भाजपा और उसकी केंद्र सरकार के खिलाफ विपक्ष कैसी राजनीति करें, इसका जवाब झारखंड में हेमंत सोरेन ने दिया है। देश में अभी जितने भी विपक्षी क्षत्रप हैं वे उनमें सबसे युवा हैं। इसके बावजूद उन्होंने सबसे ज्यादा परिपक्वता दिखाई। प्रदेश में हुए जिस किस्म के विवाद की वजह से डीएमके प्रमुख एमके स्टालिन ने सोनिया गांधी की बुलाई विपक्षी पार्टियों की बैठक का बहिष्कार किया उस किस्म के कई विवाद झारखंड में हुए। झारखंड की प्रदेश कमेटी के नेताओं और झारखंड मुक्ति मोर्चा के नेताओं में जुबानी जंग हुई पर हेमंत ने इसे बड़ा मुद्दा नहीं बनने दिया। वे सीधे कांग्रेस आलाकमान के संपर्क में रहे और लक्ष्य पर नजर रखी।
झारखंड के नतीजों के बाद भले इसकी जो भी व्याख्या की जा रही हो पर यह हकीकत है कि चुनाव बहुत आसान नहीं था। खासतौर से लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद, जिसमें भाजपा प्रदेश की 14 में से 12 सीटों पर जीती। संथालपरगना के अपने गढ़ में दुमका सीट पर शिबू सोरेन खुद चुनाव हार गए थे। इस नतीजे के छह महीने बाद झारखंड में विधानसभा के चुनाव होने थे। तभी हेमंत सोरेन ने लोकसभा चुनाव के बाद रणनीति बदली और एलायंस में भी जरूरी फेरबदल कराया।
उन्होने कांग्रेस आलाकमान को भरोसे में लेकर बाबूलाल मरांडी की पार्टी जेवीएम को एलायंस से अलग कराया। बिना किसी महान चुनावी रणनीतिकार के ही इस बात को समझ लिया कि आमने-सामने का चुनाव बनाने से भाजपा को फायदा होगा। उनकी किस्मत भी अच्छी थी कि अति आत्मविश्वास की वजह से भाजपा ने अपनी सहयोगी आजसू को अलग लड़ने दिया। इसका कुल जमा असर यह हुआ कि कांग्रेस, जेएमएम और राजद का गठबंधन जीत गया।
हेमंत सोरेन और उनकी पार्टी ने जो दूसरा बड़ा सबक दिया है वह ये है कि राज्यों के चुनाव को स्थानीय मुद्दों पर सीमित रखना चाहिए। झारखंड के प्रचार में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा अध्यक्ष अमित शाह लगातार राम मंदिर, अनुच्छेद 370 और नागिरकता कानून का मुद्दा बनाते रहे पर हेमंत ने इनके बारे में कोई टिप्पणी नहीं की। वे भाजपा की राज्य सरकार के पांच साल के कामकाज पर सवाल करते रहे। इसका भी एलायंस को बड़ा फायदा मिला।
पर चुनाव जीतने के बाद गठबंधन सरकार का मामला दांव-पेंच में उलझ गया। अपनी ऐतिहासिक जीत से उत्साहित हेमंत सोरेन मुख्यमंत्री, स्पीकर सहित ज्यादा मंत्री पद और तमाम अहम मंत्रालय अपने पास रखने के लिए अड़ गए। दूसरी ओर कांग्रेस का प्रदर्शन भी ऐतिहासिक रहा है तो वे भी ज्यादा मंत्री और मलाईदार मंत्रालय के लिए अड़े हैं। मुख्यमंत्री और तीन मंत्रियों की शपथ के तीन हफ्ते बाद तक न तो बाकी मंत्रियों की शपथ हुई है और न विभाग बंटे है। चुनाव नतीजे के एक महीने बाद तक राज्य में सब कुछ ठप्प पड़ा है। दोनों पार्टियां ऐतिहासिक गलती कर रही हैं और जनादेश की गलत व्याख्या कर रही हैं। लोगों ने उनको लूट खसोट करने के लिए सत्ता नहीं सौंपी है। उन्हें शासन का एक वैकल्पिक मॉडल पेश करना है, जो पहले से बेहतर हो। यह काम कांग्रेस और हेमंत सोरेन दोनों को करना होगा। प्रदेश में भाजपा इससे भी खराब प्रदर्शन के बाद वापसी कर चुकी है। वहां उसकी जड़ें बहुत गहरी हैं।
हेमंत सोरेन से जरूर राह
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