टेढ़ा मसला है। जिंदगी का चरित जन्मभूमि से सोचें या कर्मभूमि से? मेरी जिंदगी के 45 साल दिल्ली (एक वर्ष मुंबई भी) की कर्मभूमि के हैं और 19 साल जन्मभूमि भीलवाड़ा के! तो मैं अपने को भीलवाड़ा से खोजूं या दिल्ली से? यह सवाल मौजूदा समय का भी घाव है। वायरस से जीना खतरे में पड़ा तो प्रवासी, असंख्य दिहाड़ी मजूदर कर्मभूमि छोड़ घर लौटने को तड़पे! दुनिया गांव बनी है और लोग जन्म के खूंटे से दूर जब प्रवासी हैं तोउनके जिंदगीनामे में जन्मभूमि से बना चरित है या कर्मभूमि से? अपने नरेश कौशिक, राजीव गुप्ता, शालू क्रमशः ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया जा बसे हैं तो वे अपने आपको भले वहां का बताएं लेकिन जन्म और बचपन की याद के मरोड़े क्या उन्हें भारत के नहीं आते होंगे? इनके वहां के कर्म, जीवन में भी गर्भनाल की मिट्टी का घूमा चक्का है। राम अपनी जन्मभूमि अयोध्या के कहलाएं या कर्म गाथा में वनवासी जीवन वाले?
मसला उलझा हुआ है। सोचना है 45 साला मेरी कर्म जिंदगी भले कहीं भी बनी, पकी, खिली हो लेकिन चरितनामा तो जन्मभूमि और बचपन की छोटी-छोटी बातों से बना है। जिनके अर्थ मुझे जिंदगीनामा लिखते हुए बूझ पड़ रहे हैं। दरअसल बचपन और उसकी मासूमियत के अर्थ ताउम्र छुपे रहते हुए मरते हैं। इसलिए कि व्यक्ति की आम जिंदगी भला कहां वह ठहरा वक्त पाती है, जिससे जिंदगीनामे पर जुगाली में गुनगुनाते बचपन को याद करके उसके अर्थ निकाले जा सकें! बचपन की गुनगुनाहट, उसकी छुनछुन के क्या कहने! वो बारिश का पानी,वो कागज की कश्ती, वो भीगना, वो उछलना-कूदना और नाना-नानी के घर गर्मियों में खेत, तालाब के किनारेकेरी-करोंदे-आम का वह रस, स्वाद और उस जैसेरस में गोते मारते-मारते वह लड़कपन पा जाना कि किसी को देखा तो दिल धड़का!
संदेह नहीं बचपन, स्कूल-कॉलेज सा वक्त जिंदगी में दूसरा नहीं होता। वह समय न केवल जिंदगी का मासूम रसरंग, मजा लिए होता है, बल्कि उसी के रस से, संस्कारों से, उनकी नींव में आगे की जिंदगी बनती व बिगड़ती, है वह टेढ़ी-मेढ़ी या सीधी आगे बढ़ती है। तो दो बात हुई। एक, बचपन किसी भी हैसियत में गुजरा हो, चाहे गरीबी-तकलीफ-परेशानियों में गुजरा हो तब भी वह, उसकी मासूमियत, उसका मजा और रस ताउम्र गुनगुनाहट बनाए रखता है। दो, बाल काल, विद्याकाल ही पूरी जिंदगी की गढ़ाई है। उसी से वयस्क जिंदगी का पूर्वार्ध, मध्यान्ह, उत्तरार्ध सब है।
हां, जीवनी में जन्म की भाग्य रेखा का मसला, जैविक केकड़ेवाद का मसला जरूर अलग है लेकिन जन्म, बाल संस्कारों के धागों में जीवन का बुना जाना अनिवार्य है, लाजवाब है तो अबूझा भी। मैं हिंदू, ब्राह्मण परिवार में पांच भाई-बहनों में सबसे बड़ा और अलग अपनी भाग्य रेखा के साथ, बॉयोलॉजिक रसायनों के साथ पैदा हुआ। पैदाइश में ईश्वरीय कृपा, अकृपा से मेरे हिस्से छंट कर आए डीएनए व भाग्य रेखा का मसला अलग है। लेकिन उसके बाद बचपन जैसा हुआ और उससे जो बना, जो संस्कार पैंठे, वह बाल और बाली उम्र में बनी वह बुनियाद थी जिस पर चेतन-अवचेतन, मनोविज्ञान, बुद्धि की मंजिलें बनीं और उनसे फिर जिंदगी के थपेड़ों का सामना किया।
