जब नरेंद्र मोदी और भाजपा अगले लोकसभा चुनाव से पहले धर्म और कूटनीति का मुद्दा राजनीतिक लाभ के लिए बेच रहें होंगे तो क्षेत्रीय पार्टियां क्या करेंगी? उनके पास क्या एजेंडा है, जिससे वे भाजपा के प्रचार का जवाब देंगी? क्या वे भी धर्म के क्षेत्र में घुसेंगी? संभव है। कई क्षेत्रीय पार्टियां ऐसी हैं, जिनको धर्म का मुद्दा उठा कर वोट मांगने में दिक्कत नहीं है। ममता बनर्जी ने पिछले विधानसभा चुनाव में चारों तरफ घूम कर चंडीपाठ किया था और भाजपा के जय श्रीराम के नारे के मुकाबले जय मां काली का नारा लगाया था। उनके सामने इसका कोई जोखिम भी नहीं है कि अगर वे धर्म के क्षेत्र में घुसती हैं तो दूसरे धर्म यानी मुसलमानों का वोट बिदक जाएगा। उनके राज्य में भाजपा और तृणमूल के अलावा कोई विकल्प नहीं है। इसलिए अगर वे धार्मिक मुद्दा उठा कर वोट की राजनीति करती हैं तब भी अल्पसंख्यक वोट उनके साथ रहेगा। सो, जहां तक ममता बनर्जी का सवाल है तो वे बांग्ला अस्मिता, बांग्ला भाषा और मां काली के नाम की राजनीति कर सकती हैं और लोग उनके ऊपर भरोसा भी करेंगे।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की स्थिति भी ऐसी है। वे भी बेहद धार्मिक हैं और अक्सर आंध्र प्रदेश और तेलंगाना के ऐतिहासिक मंदिरों में बड़े बड़े दान करते रहे हैं। उत्तर भारत की तरह वहां राममंदिर का माहौल नहीं बनने वाला है। ममता बनर्जी की तरह उनको भी यह सुविधा है कि अल्पसंख्यक मतदाताओं के पास विकल्प नहीं है। ओवैसी की पार्टी सिर्फ हैदराबाद भर की पार्टी है और कांग्रेस को टीआरएस व भाजपा ने मिल कर खत्म कर दिया है। चंद्रशेखर राव तेलंगाना की अस्मिता के प्रतीक हैं और उन्होंने राज्य के किसानों के लिए कई बड़ी लोक लुभावन व उपयोगी योजनाएं शुरू की हैं, जिनका उनको फायदा मिलता है। इसलिए वे भी भाजपा की धर्म की राजनीति का जवाब देने की स्थिति में हैं।
तमिलनाडु में एमके स्टालिन की स्थिति बाकी राज्यों के क्षत्रपों से अलग है। उनको धर्म की राजनीति नहीं करनी है, बल्कि धर्म विरोध की राजनीति करनी है। इस मामले में तमिलनाडु बिल्कुल अलग प्रदेश है। वहां की धार्मिक मान्यताएं अलग हैं और लोग उस तरह के कर्मकांडों या धार्मिक अस्मिता में विश्वास नहीं करते हैं, जैसे उत्तर भारत के राज्यों में लोग करते हैं। अभी तो इस मामले में डीएमके नेता चुप हैं लेकिन करुणानिधि के जीवित रहते पार्टी के नेता अपने को नास्तिक घोषित करने में गर्व महसूस करते थे। वहां तमिल अस्मिता के साथ साथ दलितों, पिछड़ों का आरक्षण, शिक्षा व नौकरी आदि का मुद्दा ज्यादा बड़ा होता है। चूंकि वहां के लोगों में इस्लामोफोबिया का प्रचार वैसा नहीं है, जैसा उत्तर भारत में है इसलिए धर्म का मुद्दा ज्यादा कारगर नहीं होता है।