बेबाक विचार

वक्त, बचपन और जिंदगी से ईर्ष्या!

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वक्त, बचपन और जिंदगी से ईर्ष्या!
अपनी जिंदगी धन्य है! अपनी जिंदगी से अपने को ईर्ष्या है। ऐसा कई कारणों से सोचता हूं। मुझे लगता है मैंने भारत के सफर को देखते हुए उसे अपने सफर में जीया है। कोई 12 प्रधानमंत्रियों का चरितनामा खुर्दबीन से देखा है। दिल्ली दरबार के उन चेहरों को जाना, बूझा व लिखा, जिनसे भारत है, भारत का महाभारत और उसकी दास्तां का आगा-पीछा है। मैं 1956 में तब जन्मा जब आजाद भारत का बाल काल था। जैसे मैं बचपन के रंग, मासूमियत लिए था वैसे ही नेहरू काल के भारत राष्ट्र-राज्य का बचपन था। जब अपनी जिंदगी में राजनीतिक जागृति कुलबुलाना शुरू हुई तो वैसे ही सत्तर के दशक में देश में सियासी कुलबुलाहट थी। आज यदि मैं जीवन के उत्तरार्ध में अपनी जिंदगी पर सोच रहा हूं तो देश भी उस कोविड-19 की अवस्था में है, जिसमें सवाल है भारत का आगे क्या? कह सकते हैं शब्दों की जुगाली में अपनी और भारत की जिंदगी के सफरनामे को बुनते हुए मैं कथा को पठनीय बनाने की कोशिश में हूं। ऐसा है नहीं। आमतौर पर लोग अपना जिंदगीनामा अपने धमाकों का दस्तावेज बनाते हैं। मैं कुछ अलग सोच रहा हूं। विचार रहा हूं कि मैंने अपने वक्त में जिंदगी जैसे जी या जो सफर हुआ उसके क्रम में ही जिंदगीनामा आगे बढ़े। मतलब मेरा जन्म, घर, बचपन, लड़कपन भी तो वक्त की तासीर, ट्रेंड लिए हुए होगा। सच है अपना मतलब नहीं है। अपन जीरो हैं। लेकिन वक्त तो लिए होता है घर-परिवार, रहन-सहन, समाज सबका आईना। बचपन में जिस वक्त ने मुझे खिलाया, बड़ा किया और उसी में जब बना तो जिंदगी के साथ उस वक्त को बूझना, जानना भी महत्वपूर्ण है। तभी ख्याल है ‘पंडित का जिंदगीनामा’ वक्त और निज जीवन की जानकारियों का मिश्रयहोना चाहिए। बहरहाल, सवाल है जिंदगी विशेष की उपलब्धि को कैसे समझा जाए? जिंदगी का मजा कब है? अपनी राय में तब है जब वह बिना बोझ के गुजरी हो! वक्त ने वह गंगा बहाई हो जिसके प्रवाह में व्यक्ति विशेष के मिजाज, दिलचस्पी व शगल का मौका मिलता जाए और सिद्धि बने। उस नाते अपना सत्य है कि वक्त ने मुझे कभी रोका या ठहराया नहीं। सचमुच नहीं। मेरा यह निष्कर्ष जगदीश से बात, बात में निकला। जगदीश जोशी भीलवाड़ा में मेरा सहारा और उम्र में मेरे से बुजुर्ग 72 वर्षीय! ठहरे वक्त की एक शाम हम घर के पोर्टिको में चाय पी रहे थे तभी अचानक दिमाग ने जगदीश से सवाल किया- तुम मुझे कब से जानते हो? उसने याद कराया जब आपने ‘नूतन दुनिया’ निकाला। डॉ. साहब (शिवकुमार त्रिवेदी) ने आपसे मिलने को कहा था और आपने मुझे दिल्ली में आरएनआई जा कर प्रिंट लाइन में चेंज कराने का जिम्मा दिया था। मैंने दिमाग पर जोर डाला। मतलब 1980 के आसपास। वे दिन याद हो आए। अचानक समझ आया कि मेरी पत्रकारिता का पहला उद्यम भीलवाड़ा में था। 