बेबाक विचार

लंदनः समझदारी की पाठशाला

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लंदनः समझदारी की पाठशाला
जिंदगी को समझने और जीने की अपनी तीसरी लोकेशन लंदन है। मैं जनसत्ता की तरफ से 1985 में पहली बार लंदन गया। वह मेरी पहली विदेश यात्रा थी। पंडित रजत शर्मा को साथ ले कर गया था। उस पहली यात्रा का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि जब हीथ्रो एयरपोर्ट पर विमान उतरा तो एयरपोर्ट को देख और फिर एयरपोर्ट से ठहरने के ठिकाने तक जाते हुए मेरी आंखें फटी हुई थीं। मैं अपने आपको अंतरराष्ट्रीय मामलों का, विदेश की पत्र-पत्रिकाओं को पढ़ते हुए, वहां की खोज-खबर रखने वाला मानता था लेकिन ज्योंहि लंदन एयरपोर्ट पर उतरा तो आंखों को, दिमाग को समझ नहीं आया कि मैं कैसी मायावी दुनिया में आ गया हूं! ऐसा विकास और जिंदगी को इस तरह जीना क्या स्वर्गलोक नहीं? हम कैसे नरक में रहते हैं और ये कैसे स्वर्ग में! वह मेरी दो सप्ताह लंबी लंदन, पेरिस यात्रा थी। उसने समझाया कि दुनिया को, इंसान को, विकास को समझने की पाठशाला का नाम है लंदन। संयोग जो लंदन फिर खूब आना-जाना हुआ। मुझे याद नहीं कि कितनी बार गया। बाद में ब्रितानी सरकार ने भी आयरलैंड सहित पूरा ब्रिटेन घुमाया तो अमेरिकी दूतावास द्वारा अमेरिका घुमाने के महीने के कार्यक्रम में संयोग बना, जो शादी के तुरंत बाद पत्नी को लेकर लंदन गया तो वह भी डेढ़ महीने लंदन रही और उसी के साथ अपने परिवार के लिए लंदन वह तीसरी लोकेशन बनी, जिसमें न केवल बार-बार आना-जाना हुआ, बल्कि बेटे-बेटी की पढ़ाई और टेनिस कोचिंग का महीनों, सालों का स्थायी ठिकाना भी बना। अब आठ-दस साल से जरूर जाना रूका है। विधान के एलएलएम कर लेने और अपने रिटायरी मोड के बाद विदेश का मतलब नहीं रहा। यों भी जब सब समझ लिया है, दुनिया के पैमाने में मेरी, हमारी, भारत की निस्सारता बूझ ली है तो वहां जा कर मानसिक वेदना में क्यों फड़फड़ाया जाए। जो हो, पत्रकारिता के मेरे कैरियर में लंदन भारत बनाम दुनिया के फर्क को बतलाने, सिखलाने, समझाने वाली पाठशाला रही। उसके साथ यूरोपीय देशों और अमेरिका को घूमना सप्लीमेंटरी पाठ थे। लंदन ने आंखें खोलीं। बुद्धि को विन्यास दिया। शरीर की जितनी इंद्रियां हैं, सेंसेज हैं, उनकी सूक्ष्मतम अनुभूतियों का बोध कराया। शरीर-दिमाग-दिल-स्वाद-रंग-श्रवण आदि की सिम्फनी में, उनके उमंग-आनंद-उत्सव के ज्वार में सर्फिंग का मजा लेते देशों को देखा!लंदन ने समझाया कि वे कैसे रहते हैं, सोचते हैं और हम कैसे हैं और कहां हैं! समझदारी तब बनती है, बुद्धि तब खुलती है जब दो प्रमाण, उदाहरण दिल-दिमाग में साक्षात हों। सन् पिचयासी की पहली ब्रिटेन यात्रा में लंदन से बर्मिघम की एम-4 सड़क पर जब मैंने पहली बार कार को दौड़ते देखा तो समझ नहीं आया कि यहां तीस साल पहले एक्सप्रेसवे बन गए, जबकि भारत में हाईवे कांसेप्ट भी नहीं पहुंचा तो भला क्यों? पंडित नेहरू हैरो में पढ़े हैं, अंग्रेजों की व्यवस्था को जब जिंदा जीया है या इंदिरा गांधी और उनके मंत्रियों का लंदन आना-जाना लगा रहता है तो बावजूज इसके इनका शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान-विज्ञान, काबिलियत, प्रतिस्पर्धा, राजनीति का अंदाज दिल्ली छाप, पिछड़ा ही क्यों है? भारत की सत्ता के दिमाग में, भारत के संविधान के दिमाग में लंदन, पेरिस, वाशिंगटन की नकल के बावजूद उसके साथ उसकी अक्ल क्यों नहीं? समझ आया कि वे लोग मौलिक हैं। वे अपनी भाषा में विचारते हैं, सब एक से हैं। जनता भी ट्यूब में चलती हुई तो प्रधानमंत्री भी ट्यूब में। वहां हाकिम नहीं होते हैं लोकसेवक होते हैं। न अवतार होते हैं और न राक्षस होते हैं सब इंसान होते हैं। जबकि दिल्ली का हमारा तिलिस्म तो अंग्रेजों की गुलामी व गुलामी के सदियों से चले आ रहे कानूनों, संस्कारों, स्वभावों में ऐसे रचा-बसा और गुंथा हुआ है कि कबीरदास भी हुकूम-हुजूरी पर सोचते थे तो आज भी 138 करोड़ लोग उसी में सांस लेते हैं। अनुभव जब गुलामी के जिंस बनाए हुए है तो नकल भले बना लें व्यवहार जिंस में ही ढला होगा। विचारना चाहिए कि फ्रांसीसी क्रांति मौलिक थी और वह दुनिया के लिए मशाल थी। बावजूद इसके फ्रांसीसी लोगों ने अपनी आजादी, अपने अधिकारों, अपनी व्यवस्था को बार-बार बेहतर बनाने का काम सतत किया। उसके एक राष्ट्रपति द गाल ने संविधान बदल-बदल कर फ्रांस के गणतंत्र को नया बनाने के कई प्रयोग, मौलिक सुधार किए। ब्रिटेन तीन सदी की पंरपराओं, संसदीय लोकतंत्र में भले ढला रहा है, वह परंपरावादी लगता है लेकिन वक्त की जरूरत में उसकी संसद ऐसे मौलिक कानून बनाती है, जिसमें आगा-पीछा सोचा होता है। वहां की हर सेवा, हर व्यवस्था नागरिक के प्रति जवाबदेह होगी, उसकी चिंता में होगी। वहां कोई प्रधानमंत्री, कोई राष्ट्रपति भगवान नहीं हुआ। लंदन की सत्ता, लंदन का पीएमओ, लंदन की नौकरशाही, उसकी संसद, उसके सुप्रीम कोर्ट से ऐसे आदेश निकल ही नहीं सकते है कि यदि कालों के साथ इतिहास में दुर्व्यवहार हुआ था तो अब उन्हें संतुष्ट करने के लिए ऐसा कानून बने, जिसमें काला व्यक्ति पुलिस में किसी की शिकायत करे तो आरोपी को बिना जांच के ही गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया जाए। हां, इतिहास की सड़न में आज के वक्त को गढ़ना लंदन, पेरिस, वाशिंगटन की तासीर नहीं है। वे इतिहास से जुड़े हुए हैं, सबक लिए हुए हैं लेकिन वे जीते हैं अपनी सभ्यता के विकास में अपने आपको सर्वोपरि बनाने के मिशन में। ठीक विपरीत दिल्ली का सत्ता तिलिस्म न इतिहास बोध लिए हुए है न वर्तमान के बोध में है। उसे तो बस अपने तिलिस्म में लोगों को गुलाम, बुद्धिहीन, नकलची और माईबाप सत्ता का दास बनाए रखना है। इसके बतौर औजार इतिहास में पहले शहर कोतवाल होते थे और अब नौकरशाही के आधुनिक नाम में अलग-अलग किस्म के ऐयार हैं। सोचें कैसे ऐसा है कि अंग्रेजों की बनाई व्यवस्था का आईएएस और आईपीएस भारत में माईबाप है जबकि लंदन में निराकार जनसेवक! दुनिया का जुमला है कि पावर करप्ट करता है। हर देश पांच-सात प्रतिशत कुलीन लोगों से शासित होता है। तब कल्पना करें डोनाल्ड ट्रंप दुनिया के नंबर एक ताकतवर नेता। अमेरिका,फ्रांस, ब्रिटेन जब सचमुच पावर की वैश्विक ताकतें हैं तो हिसाब