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कमजोर विपक्ष की बात में राजनीतिक फायदा

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कमजोर विपक्ष की बात में राजनीतिक फायदा
देश में राजनीतिक विकल्प नहीं होने का विमर्श कोई नया नहीं है। देयर इज नो ऑल्टरनेटिव यानी टीना फैक्टर की पहले भी चर्चा होती थी। नेहरू की जगह कौन लेगा या इंदिरा के जैसा कहां से लाएंगे जैसी बातें पहले भी होती थीं। इसलिए आज अगर यह विमर्श है कि मोदी की जगह कौन ले सकता है तो उसका सिर्फ एक ही मकसद है, लोगों के दिल दिमाग में यह बात बैठाना कि विपक्ष का नेता नकारा है, मोदी की तुलना में वह कुछ नहीं है और इसलिए मोदी का विकल्प नहीं है। मोदी है तो मुमकिन है का नारा भी इसी विमर्श का हिस्सा है। इसी विमर्श के तहत यह प्रचार किया जा रहा है कि आज मोदी की वजह से देश कोरोना के संकट से बच गया, सोचें, अगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री होते तो क्या होता? विपक्ष को कमजोर बताने का सतत प्रचार असल में राजनीतिक फायदे के लिए किया जा रहा है। यह कोई वास्तविक लोकतांत्रिक चिंता नहीं है। क्योंकि जिसे वास्तव में चिंता होगी या लोकतंत्र में आस्था होगी उसे इस बात की चिंता क्यों होनी चाहिए कि विपक्ष कमजोर है या मजबूत? लोगों को इससे क्यों फर्क पड़ना चाहिए कि विपक्ष कमजोर है या मजबूत? सरकार चलाने में विपक्ष की भूमिका होती तब तो यह बात समझ में आती। यह भी मजेदार है कि एक तरफ तो लोग यह दावा कर रहे हैं कि अरसे बाद देश को मजबूत नेतृत्व मिला है, दमदार नेता मिला है और उसकी 56 इंची छाती के आगे सब नतमस्तक हैं और दूसरी ओर वहीं लोग यह भी कह रहे हैं कि विपक्ष कमजोर है। अगर वे चाहते ही हैं मजबूत नेता की सरकार हो तो उन्हें खुश होना चाहिए कि विपक्ष कमजोर है, लेकिन खुश होने की बजाय उनका दिखावा यह होता है कि विपक्ष ही कमजोर है क्या किया जा सकता है! असल में यह लंबे समय की योजना का हिस्सा है। धारणा के स्तर पर विपक्ष को कभी मजबूत नहीं होने देने की रणनीति लंबे समय तक सत्ता में बने रहने की कुंजी बन गई है। पहले भी सत्ता में बैठे लोग विपक्ष को दबाने का प्रयास करते थे, पर एक न्यूनतम सद्भाव और सम्मान बनाए रखा जाता था। यह पहली बार हो रहा है कि किसी बड़े नेता के कल्ट के आगे दूसरे को एकदम बौना बनाने या अपने प्रचार साधनों के दम पर विपक्ष को नकारा या पप्पू साबित करने की कोशिश की जा रही है। असल में नकारा या पप्पू सरकारें होती हैं, विपक्ष तो हमेशा एक जैसा होता है। विपक्ष का नेता भी हमेशा एक ही जैसा होता है। यह भी ध्यान रखने की बात है कि पार्टी को चुनाव जिताना मजबूत और अच्छे विपक्ष की निशानी नहीं है। क्योंकि लगातार चुनाव हार कर भी अच्छा और मजबूत विपक्ष बने रहा जा सकता है। जो लोग यह गिनती करते हैं कि राहुल गांधी के रहते कांग्रेस इतने चुनाव हार गई उन्हें यह गिनती याद करनी चाहिए कि दीनदयाल उपाध्याय या अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी के रहते जनसंघ और भाजपा कितने चुनाव हारे थे! जब लोकसभा में भाजपा को सिर्फ दो सीटें मिलीं और वाजपेयी-आडवाणी दोनों चुनाव हार गए तब भी कांग्रेस ने या मीडिया ने वाजपेयी-आडवाणी को पप्पू नहीं कहा। इसलिए क्योंकि जनसंघ और बाद में भाजपा के लगातार चुनाव हारने के बाद भी उसके नेताओं को अपमानित करने का भाव सत्तारूढ़ दल में नहीं रहा। आज उसका बिल्कुल उलटा हो रहा है। आज प्रचार का समूचा फोकस इस बात पर है कि कैसे विपक्ष को अपमानित किया जाए और कैसे विपक्ष के नेता को पप्पू साबित किया जाए। इसके लिए आधे-अधूरे वीडियो का इस्तेमाल किया जाता है, झूठी खबरें गढ़ी जाती हैं, वीडियो एडिट करके उसमें कही बात को मनमाना रूप दिया जाता है और असीमित प्रचार साधन के दम पर लोगों के दिमाग में यह झूठी धारणा बनाई जाती है कि विपक्ष का नेता पप्पू है। जब भाजपा के नेता मानते हैं कि देश के लोगों ने कांग्रेस और राहुल गांधी को खारिज कर दिया है तो कायदे से उन्हें राहुल गांधी को उनके हाल पर छोड़ देना चाहिए। जब उनको लग रहा है कि राहुल की बात को कोई गंभीरता से नहीं लेता है तो उन्हें राहुल की बात ही नहीं करनी चाहिए। पर इसका उलटा होता है। राहुल गांधी कह दें कि वे शाम चार बजे प्रेस कांफ्रेंस करेंगे तो भाजपा के नेता सुबह से उनसे सवाल पूछने लग जाएंगे। वे विपक्ष में हैं फिर भी भाजपा के नेता उनसे सवाल पूछेंगे और इतना ही नहीं उनके परनाना पंडित जवाहरलाल नेहरू किए किसी काम पर भी उनसे सवाल पूछा जाएगा। उनकी कही एक-एक बात का जवाब दिया जाएगा या उनका मजाक उड़ाया जाएगा। पप्पू ठहराए जाने के बाद भी उनकी अनदेखी नहीं हो रही है। यह अपने आप में इस बात का सबूत है कि विपक्ष का काम वैसा ही चल रहा है, जैसा संसदीय राजनीति में चलना चाहिए।
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