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चुनाव से नेता बने तेजस्वी

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चुनाव से नेता बने तेजस्वी
गैर-कांग्रेसवाद या समाजवाद की राजनीति करने वाले नेताओं में संभवतः लालू प्रसाद इकलौते नेता हैं, जिनको अपनी राजनीतिक कमान अगली पीढ़ी को ट्रांसफर करने में सबसे ज्यादा समय लगा है। उनके साथ या पहले से राजनीति करने वाले तमाम दूसरे क्षत्रप पहले ही अगली पीढ़ी को कमान सौंप चुके हैं या अगली पीढ़ी को कमान मिल चुकी है। तभी देश के बहुत से राज्यों में नई पीढ़ी पुरानी पार्टियों को संभाल रही है या अपनी पार्टी बना कर राजनीति कर रही है। झारखंड में हेमंत सोरेन, तमिलनाडु में एमके स्टालिन, हरियाणा में दुष्यंत चौटाला, पंजाब में सुखबीर बादल, महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे, आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी जैसी और भी मिसाले हैं। लालू प्रसाद का परिवार इसमें पीछे था और इसका कारण संभवतः यह था कि लालू प्रसाद के नौ बच्चों में से बेटे सबसे छोटे थे और अगर बेटा है तो यह भारतीय समाज की पुरानी सोच है कि विरासत उसी को मिलेगी! बहरहाल, लालू प्रसाद की राजनीतिक विरासत उनके बेटे तेजस्वी यादव को मिल गई है। वैसे यह विरासत उनको मिल तो पांच साल पहले 2015 के चुनाव के बाद ही मिल गई थी, जब वे राज्य के उप मुख्यमंत्री बने थे। लेकिन तब वह विरासत उनके पिता ने उन्हें उपहार में दी थी। पांच साल के बाद 2020 में उन्होंने अपने दम पर इसे हासिल किया है। अपने को इसका असली वारिस साबित किया है। इस लिहाज से 2020 का साल बिहार की राजनीति का एक निर्णायक मोड़ बना है। लालू प्रसाद के जेल में होने, बढ़ती उम्र और सेहत की वजह से ऐसा लग रहा था कि अब उनकी बनाई पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का बिखरना तय है। एक तरफ वे लगातार राजनीतिक परिदृश्य से गायब थे और इसे अवसर बना कर भाजपा उनके कोर यादव वोट को अपनी ओर करने के लिए जी-तोड़ मेहनत कर रही थी। इन सबके बीच तेजस्वी यादव के बारे में यह धारणा थी कि उनमें राजनीतिक परिपक्वता नहीं है और वे पार्टी के सभी नेताओं को साथ लेकर नहीं चल सकते हैं। ऊपर से परिवार में कई निजी और राजनीतिक विवाद भी थे। उनकी बड़ी बहन मीसा भारती की भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा थी। वे राज्यसभा सांसद हैं और पाटलिपुत्र सीट से दो बार लोकसभा का चुनाव लड़ी हैं। राजद के कई नेता उनमें नेतृत्व की संभावना बेहतर देख रहे थे। दूसरे भाई तेज प्रताप का पारिवारिक विवाद भी इसी बीच चल रहा है। पार्टी के कई बड़े नेता अपने को नई राजनीति में अलग-थलग पा रहे थे। और इन सबके बीच भाजपा और जदयू का तालमेल हो गया था। सो, किसी को अंदाजा नहीं था कि बिहार का चुनाव में कोई कड़ा मुकाबला भी हो पाएगा। सब लोग 2010 के चुनाव नतीजों का दोहराव देख रहे थे, जब भाजपा और जदयू ने दो सौ से ज्यादा सीटें जीती थीं और राजद को महज 22 सीटें मिली थीं। परंतु तेजस्वी ने अपेक्षाकृत युवा नेताओं की रणनीति बनाने वाली टीम और अपनी समझदारी से पूरा खेल पलट दिया। अपनी कमान में हो रहे पहले ही चुनाव में उन्होंने बड़ी उपलब्धि हासिल की। नीतीश कुमार को नेता बना कर उनके साथ चुनाव लड़ कर 2015 में लालू प्रसाद ने जो हासिल किया था, वह मुकाम तेजस्वी ने बिना नीतीश के, अपने चेहरे पर हासिल किया। उन्होंने राजद को बिहार विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी बनाए रखा। इसके लिए उन्हें बड़ी लड़ाई लड़नी पड़ी। चुनाव से पहले सहयोगी दलों के बीच इस बात की लड़ाई हुई कि उनको मुख्यमंत्री के दावेदार के तौर पर पेश किया जाए या नहीं। उनको यह समझाने के लिए बड़ी मशक्कत करनी पड़ी कि अगर उनका चेहरा नहीं होगा तो राज्य के 14 फीसदी यादव वोट के यूपीए के साथ रहने की गारंटी नहीं होगी। बड़ी मुश्किल से वे सीएम दावेदार बन पाए और इस क्रम में उपेंद्र कुशवाहा, जीतन राम मांझी और मुकेश साहनी राजद का साथ छोड़ गए। तेजस्वी को बिहार की राजनीतिक हकीकत पता थी, इसलिए उन्होंने यह जिद नहीं छोड़ी कि उन्हें मुख्यमंत्री का दावेदार बनाया जाए। सीएम दावेदार बनने के बाद अपने बहुत सीमित साधनों में तेजस्वी ने कमाल का चुनाव प्रचार किया। उन्होंने एक दिन में 17 सभाएं करने का रिकार्ड बनाया। वे हेलीकॉप्टर से उतर कर भागते हुए मंच पर पहुंचते थे और चार से पांच मिनट में अपनी बात कह कर फिर भागते हुए हेलीकॉप्टर में सवार होते थे। उन्होंने औसतन 12-13 सभाएं रोज कीं। इसके बाद चुनाव का बाकी प्रबंधन और रणनीति भी देखते रहे। मतलब एलायंस बनाने से लेकर अपने को नेता चुनवाने तक और पार्टी के लिए टिकट तय करने से लेकर प्रचार करने तक सब कुछ तेजस्वी के कंधे पर था और उन्हें इन सारी जिम्मेदारियों को बखूबी निभाया। इसका नतीजा था कि राजद बिहार विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी बनी। यह सही है कि उनका गठबंधन बहुमत से 10-12 सीट पीछे रह गई, लेकिन हर बार बहुमत हासिल कर लेना ही राजनीतिक सफलता नहीं होती है। नीतीश भी पार्टी बनाने के बाद पहले दो चुनावों में हारे थे। जगन मोहन, केजरीवाल सबको पहले चुनाव में सफलता नहीं मिली। उसी तरह भले तेजस्वी को पहले चुनाव में सफलता नहीं मिली है लेकिन उनका आगाज हो गया है। बिहार को एक नया नेता मिल गया है।
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