1975 में जेएनयू, वहां के हॉस्टल में रहते हुए स्वतंत्र पत्रकारिता, उसे छोड़ टाइम्स समूह में मुंबई में ट्रेनी पत्रकारिता के साथ पत्रकार का ठप्पा। फिर उस पहली नौकरी को छोड़ दिल्ली लौटना और फ्रीलांस पत्रकारिता के बीच चलते-चलाते भीलवाड़ा में प्रेस लगा कर साप्ताहिक ‘नूतन दुनिया’ निकालने का उद्यम! वह पहला उद्यम था या मुंबई से लौट कर संवाद परिक्रमा के नाम से 1979 में फीचर एजेंसी शुरू करना पहला उद्यम? लगता है भीलवाड़ा का शगल ही पहला उद्यम। समय के प्रवाह में मैंने पहले जेएनयू छोड़ा। टाइम्स समूह में नौकरी पाकर मुंबई गया। माधुरी-धर्मयुग-नवभारत टाइम्स में ट्रेनिंग ली। फिर जब लगा धर्मयुग या माधुरी में फिल्मी पत्रकारिता होनी है तो मैंने मुंबई व फिल्मी दुनिया के मिजाज में अपने को तौलते हुए टाइम्स ग्रुप छोड़ (कंपनी में बांड जब्त करवा कर)  दिल्ली लौटने का फैसला किया। दिल्ली लौट कर स्वरोजगार वाली फीचर एजेंसी बनाई और हिंदी के अखबारों के लिए सिंडीकेट लेखन करने लगा। (आगे विस्तार से बताऊंगा) वह दुस्साहस था! 23-24 साल की उम्र थी और घर से तब थे बाबाजी! जगदीश द्वारा ‘नूतन दुनिया’ की याद कराते ही मैं 40 साल पुराने फ्शैसबैक में गया। सोचने लगा तब भीलवाड़ा में मकसद मेरा क्या था जो आरएफसी से लोन ले कर मैंने प्रेस लगाई व एक साप्ताहिक फर्रा निकाला? दिल्ली में जब पांव टिक रहे थे तब उद्यम क्यों? जाहिर है फितूर था, फितरत थी। प्रेस भाई की असमर्थता से नहीं चली और भीलवाड़ा व दिल्ली दोनों जगह पांव फंसाए रखने के कारण मुझे प्रेस और साप्ताहिक दोनों बंद करने पड़े। जाहिर है पूंजी जुटा कर, कर्ज लेकर भीलवाड़ा में मेरा अकेला उद्यम फेल था। पर फेल होना मैंने नहीं माना। मेरे मिजाज की वह सहज अभिव्यक्ति थी, जिसके बीज जन्मस्थान से अंकुरित थे। मतलब पढ़ने-लिखने के रूझान और कॉलेज तक भीलवाड़ा में ‘नई दुनिया’ को पढ़ते-पढते बनी अखबारी कुलबुलहाट ने ‘नूतन दुनिया’ निकलवाया था। क्या संयोग तब ‘नूतन’ और अब ‘नया’ शब्द ‘नया इंडिया’ में! सो, 64वें साल में बैठे हुए यदि विचार करें तो लगेगा कि पेशे और जीवन की कसौटी में तो अपन रिमार्केबल हैं! कौन है मिट्टी का दूसरा लाल, जिसने भीलवाड़ा के कुंए से बाहर निकल, प्रदेश राजधानी के सागर को लांघ कर दिल्ली के महासागर में दिल्ली दरबार को चार दशक करीबी से समझते हुए उस पर दबा कर लिखा और वह भी बिना डर, गिड़गिड़ाहट, लल्लोचप्पो के! मोटे तौर पर अपने बचपन का वक्त बिना चाहना के था। बचपन के सहपाठी चेहरों, छीपा बिल्डिंग स्कूल, प्रताप हायर सेकेंडरी स्कूल, एमएलवी कॉलेज के तमाम हमउम्र चेहरों में पता नहीं आज कौन-कहां है पर अपनी जिंदगी संतोष का वह पूर्ण विराम लिए हुए है, जिसमें न और सफर की चाह है और न किसी आईने में देखना है। इंदिरा गांधी, मोरारजी देसाई के वक्त से ले कर नरेंद्र मोदी के वक्त तक अपने को समझ में जो आया वह लिखा और लिखने के लिए अखबार, पत्र-पत्रिकाएं निकालीं तो टीवी प्रोग्राम भी किए। उस सबको इतने व ऐसे पाठकों-दर्शकों ने पढ़ा, सराहा कि उसी की पुण्यता से जीवन के बाकी आयामों को धक्का लगता गया। देश घूमे, दुनिया घूमी और दुनिया के म्यूजियम, थियेटर, सिनेमा, संगीत आदि सभी का आनंद पत्रकारिता-संपादकत्व के प्रोफेशन, पेशेगत सुख के साथलिया। मैंने बचपन स्वंयस्फूर्त अंदाज में जीया। इन दिनों की तरह तब बचपन कोचिंग में पला-ढला नहीं हुआ करता था। मेरे