मेरे लिखे पर विश्वास नहीं है तो टीवी चैनल देखें। आते-जाते शराब की दुकानों की बढ़ती तादाद और भीड़ देंखे। सुबह-शाम व्हाट्सप मैसेज से देवी-देवताओं के दर्शन, मंदिरों में भीड़ पर गौर करें तो आप भी मानेंगे कि देश में दो ही कारोबार फल-फूल रहे है।- एक धर्म का और दूसरा अफीम का। मानों देश और 140 करोड लोगों के पास दूसरा काम ही नहीं है। पूरे दिन धर्म की चिंता करों। गुटखा खाते रहो और शाम को घर-परिवार क्या नौजवान, क्या बूढ़े शराब के नशे में टन्न।
कहते है पिछले आठ सालों से शराब बिक्री, गुटखा बिक्री उनसे सरकारों की रेवेन्यू चक्रवर्ती रफ्तार में बढ़ी है। तो धर्म के नशे का तो कहना ही क्या! सोचें, इन दिनों देश में धर्मस्थलों को लेकर कितनी तरह के विवाद घर-घर में चर्चा बनाए हुए है। वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद के सर्वे का काम चल रहा है तो बड़ी संख्या में लोग इकट्ठा होकर कुतुबमीनार में हनुमान चालीसा पढ़ रहे हैं और उसे हिंदू धर्मस्थल घोषित करने की मांग कर रहे हैं। उधर किसी ने ताजमहल के तहखाने में बंद 20 कमरे खुलवाने की याचिका दायर की क्योंकि उसे लग रहा है कि वहां हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियां होंगी तो एक राजघराना सामने आ गया यह दावा करने कि ताजमहल की जमीन उनकी है।
मस्जिदों में अजान के समय मंदिरों से हनुमान चालीसा पढ़ने की अपील हो रही है तो हिजाब और हलाल मीट को लेकर कई राज्यों में आंदोलन चल रहे हैं। राजधानी दिल्ली में आधा दर्जन से ज्यादा सड़कों के मुस्लिम नाम बदलने की पहल हुई है तो उत्तर प्रदेश में भी करीब एक दर्जन शहरों के मुस्लिम नाम बदलने का अभियान चल रहा है। क्या किसी लोकतांत्रिक देश में, जो महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी जैसे भयावह संकट में हो और जिसकी आर्थिकी डावांडोल हो रही हो वहां इस विमर्श के लिए कोई जगह होनी चाहिए?
धर्म और नशे में बेसुध भारत!
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