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इतिहास दोहराया जा रहा

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इतिहास दोहराया जा रहा
क्या किसी तरह से इतिहास अपने को दोहराने वाला है? हालांकि यह बहुत दोहराई जा चुकी बात है कि इतिहास अपने को दोहराता है तो पहली बार त्रासदी के रूप में और दूसरी बार तमाशे के रूप में। इस बार किस रूप में दोहराएगा, नहीं कहा जा सकता है। परंतु घटनाओं का क्रम पिछली सदी से सातवें दशक के घटनाक्रम की याद दिलाने वाला है। कम से कम दो समानताएं बहुत स्पष्ट हैं। पहली कि इंदिरा गांधी के पतन की शुरुआत भी अदालती घटनाक्रमों से हुई थी। इलाहाबाद में जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के फैसले से लेकर सुप्रीम कोर्ट में जस्टिस वी कृष्ण अय्यर और फिर एडीएम जबलपुर केस की सुनवाई कर रही पांच जजों की बेंच में जस्टिस हंसराज खन्ना के दिए डिसेंटिंग जजमेंट ने भारतीय राजनीति को जबरदस्त तरीके से प्रभावित किया था। दूसरी समानता है कि तब भी घटनाक्रमों की शुरुआत प्रशांत भूषण के परिवार से हुई थी। प्रशांत भूषण के पिता शांति भूषण ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में इंदिरा गांधी के खिलाफ राजनारायण का मुकदमा लड़ा था। इंदिरा गांधी उस मुकदमे में हारी थीं और जब सुप्रीम कोर्ट की अवकाशकालीन बेंच में उनको जस्टिस वी कृष्ण अय्यर से मनचाही राहत नहीं मिली तो उन्होंने देश में आपातकाल लगाने की घोषणा की थी। उसके बाद की कहानी सबको पता है। 19 महीने की इमरजेंसी के बाद चुनाव हुए और इंदिरा व संजय गांधी दोनों हारे। केंद्र में जनता पार्टी की सरकार बनी, जिसमें शांति भूषण कानून मंत्री बने। देश की सबसे बड़ी राजनीतिक उथलपुथल 1977 में हुई, जिसके केंद्र में प्रशांत भूषण के पिता थे। फिर एक बड़ा बदलाव 2011 में अन्ना हजारे के आंदोलन से हुआ और यह संयोग है कि उस आंदोलन के केंद्र में खुद प्रशांत भूषण थे। उन्होंने अन्ना हजारे से लेकर अरविंद केजरीवाल तक के लिए आंदोलन की जमीन तैयार की और जब अरविंद केजरीवाल ने आम आदमी पार्टी की स्थापना की तो शांति भूषण ने सबसे पहले एक करोड़ रुपए का चंदा दिया। अब वहीं प्रशांत भूषण न्यायपालिका की अवमानना के मामले में कठघरे में खड़े हैं। केंद्र के सबसे बड़े कानूनी अधिकारी अटॉर्नी जनरल केसी वेणुगोपाल ने अदालत से प्रशांत भूषण को सजा नहीं देने की अपील की। यह उनकी सदाशयता है या दशकों के अपने अनुभव का तकाजा है।  पर यह भी संभव है कि उनकी सरकार भी नहीं चाहती हो कि मामला तूल पकड़े। इसलिए बीच बचाव का रास्ता निकाला जा रहा हो। आखिर मौजूदा सरकार के लोगों को 1977 का इतिहास कांग्रेस से बेहतर पता है। यह संभावना भी है कि लोकलाज के लिहाज में इस मामले को रफा-दफा करने का प्रयास हो रहा है। आखिर आधुनिक भारत के सबसे अच्छे राजनीतिक विचारकों में से एक राम मनोहर लोहिया हमेशा कहते थे कि लोकराज लोकलाज से चलता है। सो, संभव है कि लोकलाज की चिंता में मामला सुलझाने का प्रयास हो रहा हो। सही है कि इस लड़ाई में प्रशांत भूषण के साथ ज्यादा लोग नहीं हैं। संविधान से मिली अभिव्यक्ति की आजादी को बचाने