सो, जन्मभूमि और बचपन जिंदगी की धड़कन है। फिर भले कोई इस बात को माने या न माने और वह जन्मभूमि और बचपन से रागात्मकता रखे या न रखे। अपना तर्क है यदि किसी व्यक्ति को खोजना है, उसे जानना-समझना है तो पहले उसके बचपन की गहराई में जाना होगा। वह कैसे परिवार में जन्मा, कैसी परवरिश हुई? उसने बचपन को बचपन वाली मासूमियत, उसकी कल्पनाओं में जीया या उलट किसी साये विशेष में बंधा व भटका। भारत क्योंकि भीड़ है और बतौर हिंदू हम पूर्वनिर्धारण, नियति, भाग्य व भगवान भरोसे जिंदगी बिताते हैं और जिंदगी पर सोचते नहीं हैं तो व्यक्ति विशेष की जीवनी, अपनी जीवनी की बारीकियों में खोना हमारी प्रवृत्ति नहीं है। जीवनी को कलमबंद करने का तो खैर सवाल ही नहीं उठता। न परंपरा है और न हुनर बनाया जाता है। भीड़ समझना ही नहीं चाहती कि फलां व्यक्ति या फलां यदि देश नियंता, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री याकि राजा है तो वह बचपन कैसा लिए हुए था? अब कोई कहे कि हम तो जानते हैं नेहरू संपन्न परिवार के विदेश में पढ़े-लिखे लाड़ला जीवन लिए हुए थे और नरेंद्र मोदी मुश्किल का, चाय बेचने वाला हार्ड जीवन लिए थे तो हम भला जीवनी जानने, पढ़ने, खबर रखने वाले कैसे नहीं हुए?
ऐसी एप्रोच धर्म कथाओं वाली है, जबकि जिंदगी विशेष का जीवन होमो सेपियंस की विकास प्रक्रिया के चेतन-अवचेतन मनोविज्ञान के धागों का मकड़जाल होता है। केकड़ों का जैविक रसायन लिए होता है। आजाद भारत में अब तक 14 प्रधानमंत्री दिल्ली के तख्त पर बैठे हैं। अपना दावा है कि इन 14 चेहरों के बचपन पर यदि बारीकी से गौर हो तो अपने आप, प्रामाणिक तौर पर मालूम होगा कि किन कारणों से फलां प्रधानमंत्री की सुसंस्कृत, लोकतंत्र मिजाजी लीडरशीप थी, फलां कैसे दूरदृष्टि के सुधारक फैसले लिए हुए था और फलां क्यों गंवार-मूर्ख प्रमाणित हुआ।
बहरहाल मैं भटक रहा हूं। मोटी बात बचपन से जिंदगी का विस्तार है।
अब सवाल है बचपन को मैं कैसे याद करूं? कैसे बचपन लिखा जाए? परिवार की वंशावली को, स्थितियों को क्या खबर की तरह कब, क्यों, कैसे, कितने की बुनावट में लिखा जाए? या संस्कार, इंद्रियों, दशा-दिशा बनवाने के कारकों में बचपन को भेदा जाए? अन्य शब्दों में यह ‘पंडित’विशेष जैसा है, वह बतौर पत्रकार, लेखक जैसे लिखता-विचारता है उसे बनाने वाले बचपन के धक्के, रस, संस्कार क्या थे? मैं जैसा जो हूं वह कैसे हूं और उसके बाल बीज क्या थे? कौन सी वे घटनाएं हैं, जिनकी स्मृतियों से तब और अब का फर्क दिखता है और देश, समाज की दिशा कैसी-क्यालगती है? मेरा बचपन कौन से शब्द, कौन से रस लिए हुए था जबकि मेरे बच्चों का बचपन व आज का बचपन कैसे शब्द, क्या अंदाज लिए हुए है?
लब्बोलुआब कि मेरी कहानी में जन्मभूमि, बचपन क्या लिए हुए थे, जिससे कहानी अलग-निराली बने? मुश्किल है कहानी को ऐसे खोजना! सोचें, यदि आप अपना जिंदगीनामा लिखने बैठें तो आप अपने जन्मस्थान और बचपन को कैसे बताना चाहेंगें?क्या आप अपनी कहानी को पठनीय बना सकते हैं? तय कर सकते हैं हमने बचपन में वह क्या किया जिस पर जीवनी है?