से वहां के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वजीरों, अफसरों की ताकत भी भयावह बनती है। मगर वहा कथित पावरफुल ट्रंप की मनमानी पर भी अंकुश है तो फ्रांस, ब्रिटेन में तो पता ही नहीं पड़ेगा कि कोई अफसर कैसे पावर उपयोग करता है। ब्रिटेन या उस जैसे सभ्य-विकसित देशों ( स्केंडिनेवियाई देश-फ्रांस-न्यूजीलैंड-कनाडा आदि) में प्रशासन, सरकार का जो पावर है वह जनता को उसके अधिकारों में जगमग करने के लिए होता है। बहरहाल, अपना सचमुच मानना है कि लंदन दुनिया का दरवाजा है तो वह वैश्विक पाठशाला भी है, जिसके अनुभव में बूझा, समझा जा सकता है कि वे क्या और हम क्या! और यह सवाल भी कि लंदन के उपनिवेश रहे कनाडा, अमेरिका या आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि यदि अपनी आजादी के बाद अपना संविधान, अपनी व्यवस्था, अपनी रचना लाजवाब बना कर दुनिया के सिरमौर देश बने हैं तो भारत उनका छटांग भी नहीं हो पाया है तो कहीं तो हम हिंदुओं के डीएनए में खोट है!हमें क्यों नहीं राज करना आया? क्यों नहीं हमारे प्रधानमंत्री, हमारे लीडर लंदन, पेरिस, न्यूयॉर्क घूम कर नहीं सोचते कि हम क्यों न ऐसा बनें! इस बिंदु पर अपने मूर्ख, लंगूर नागरिक मुंगेरीलाल के सपनों वाली बातें कर सकते हैं। वे बातें, जिनसे दिल्ली का तिलिस्म, भारत की हुकूमत को मूर्खताओं के वायरस संक्रमित होते हैं। पर जिन्होंने दुनिया घूमी हुई है और दुनिया में रह रहे भारत के लोग जानते हैं कि भारत में जीना भी क्या जीना है! हमारा जीना दुनिया के ओलंपिक में बिना मेडल के है तो देश के भीतर  व्यवस्था-हाकिम की दबंगी के रहमोकरम में उसकी भयाकुलता में सिसकना है। दो महीने काम नहीं करेंगे तो भूखे मरने की नौबत आ पड़ेगी और वायरस जैसी कोई विपदा आई तो लाखों-करोड़ों परिवार अपने छोटे-छोटे बच्चों को लेकर भूखे-प्यास सैकड़ों-हजारों किलोमीटर पैदल चलेंगे। वह भी 21वीं सदी के सन 2020 में! लंदन की पाठशाला का अनुभव लेते-लेते मैंने भारत के 11 प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल को संसद भवन, नई दिल्ली में देखा, बूझाऔर समझा। वाशिंगटन के व्हाइट हाउस, लंदन के व्हाइट हॉल में जनता को सूचना देने, अफसरों के व्यवहार के साथ दिल्ली के राष्ट्रपति भवन के कैबिनेट सचिवालय के सचिवों और साउथ ब्लॉक के पीएमओ को जनता का एजेंडा बनाते भी देखा। दोनों के फर्क का निचोड़ है किउस कौम, उस नस्ल, उस देश में ही जिंदगी जिंदादिल हो सकती है, जिंदगी का सच्चा मजा है, जहां जिंदगी को आजादी, उसके मानवाधिकार मिले हुए हों। मतलब इंसान को, मनुष्य को उसकी धड़कन के तमाम, रस, स्वाद, स्वर, संगीत, चेतन, अचेतन, अवचेतन की कल्पनाओं, उड़ानों, अनुभवों व अहसासों को पंख के साथ हंस की तरह उड़ने देने का मौका। लंदन की पाठशाला का सारतत्व है कि वह कौम, वे लोग धन्य हैं, जो जिंदगी को जिंदादिली से जीते हुए परमहंस की अवस्था में स्वर्ग जाते हैं और वे लोग शापित हैं जो कौवे की कांव-कांव में सोने की चिड़िया बने होने के ख्याल में नरक भोगते हैं। (जारी)
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