के लिए वे लड़ रहे हैं पर उनके साथ देश आंदोलित नहीं है। उनके साथ गिने-चुने लोग हैं और ऐसे लोग हैं, जो पहले भी उनके साथ थे और उन्होंने अपने सार्वजनिक आचरण से हमेशा देश, समाज और व्यक्ति के सम्मान की लड़ाई लड़ी है। इसमें अरुण शौरी का नाम सबसे पहले आता है। उन्होंने पिछले छह साल में तमाम किस्म के खतरे उठाते हुए प्रशांत भूषण का साथ दिया। चाहे सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का मामला हो या राफेल सौदे में गड़बड़ी का, अरुण शौरी हमेशा उनके साथ रहे। अब भी जब उनको लगा कि प्रशांत भूषण को अवमानना के मामले में दोषी ठहराया जाना उचित नहीं है तो सेहत खराब होने के बावजूद अरुण शौरी सामने आए। उन्होंने सार्वजनिक रूप से अपनी राय रखी और अवमानना के कानून पर सवाल उठाया। अरुण शौरी ने कहा कि किसी भी जज की पहचान उसके दिए फैसलों से बनती है। उन्होंने प्रशांत भूषण के लिए कहा ‘अगर वे माफी मांगते तो मुझे हैरानी होती’, इससे जाहिर होता है कि कि वे प्रशांत भूषण को कितनी अच्छी तरह से समझते हैं। ट्विट से अवमानना होने की बात पर शौरी ने हैरानी जताते हुए कहा- मुझे हैरानी हो रही है कि 280 कैरेक्टर लोकतंत्र के खंभे को हिला रहे हैं। मुझे नहीं लगता है कि सुप्रीम कोर्ट की छवि इतनी नाजुक है। 280 कैरेक्टर से सुप्रीम कोर्ट अस्थिर नहीं हो जाता। अरुण शौरी ने गुरुवार को कई मीडिया समूहों को दिए अपने इंटरव्यू में कहा- कोर्ट ने 108 पेज का फैसला सुनाया है। कोर्ट का स्तर बहुंत ऊंचा है। लेकिन अगर आप कुल्हाड़ी से मच्छर मारेंगे तो आप अपने आपको ही चोट पहुंचाएंगे। आपको पता है कि जो शख्स उच्च पद पर बैठता है, चाहे वो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या जज कोई भी हो, वो कुर्सी बैठने के लिए होती है ना कि खड़े होने के लिए। प्रशांत भूषण के साथ इस लड़ाई में खड़े दूसरे व्यक्ति द हिंदू अखबार के संपादक एन राम हैं और तीसरे स्वराज अभियान के नेता योगेंद्र यादव। प्रशांत भूषण, अरुण शौरी और एन राम ने सुप्रीम कोर्ट में अवमानना के कानून की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी। एक हफ्ते पहले तीनों ने अपनी याचिका वापस ले ली, पर यह रास्ता खुला रखा कि वे जल्दी ही फिर यह याचिका अदालत में दाखिल करेंगे। योगेंद्र यादव दिल्ली आम आदमी पार्टी के प्रयोग के समय से प्रशांत भूषण के साथ जुड़े हुए हैं। वे देश के सबसे बेहतरीन और शुरुआती सैफोलॉजिस्ट थे। चुनाव विश्लेषण के काम को आज जो ग्लैमर हासिल है वह ग्लैमर उसे योगेंद्र यादव ने दिलाया है। अपनी अंतरराष्ट्रीय ख्याति और शानदार करियर दांव पर लगा कर संकट के समय एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी की भूमिका का वे निर्वाह कर रहे हैं। अरुण शौरी, प्रशांत भूषण और एन राम ये तीन ऐसे हैं, जिन्होंने बिल्कुल अंधेरे समय में रोशनी का भरोसा बनाए रखा है। चाहे वाक और अभिव्यक्ति पर आया संकट हो, सामाजिक कार्यकर्ताओं की गिरफ्तारी का मामला हो या राफेल विमान का सौदा हो, हर मसले पर ये तीन लोग संविधान, कानून और समय की कसौटी पर खरा उतरे हैं।
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