बेबाक विचार

विदेश नीति में क्या होता हुआ?

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विदेश नीति में क्या होता हुआ?
भारत अपनी बदहाली, अपने सियासी गृहयुद्ध में ऐसा खोया है कि न दुनिया में भारत का मतलब बचा है और न वह खुद मतलब बनाने की हैसियत में हैं। इन दिनों विश्व राजनीति खौलती हुई है। यूक्रेन पर अमेरिका और रूस में जबरदस्त ठनी है। योरोप पर जंग के बादल है। राष्ट्रपति जो बाईडेन ने इस सप्ताह रूस को जैसी जो चेतावनी दी है वह बहुत गंभीर है। उसे पुतिन के लिए बरदास्त करना मुश्किल होगा। ऐसे ही चीन, अफगानिस्तान और ईरान के वे मसले है जिन पर महाशक्ति देशों के कूटनीतिज्ञ भागदौड कर रहे है। हर तरह से लग रहा है कि सन् 2022 का साल विश्व राजनीति और आर्थिक कूटनीति में उथलपुथल का होगा। वैश्विक सप्लाई चैन और पट्रोलियम पदार्थों की कीमतों के दो पहलू कई देशों की आर्थिकी को तबाह करेंगे तो देशों के बीच कलह-झगड़े बढ़ने भी तय है। क्या भारत की विदेश नीति किसी वैश्विक मसले में सक्रिय हैं? अपने हित साधते हुए है? रूस और अमेरिका में ठनी है तो भारत किधर है? वह तटस्थ है या अमेरिका और योरोपीय देशों के साथ? सवाल इसलिए अंहम है क्योंकि हाल में राष्ट्रपति पुतिन की भारत यात्रा हुई थी। उससे दुनिया में चर्चा बनी  कि चीन से टकराव खत्म करवाने के लिए पुतिन को भारत मध्यस्थ बना रहा है। संभव है आगे रूस-भारत-चीन के आरआईसी मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राष्ट्रपती शी जिनपिंग के गले लगें। उधर रूस से एस-400 मिसाईल खरीदने व भारत-रूस संयुक्त उद्यम के ब्राहोस् मिसाइल फिलीपींस को बेचने की घटना की भी अमेरिकी प्रशासन ने अनदेखी नहीं की होगी। जब भारत-चीन की सीमा की स्थिति पर अमेरिकी निगाह है और वह भारत के पक्ष में स्टेंड लिए हुए है तो रूस से टकराव में बाईडेन प्रशासन मोदी सरकार से क्या उम्मीद करता हुआ होगा? सवाल यह भी है कि यदि रूस और राष्ट्रपति पुतिन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तनिक भी कैमेस्ट्री है तो भारत की विदेश नीति को क्या यूक्रेन के मामले में कोई भागदौड अदा नहीं करनी चाहिए?  ध्यान रहे यूक्रेन और योरोपीय संघ भी भारत के लिए महत्वपूर्ण है। यह भी पढ़ें: विदेश नीति में क्या होता हुआ? इस सब पर मोदी सरकार का व्यवहार ऐसा है मानों पीएमओ, विदेश मंत्रालय को भान भी नहीं कि विश्व राजनीति कैसी ऊबली हुई है। दरअसल मोदी सरकार की विदेश नीति कई कारणों से निठल्ली है। चीन पीछे हटने को, लचीला बनने को तैयार नहीं तो ऊपर से आर्थिक हालात खस्ता। साथ ही तमाम तरह की वैश्विक रैंटिंग में गिरावट से भी दुनिया में भारत कहानी खत्म है। दुनिया की उम्मीदों में मोदी सरकार फेल है। प्रधानमंत्री ने हाल में डावोस के वैश्विक जमावड़े में भाषण देते हुए भारत के लोकतंत्र के कसीदे काढ़े। चीन के मुकाबले भारत की अपील में लोकतंत्र की पूंजी का आकर्षण बनाना चाहा मगर सच्चाई यह है कि अमेरिका, ब्रिटेन, योरोप आदि सभी लोकतांत्रिक देशों का मोदी सरकार से भारत में लोकतंत्र के बाजे बजने से ही मोहभंग है। सब इस बात से चिढ़ गए है कि प्रधानमंत्री मोदी दुहाई लोकतंत्र की देते है लेकिन देश में लोकतंत्र व मानवाधिकारों को सूखा दे रहे है। एक वक्त सभ्यताओं के संर्घष में भारत, मोदी सरकार, हिंदू सरकार का वैश्विक थिंक टैंकों में अलग मतलब बना था। उसे चीन का विकल्प, चीन के मुकाबले की वैश्विक लोकतांत्रिक मिसाल बनाने, चीन की जगह पश्चिमी कंपनियों को भारत में स्थापित करवाने का ख्याल था। भारत विदेशी निवेश का नंबर एक ठिकाना बन सकता था। लेकिन वह सब अब खत्म है। चीन को छोड़ने वाली कंपनियां या तो वापिस अमेरिका, योरोप में मेन्युफैक्चरिंग बढ़ाते हुए है या विएतनाम, आसियान देशों, अफ्रीका में फैक्ट्री हब बना कर भारत को सामान बेचने का तरीका अपना चुकी है। निश्चित ही चीन के दूरी बनाने के मिशन में पश्चिमी देश भारत से आयात बढ़ा रहे है लेकिन भारत खुद वैश्विक सप्लाई चैन के संकट का मारा हुआ है।    यह खबर भी दुनिया के निवेशको के लिए भारत से दूर रहने का फैसला बनवाने वाली है कि अमेरिका की नामी टेसला कंपनी भारत में लंबे समय से धंधा करने की कोशिश में है लेकिन उसके लिए भारत में काम करना संभव नहीं हुआ। उसकी इलेक्ट्रीक कार पर सौ फिसद की आयात ड्यूटी व बेइंतहा लैंडिग लागत से हिम्मत नहीं हो पाई। जब दुनिया बिजली के वाहनों के पीछ भाग रही है और टेसला की नंबर एक वैश्विक साख है बावजूद इसके वह कंपनी भी यदि भारत की अफसरशाही से पस्त है तो अमेरिकी, योरोपीय कंपनियों और वहां की सरकारों के लिए भारक का आकर्षण कितना बचा होगा। तभी इन देशों से भारत के आपसी व्यापार समझौते, मुक्त व्यापार के करार की सालों पुरानी कोशिश सिरे नहीं चढ़ी है। न सामरिक-भूराजनैतिक कूटनीति और न आर्थिक कूटनीति में मोदी सरकार समर्थ। दुनिया की निगाह में भारत का मतलब सिर्फ बाजार का बचा है। महाशक्तियों में एक महाशक्ति के नाते यूक्रेन, प्रशांत क्षेत्र में चीन की दादागिरी आदि में भूमिका सोचना तो खैर सपनों में भी संभव नहीं।
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