घर में बचपन में ऐसा कुछ भी तय नहीं हुआ कि मुझे अफसर, क्लर्क, अध्यापक, डॉक्टर-इंजीनियर या नेता बनना है। कोचिंग लेनी है। तब यह भी ख्याल नहीं होता था कि अंग्रेजी माध्यम में पढ़ना चाहिए या प्राइवेट स्कूल में अच्छी पढ़ाई होती है। उस वक्त के बचपने में वैसे कोई बोझ नहीं थे जैसे आज हैं। मुझे बचपन में भान नहीं था कि बनना क्या होता है। तभी वह वक्त रियल बचपन वाला था। मैं चंदामामा, पराग पढ़ते-पढ़ते उपन्यास-कहानी का चस्का पाल बैठा। उन्हें पढ़ते-पढ़ते घर की राजनीतिक चेतना में अखबार, जनरल नॉलेज की विविधताओं का कौतुक बना। मोहल्ले के नुक्कड़ की पान-चाय दुकान पर इंदौर से शाम को पहुंचने वाली ‘नई दुनिया’ को पढ़ कर मुझे शब्दों की धार में देश-दुनिया की घटनाओं को जानने की दिलचस्पी हुई। दिमाग को जेपी आंदोलन, कांग्रेस, विपक्ष, लोकतंत्र, चुनाव के ऐसे धक्के लगे कि में दिल्ली, जेएनयू जा कर पढ़ाई करने की सोचने लगा। वहां पहुंच भी गया। वहां की लाईब्रेरी में विदेशी पत्र-पत्रिकाओं से और धक्का पाया। एक दिन बात-बात में लेख लिखने का ख्याल आया और कागज-पेन से लिखा पहला लेख डाक से भेजा तो छह दिसंबर1976 के दिन दैनिक हिंदुस्तान के संपादकीय पेज में छपा तो उछल पड़ा! उसी से फिर वक्त के प्रवाह में वह सिलसिला शुरू, हुआ जिसमें स्वांत सुखाय पत्रकारिता के पैमाने बढ़ते ही गए। यह भी लिखो, वह भी लिखो, यह भी करो, वह भी करो! और पूरा जीवन मजे से शब्दों की, विचारों की खिलंदड़ी में गुजरता गया। मेरा मानना है किसी भी जिंदगी का सबसे बड़ा सुख, पूरे जीवन की सार्थकता तब सचमुच है, जब आप जीवन की अपनी चाहना, अपने करियर में वह सिद्धि पाएं, जिस पर आप खुद स्वांत सुखाय के साथ वाह कह बैठें और फिर उम्रपर्यंत स्वांत सुखाय में खोए रहें! उस नाते मेरा प्रारंभ-प्रारब्ध कुल मिला कर शब्दों में काल को बांधने का है। इसका भरपूर आनंद, सुख लिया है तो क्यों न मैं उस पर गर्व करूं। बिरले लोग होते हैं, जो अपने काम को स्वांत सुखाय के साथ जीते हुए जिंदगी का उत्तरार्ध पाते हैं। इस बिंदु पर मेरी विदूषी धर्मपत्नी राजरानी व्यास असहमत हैं। वे कहेंगी, और हमेशा कहती हैं कि आपने किया ही क्या है कागज काले करने के अलावा! पूरी जिंदगी अपने में मगन रहे। इस संदर्भ में पत्नी की वायरस के आज के वक्त में ज्यादा शिकायत है। मैंने वादा किया था कि भीलवाड़ा चल कर अपन ठहरे वक्त को ठहरे अंदाज में जीयेंगें। घर में बंद रहेंगे। साथ बैठ होम थियेटर पर फिल्में देखेंगे। टेबल-टेनिस खेलेंगे। मैं खाना पकाऊंगा, घर साफ करूंगा। लेकिन फिर उलटा। जिंदगी पर सोचने लगा और पाल लिया जिंदगीनामा लिखने का शगल। सो, पत्नी क्यों न गुस्सा हो? कभी तो उन्हें मिलना चाहिए मेरे सोचने-लिखने पर विराम! वह निश्चित ही सही हैं। लेकिन मैं फिलहाल ‘लांग एंड डिस्टिंगविश जर्नलिस्ट’ की अपनी जिंदगी पर यह सोचते हुए ईर्ष्यारत हूं कि हिंदी में कौन दूसरा माई का लाल है, जिसको बचपन ने वह घुट्टी पिलाई कि में उसके नशे में आजाद भारत के सच्चे महाभारत को देखने वाला ताउम्र लिक्खाड़ हुआ! (जारी)
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