मैं राम के उगते सूरज में पैदा हुआ! मेरे घर में राम की तब पार्टी थी जब मैं छह-सात साल का था। मेरे पिता गोविंद प्रसाद व्यास ने 1962 में ‘राम’ के नाम पर विधायक बनने के लिए चुनाव लड़ा। इस बात को व्यास खानदान की मौजूदा पीढ़ी में शायद ही कोई जानता होगा कि मेरे पिता तब नेता थे। वे भीलवाड़ा लोकसभा क्षेत्र के 1952 के पहले चुनाव में विजेता सांसद हरिराम नाथानी के सियासी कर्ताधर्ता थे। यह मैंने बहुत बाद में चुनाव आयोग का रिकार्ड देख कर जाना कि सेठ नाथानी को उन्होंने रामराज्य परिषद् से चुनाव लड़वाया था। मतलब पंडित नेहरू के खिलाफ खम ठोक राजनीति करने वाले बनारस के सनातनी हिंदू संत स्वामी करपात्री की पार्टी रामराज्य परिषद् तब भीलवाड़ा में जीती थी। मेवाड़ के इतिहास में, आजादी के तुरंत बाद, पहले लोकसभा चुनाव में भीलवाड़ा की दूदूवाला कंपनी के सेठ हरिराम नाथानी को कांग्रेस के खिलाफ स्वामी करपात्री की रामराज्य परिषद् ने टिकट कैसे-क्यों दिया, इसका ब्योरा देने वाला अपने को कोई नहीं मिला। लेकिन फोटो और जिया (मां) से सुनी बातों व चुनाव आयोग के रिकार्ड से जानकारी है कि सेठ नाथानी और मेरे पिता की राजनीतिक खुराफात थी जो भीलवाड़ा का पहला सांसद कांग्रेस का नहीं, बल्कि रामराज्य परिषद का था।
सेठ नाथानी 1952 से 1957 में भीलवाड़ा के सांसद थे और पिता उनके साथ दिल्ली आते-जाते थे। नॉर्थ एवेन्यू के फ्लैट में रहा करते थे। उनका बिड़ला मंदिर का स्मृति फोटो बचा हुआ है। इस मामले में मेरी क्षणिक स्मृति छह-सात साल की उम्र की है। भीलवाड़ा में घर के बाहर एक जीप, उस पर लगे माइक से आवाज और ढोल की याद। जीप बगल के बनेड़ा में प्रचार करके लौटी थी। मेरे पिता के चुनाव का प्रचार करके। हां, सेठ नाथानी की सांसदी के बाद मेरे पिता ने 1962 में रामराज्य परिषद् के टिकट पर बनेड़ा से विधानसभा चुनाव लड़ा था। जिले की बनेड़ा सीट में तब रायला गांव आता था तो शायद पिता ने जात और क्षेत्र दोनों का हिसाब लगा कर चुनाव लड़ा। चुनाव आयोग के रिकार्ड अनुसार वे तीसरे नंबर पर रहे। निर्दलीय ठिकानेदार ने चुनाव जीता। मैंने बहुत बाद में पिता के बीमार होने के बाद, संदूकों में कागज देखे तो गुलाबी पतले कागज के छपे पर्चे, प्रचार सामग्री दिखी, जिसमें रामराज्य पार्टी के उगते सूरज के चुनाव चिन्ह, पिता का फोटो और वोट मांगने की अपील थी।
जाहिर है व्यास कुनबे में मेरे पिता अलग फितरत लिए हुए थे। पीढ़ी में अकेले थे, जो अध्यापक नहीं हुए। उन्होंने राजनीति की। वे शहर-जिले-देश की तब की नामी अभ्रक माइनिंग कंपनी दूदूवाला कंपनी में मैनेजर थे तो उसके मालिक के बड़े बेटे को राजनीति में भी लाए। सेठ के परिवार का उससे पहले और 1952 के चुनाव के बाद कोई राजनीतिक इतिहास नहीं था। तभी अपना मानना है कि जिले में गैर-कांग्रेसवाद की खुराफात का काम पिताजी का था। मुझे समझ नहीं आया कि वे कैसे रामराज्य परिषद् से जुड़े जबकि मेवाड़ में संघ और जनसंघ, सुंदर सिंह भंडारी सब तब थे और सुंदर सिंह भंडारी घर भी आया करते थे।
ब्राह्मणों में वह वक्त पंडित नेहरू की गौरव गाथा लिए हुए था। पंडित दामोदर शास्त्री परिवार भी औसत ब्राह्मण परिवारों की तरह कांग्रेस भक्त था। दादाजी, दोनों ताऊजी- पुरुषोत्तमजी, सोमेश्वरजी घोर कांग्रेस समर्थक थे, इसे मैं उनसे उम्रपर्यंत सुनता रहा। बाद के सालों में मेरी कल्पना में भी हकीकत नहीं उतरी कि मेवाड़ में प्रजा परिषद् की विरासत वाली कांग्रेस ने भीलवाड़ा में पहला लोकसभा चुनाव नहीं जीता और रामराज्य परिषद् पार्टी का जिले में झंडा फहरा! निःसंदेह परिवार में मेरे पिता अकेले कांग्रेस विरोधी थे और रामराज्यवादी। ऐसा होना अनहोना था। तभी बचपन की याद कुछ सियासी खाद-पानी लिए हुए है। तब भीलवाड़ा-मेवाड़ के कांग्रेस-जनसंघ-प्रसोपा (परमानंद त्रिपाठी इस नाम के नेता हुआ करते थे और उनका घर आना-जाना था) तो कम्युनिस्ट सीपीआई नेता नंदलाल वर्मा भी मेरे लिए चिन्हित थे।
