैंग का जुमला गढ़ा गया और न उनको चीन, पाकिस्तान का एजेंट ठहराया गया। पिछले साढ़े छह साल में यह सब बदल गया है। लोगों ने पुलवामा में हुए आतंकवादी हमले पर टिप्पणी की तो राजद्रोह का मामला दर्ज हुआ। नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ लिखा या बोला तो राजद्रोह के मामले दर्ज हुए। किसान आंदोलन के समर्थन में लिखने-बोलने पर राजद्रोह के मामले दर्ज हो रहे हैं। यहां तक कि उत्तर प्रदेश के हाथरस या उन्नाव में बलात्कार और हत्या की घटना हुई तो उसके बारे में भी लिखने-बोलने पर राजद्रोह की धाराएं लगा दी गईं।
लोकतंत्र में असहमति और आलोचना लोगों का मौलिक अधिकार है। इसके बिना किसी सफल लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। लेकिन पिछले साढ़े छह साल में सबसे ज्यादा मेहनत असहमति की आवाजों को दबाने के लिए किया गया है। इसके लिए अनेक किस्म की यांत्रिकी ईजाद की गई। आईटी सेल बना कर हजारों की संख्या में साइबर सोल्जर बहाल किए गए। उनकी मदद से सरकार के आलोचकों को देशद्रोही ठहराया गया। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स का इस्तेमाल इसी काम के लिए किया गया। जब ऐसा लगने लगा कि सोशल मीडिया का मूड बदल रहा है और वहां सरकार अपनी बढ़त खो रही है तो लोगों के ऊपर राजद्रोह के मुकदमे होने लगे। साथ के साथ सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स चला रहीं कंपनियों को धमकाया गया। कई कंपनियों में अधिकारियों को दबाव में इस्तीफा देना पड़ा और जब उससे काम नहीं चला तो डिजिटल मीडिया और सोशल मीडिया को नियंत्रित करने के लिए नए कानून का मसौदा जारी कर दिया गया। सवाल है कि आखिर चुनी हुई सरकार को अपने ही नागरिकों की आलोचना से इतना डर क्यों लग रहा है? क्यों सरकारें असहमति की आवाज को दबाने का प्रयास कर रही है? क्यों विरोधी पार्टियों को दुश्मन माना जाने लगा है?
यह कैसा लोकतंत्र बनाया जा रहा है कि नागरिक महंगाई की शिकायत करें तो उनको देशद्रोही ठहराया जाए? क्या सरकार चाहती है कि लोकतंत्र मतदान केंद्रों पर खत्म हो जाए? लोग वोट डाल कर अपना नागरिक कर्तव्य भूल जाएं? लोगों ने जिस विपक्ष को चुना है क्या वह अपनी जिम्मेदारी नहीं निभाए? असल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पूरी राजनीति प्रचार के जरिए बनाई गई धारणा पर आधारित है। उनकी राजनीतिक सफलता भी धारणा पर आधारित है। उन्होंने अपनी छवि को लेकर एक धारणा बनवाई है। मुश्किल यह है कि वास्तविकता के धरातल पर धारणा की राजनीति ज्यादा समय तक नहीं चलती है। जैसे अब लोगों के सामने गुजरात मॉडल की हकीकत भी खुलने लगी है और मर्द हिंदुवादी नेता होने की भी सचाई सामने आने लगी है। सोशल मीडिया ने इसमें बड़ी भूमिका निभाई है। इसलिए अगर सोशल मीडिया पर रोक नहीं लगाई गई या लोगों को आलोचना से नहीं रोका गया तो धारणा बदलते देर नहीं लगेगी। और उसके बाद सारी राजनीतिक सफलता हवा में उड़ जाएगी।