इस मोड़ पर सवाल यह भी बनता है कि मेरा होना क्या है जो मैं जिंदगीनामा गुंथू? जिंदगी ऐसी है क्या जोजीवनी लायक है और उसके बचपन के धागे तलाशूं? (जारी)
हरि शंकर जी,
बचपन की समधुर बातें करते करते आप फिर अपनी चापलूसी की महत्वाकांक्षी सोच को उघाड़ बैठे। बक़ौल आपके ‘बहरहाल मैं भटक रहा हूं। मोटी बात बचपन से जिंदगी का विस्तार है।’
उसी क्रम में हर व्यक्ति को अपने बाल घट की महत्वाकांक्षाओं को सदृढ़ आकार देते समय कई मानदण्डों और कसौटियों पर स्वयं को तपाना पड़ता है, पर कमजोर मन अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में मानदण्डों की समुचित कसौटियों से परे समझौतापूर्ण आचरण करने लगता है जो उसके मूल स्वभाव के विपरीत है, यहीं से अन्तर्द्वन्द शुरू होता है जो व्यक्ति के जीवन को दुविधा से भर देता है और यदि वह लेखक है तो वैचारिक स्तर का यह अन्तर्द्वन्द, भटकाव बन रह रह कर उसकी लेखनी में उजागर होने लगता है, आपके व्यक्तित्व और लेखनी की तरह।
हां बचपन से जिन्दगी का विस्तार है पर उस बचपन को आकार देने वाली सोच का स्तर और उसकी जांच कसौटी कौनसी है, क्या जीवन मूल्यपरक लिये हुए है सब उस पर निर्भर करता है। एक ही गुरू से शिक्षा प्राप्त करने वाले राज परिवारों में पले युधिष्ठिर, अर्जुन, अश्वत्थामा, भीम और दुर्योधन के बचपन ने क्या विस्तार लिया है, किसी से छुपा हुआ नहीं है। एक ओर स्पष्ट मनःस्थिति लिये बालकों का पुरुषार्थ धीर गम्भीर, धर्म परायण रहा तो दूसरी ओर अपनी निष्ठुर महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए उच्छंखलता से लिप्त विचलित, भ्रमित, वैचारिक भटकावों से ग्रसित जीवन बन गया। यही देवव्रत, द्रोण, कर्ण जैसे परशुराम शिष्यों के साथ भी हुआ, मनःस्थिति और निष्ठाओं के आलम्बन से उनकी क्रमशः विचलन, स्पष्ट और भटकाव वाली स्थिति बनी। यही रावण विभीषण से लेकर औरंगजेब दारा शिकोह में भी दृष्टिगोचर हुआ है तो पहले प्रधानमंत्री नेहरू से लेकर वर्तमान प्रधानमंत्री मोदी और लौह पुरुष सरदार वल्लभ भाई में भी। किसी ने अपनी महत्वाकांक्षाओं के आगे प्रजा राष्ट्र हितों को, अपने ही जीवन मूल्यों को अनदेखा कर दिया तो किसी ने उच्च मानदण्डों में से श्रेयस्कर को चुन महत्वाकांक्षाओं को गौण मान सहर्ष निष्ठुर जीवन अंगीकार कर लिया।
जिसने अपने विचारों को, मूल्यों को मथा है विवेक की मथानी से तो उसे जीवन का सार मक्खन रूप में भी मिला है तो तृप्ति दायक छछिया से तृप्ति भी। पर जो अधीर बन अपने ही उथले तर्कों से संक्रमित मिश्रित दुग्ध को व्यर्थ ही आपकी तरह मथ रहा हो तो उससे न तो छाछ बनती, न मक्खन और न ही पनीर।
बक़ौल हरि शंकर जी आपके ‘बारीकी से गौर हो तो अपने आप, प्रामाणिक तौर पर मालूम होगा कि किन कारणों से फलां प्रधानमंत्री की सुसंस्कृत, लोकतंत्र मिजाजी लीडरशीप थी, फलां कैसे दूरदृष्टि के सुधारक फैसले लिए हुए था और फलां क्यों गंवार-मूर्ख प्रमाणित हुआ।’ इस पर पटेल के निर्वाचन को अपनी महत्वाकांक्षा की निष्ठुरता में हथियाने वाले अभिजात्य घराने में जन्मित नेहरू के पद से ग्रसित जम्मू कश्मीर के रिसते राष्ट्र नासूर को उपचारित करने वाले निर्धनता में जन्मित मोदी के बचपन से सीखा जा सकता है कि किस प्रधानमंत्री की सुसंस्कृत, लोकतंत्र मिजाजी वाली लीडरशिप है और उसके मूल्यों के मूल में क्या है? सत्य, कटु को स्वीकारने के लिए भी अदम्य जीवन मूल्य की आवश्यकता होती है, अस्तु।
कैलाश माहेश्वरी
भीलवाड़ा-राजस्थान।
94141-14108