भीलवाड़ा उन दिनों भी कारोबारी शहर था। तब यहां से अभ्रक याकि माइका पूरे देश जाता था। निर्यात होता था। नंबर एक कंपनी दूदूवाला थी। मेरे पिता उसमें (या बेटों के बंटवारे के बाद हरिराम नाथानी के हिस्से की कंपनी में?) मैनेजर थे। बाद में वे भोपाल माइका याकि अभ्रक की ईंट निर्माता कंपनी में भी मैनेजर हुए। जाहिर है व्यास परिवार में उनका अलग जलवा था। अपने बूते शहर की नई बस्ती भोपालगंज में प्लॉट लेकर पक्का मकान बनवाया। दो ही कमरे थे लेकिन पीछे चौक, रसोई, खाली जगह में पेड़-पौधे की वह रौनक थी, जो 1955-60 के वक्त में सामान्य बात नहीं थी। लोगों का, रिश्तेदारों का घर आना-जाना लगा रहता था।
मेरा जन्म उन्नीस सौ छप्पन या सत्तावन का है। कंफ्यूजन इसलिए रहा क्योंकि बाद में सुनता रहा कि दसवीं की बोर्ड परीक्षा के वक्त कम उम्र के कारण जन्म तारीख-वर्ष पीछे कराई गई। प्रमाणपत्र में तारीख 13/9/1956 है। तारीख कुछ भी हो हिंदू कैलेंडर अनुसार अपना जन्म विजयदशमी को हुआ। और आश्चर्य जो पंडित दामोदर शास्त्री ने अपने पौत्र का हरिशंकर व्यास नाम खुद रखा लेकिन उन्होंने और मेरे पिता ने घर में जन्मपत्री बना कर रखने, उस अनुसार कुछ करने का रिवाज नहीं बनाया। न मैंने कभी अपनी जन्मपत्री देखी, न बनवाई और न उस अनुसार जिंदगी में कोई काम हुआ। न ही मैंने अपने भाई-बहनों की जन्मपत्री देखी-सुनी! संभव है जन्मपत्री बनी हो लेकिन बाद में पिताजी की अस्वस्थता में वे फट-फटा गई हो।
जो हो, बचपन के ही सिलसिले से अपना पूरा जीवन बिना जन्मपत्री के गुजरा। न ग्रह-राशि मिला कर मैंने विवाह किया और न उनसे संस्कारों की पालना हुई। सोचता हूं रामजी और उगते सूरज की छाया में अपन पले-बड़े हुए तो अपना जीवन जीना अपने आप नैसर्गिक-सनातनी सहजता से बनता गया। इस संदर्भ के किसी कर्मकांड, धर्म-कर्म में बैठने-बैठाए जाने की भी मुझे याद नहीं है। हां, मौसी के विवाह के वक्त नानाजी के घर बड़ीसादड़ी में मेरे यज्ञोपवीत संस्कार की याद जरूर है। पर जनेऊ पहनने की न आदत हुई न किसी ने उसका दबाव बनवाया। बचपन से आज तक (शादी की रस्म के वक्त अनुष्ठान की आवश्यकता में अपने पंडितजी, पंचोलीजी जरूर पहनवाते रहे हैं।) न मैंने कभी पिता को जनेऊ पहने देखा और न उन्होंने इसको पहनने की मुझे जरूरत समझाई और न मां ने।
जबकि वे रामराज्य परिषद् के नेता थे! कंपनी में सभी जातियों के मजदूर ढोल-बाजे के साथ होली के वक्त घर आते थे, खाने-पीने-व्यवहार में कभी कोई छूआछूत नहीं दिखी या कंपनी में उनका जैसा व्यवहार होता (दूदूवाला में जन्माष्टमी की झांकी की क्षणिकाएं याद हैं) था उस सबसे ऊंच-नीच या जाति जैसी बात न बचपन में सुनी और न उनका ख्याल बना।
तभी अपने बचपन का उगता सूरज अपने को वह सनातनी हिंदू बनाने वाला था, जिसमें हिंदू की यात्रा चिरंतन है, निरंतर है तो वह स्वतंत्रता के साथ है। वह टोटकों, कर्म-कांडों, बंधनों में कतई बंधी हुई नहीं। सहज जीवन और उसी के सत्य में बनता-खिलता हुआ। (जारी)
कथा अधूरी है , पूरी पढ़ने के बाद ही प्रतिक्रिया उचित रहेगी ।
लिफाफे की शक्ल से मजमूंन भांपने की आदत के चलते ,सारी श्रृंखला बाद में आत्म कथा के रुप में एक किताब बनेगी ऐसा लग रहा है। बढाये क़दम। शुभकामनाएं।
आप के घोर विरोधी है निंदक नहीं ,यह याद रखियेगा। जहां मौका मिलेगा , खिंचाई भी होगी।