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पुराने ढर्रे की विपक्षी राजनीति

रणनीति

कांग्रेस और दूसरी विपक्षी पार्टियां अनगिनत चुनाव हारने के बाद भी समझ नहीं रही हैं कि उनके चुनाव लड़ने के तरीके में कुछ कमी है। वे हर बार कोई न कोई बहाना खोज लेते हैं। कई बार कहा जाता है कि भाजपा हिंदू-मुस्लिम की विभाजनकारी राजनीति करती है। कई बार कहा जाता है कि राष्ट्रवाद के झूठे नारे पर जनता को बरगला लेती है। अगर इस तरह का कोई मुद्दा नहीं मिलता है तो इलेक्ट्रोनिक वोटिंग मशीन यानी ईवीएम और चुनाव आयोग को दोष दे दिया जाता है। यानी विपक्ष किसी तरह से अपनी कमी स्वीकार नहीं करता है। विपक्ष की पार्टियों को समझ ही नहीं आता है कि जिस पुराने ढर्रे की राजनीति वो कर रही हैं उसके दम पर नरेंद्र मोदी और अमित शाह की भाजपा को जीतने से नहीं रोका जा सकता है।

राज्यों में हो सकता है कि प्रादेशिक राजनीतिक मुद्दों और अस्मिता के सवाल पर कुछ जगह विपक्षी पार्टियां जीत जाएं लेकिन लोकसभा चुनाव में उनका दांव नहीं चलता है। उलटे कुछ राज्यों में जीतने के बाद उनका यह भ्रम मजबूत होता है कि वे पुराने ढर्रे की राजनीति से ही भाजपा को उसी तरह से हरा देंगे, जैसे राज्य में हरा दिए। ममता बनर्जी ने बंगाल में हरा दिया या कांग्रेस ने कर्नाटक में हरा दिया तो इससे भाजपा लोकसभा का चुनाव भी हार जाएगी, यह बड़ी गलतफहमी है।

विपक्षी पार्टियों को चुनाव लड़ने का तरीका नरेंद्र मोदी और अमित शाह से सीखना चाहिए। उनकी चुनावी राजनीति कभी भी एक ढर्रे वाली नहीं होती है। वह राज्य के हिसाब से और हालात के हिसाब से बदलती रहती है। रणनीति बदलती रहती है लेकिन प्रचार का तरीका एक जैसा रहता है। मोदी ने कर्नाटक के चुनाव में बड़ी मेहनत की लेकिन हार गए तो इससे मोदी मेहनत करना बंद नहीं करते हैं। वे उससे ज्यादा मेहनत मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में कर रहे हैं। उससे ज्यादा मेहनत राजस्थान और तेलंगाना में कर रहे हैं। कारपेट बॉम्बिंग के स्टाइल में उनकी रैलियां हो रही हैं। वे हर राज्य में कई कई बार दौरा कर चुके और हर दौरे में कई कई हजार करोड़ रुपए की परियोजनाओं का शिलान्यास और उद्घाटन किया।

वे हर चुनाव से पहले चुनावी राज्य में इसी तरह से काम करते हैं और परियोजनाओं के शिलान्यास और उद्घाटन का पूरा होने के बाद चुनाव आयोग चुनावों की तारीख घोषित करता है। उसके बाद फिर मोदी की रैलियों और रोड शो का नया दौर शुरू होता है।

इसकी तुलना में विपक्षी पार्टियों को देखें तो वे प्रचार का पारंपरिक तरीका अपनाए हुए हैं। मिसाल के तौर पर कांग्रेस को देखें तो वह इस धारणा से बाहर ही नहीं निकल रही है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा सर्वोच्च नेता हैं और इनकी ज्यादा सभाएं नहीं होनी चाहिए। तभी चुनावी राज्यों में दोनों की गिनती की सभाएं हुई हैं। दोनों आराम से बैठे हैं और ड्राइंग रूम पोलिटिक्स कर रहे हैं। अब भी वहां यही परंपरा चल रही है कि एक सभा करके आ गए और उसके बाद बैठ कर सुन रहे हैं कि वाह क्या अद्भुत सभा हुई है और कितने लोग जुट गए, अब तो भाजपा हार जाएगी। फिर हफ्ते-दस दिन के बाद ही दूसरी सभा होगी।

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