बेबाक विचार

पिता की स्मृति में एक पिता

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पिता की स्मृति में एक पिता
जिंदगी को लिखना कहानी के आधे-अधूरेपन में भटकना है! कहानी का जन्म और उसकी परवरिश माता-पिता से होती है लेकिन जिंदगी के बुढ़ापे, उत्तरार्ध में यदि कोई उनके रोल पर विचार करेगा तो वह बूझ नहीं पाएगा कि उसकी कहानी में उनसे क्या है? माता-पिता को याद करना, उनका अर्थ बूझना, उन पर सोचना, उनके लिए कहानी में सही स्थान खोजना बहुत मुश्किल है। खास कर पिता होते हुए पिता पर सोचना पेचीदा मसला है। मैं पिता हूं तो मैं उनकी प्रतिछाया या वे मेरी प्रतिछाया में तुलनीय? हिसाब से पिता-दर-पिता की कहानी एक सी होनी चाहिए। लेकिन जिंदगी की कहानियों का भगवान मालिक है। आप भी सोचें, यदि आप पिता हैं तो अपने आईने में अपने पिता को देखें तो पिता की तस्वीर कैसी बन कर उभरेगी? निश्चित ही मेरे पिता गोविंद प्रसाद व्यास जीवन की अपनी कहानी में कई किस्सों, उसकी कई प्रवृत्तियों को लिए हुए थे। वे पंडित दामोदर शास्त्री के ब्राह्मण कुल में पांच बेटे-बेटियों की पांच कहानियों में एक अलग कहानी थे। उन्होने जिंदगी के उतार-चढ़ावों के साथ कई छोटी-छोटी कहानियों में जीवन गुजारा। उनकी बाकी भाई-बहन, परिवार, कुनबे में अलग फितरत थी तो जिंदगी भी अलग सी गुजरी। उस अलग सी फितरत में मैंने भी अपने पिता से अलग घुट्टी पाई। उनसे मैंने डांट नहीं खाई। मार नहीं खाई। डरा नहीं। परीक्षा में नंबर कम-ज्यादा होने की चिंता नहीं हुई। आजाद भारत की पहली लोकसभा, उसके सेठ सांसद के साथ रहते हुए भी, दिल्ली-उसकी सत्ता के अनुभव के बावजूद उनसे मैंने कभी सुना नहीं कि मुझे क्या करना है, क्या बनना है! मैं आज जब बतौर पिता अपने पिता पर विचार कर रहा हूं तो समझ आता है कि वे कितने बेफिक्र थे। उनके पिता याकि दादाजी संयुक्त परिवार में पितृसत्ता के प्रतीक थे। बेटे-बेटी को कड़े पंडिताई अनुशासन में रखा होगा। बावजूद इसके 1947 की आजादी के बाद मेवाड़ के ब्राह्मण परिवारों (या सब तरफ?) की आबोहवा में ऐसा कुछ हुआ, जिससे संतानों में मैट्रिक, इंटर, बीए-बीएड करके अध्यापक बनने का भूत सवार हुआ और पितृसत्ता, संयुक्त परिवार ऐसा टूटा कि सबके अलग-अलग खूंटे बने। अपने पिता के स्वतंत्र खूंटे में मुझमें स्वतंत्रता के संस्कार बने। मुझे कई बार ख्याल आता है कि मैं क्यों ऐसा हुआ जो दिल्ली दरबार का दरबारी नहीं हुआ और स्वतंत्र रहा? विचारधारा विशेष का कठमुल्ला नहीं हुआ? जिधर दिल-दिमाग चला उधर सोचने लगा! रूढ़ि में क्यों नहीं बंधा। बेटे और बेटी के बचपन में क्यों नहीं ऐसे टारगेट बनाए कि तुम्हें आईएएस-आईपीएस बनना है या डॉक्टर बनना है? जवाब में जब विचारता हूं तो लगता है मुझे अपने पिता से बिना बोझ-बिना टारगेट वाला जो माहौल मिला तो उसकी प्रवृत्ति में मैंने भी अपने बच्चों को अवसर सब दिए लेकिन उन्हें जो करना था वहीं किया। हालांकि मन में मेरी इच्छाएं थीं लेकिन परिस्थितियां जब समझ आईं तो जिद्द छोड़ दी। बहरहाल, मैं भटक गया हूं। आज बतौर पिता, मैं अपने पिता की कहानी में अपने होने पर जो सोचता हूं तो उसका लब्बोलुआब है कि उन्होंने कुछ नहीं किया फिर भी बहुत कुछ किया। मुझमें कौतुक बनवाया। उन्होंने मेरे लिए रेलवे बुकस्टॉल के शुक्लाजी को हर महीने घर पर पराग, चंदमामा दे जाने के लिए कहा। मुझे उस जमाने में ट्रांजिस्टर, टेप रिकार्डर की मशीन का अनुभव करवा कर कौतुक बनवाया। एक ट्रांजिस्टर ला कर समझाया कि इससे कैसे रेडियो सिलोन, बीबीसी के समाचार सुनते हैं। तंगी के वक्त में भी जब मैंने चाहा कि प्रतापनगर की स्कूल सही है और वहीं से सेकेंडरी, हायर सेकेंडरी करनी चाहिए तो उन्होंने ऐसा होने दिया और दूर की स्कूल जाने के लिए साइकिल दिलवा दी। मतलब बचपन तब भी बच्चों के चाहने, ठुनकने में ढला होता था तो आज भी है। लेकिन फर्क यह है कि तब बचपन में कारोबारी या कि बाजार द्वारा पैदा की हुई भूख घुसी हुई नहीं थी। तब न स्कूल में किसी से कंपीटिशन का भाव होता था कि फलां के पास यह है तो मेरे पास भी हो। तब बाल मन सहज ठुनकता था और अब बाल मन में भूख है, दोस्त-पीयर ग्रुप से कंपीटिशन, उससे देखादेखी है तो माता-पिता की इच्छाओं के बोझ की ट्यूशन, कोचिंग और जिद्द भी होती है। बतौर पिता मैं आज मानता हूं कि मेरे पिता ने अपनी संतान से कोई चाहना, जिद्द या उम्मीद नहीं की (जबकि मैंने बतौर पिता बहुत, कई तरह की जिद्द रखी)। पापा ने कुछ भी थोपा नही और बचपन क्योंकि सुख कर, किस्से-कहानियों के पढ़ने वाला हुआ तो उसकी अमिट याद ने मुझे हमेशा उनसे बांधे रखा। तभी उनकी अस्वस्थता के बाद मैंने उन्हें तीस-चालीस साल लगातार मन से संभाले रखा। मैं सबसे बड़ा था, लायक भी हुआ तो अपन ने उन्हें कभी बचपन जैसी बुढ़ापे की चाहनाओं (मीठा खाना, आम जैसी छोटी-छोटी इच्छाएं) से अतृप्त नहीं रहने दिया। अपना मानना है और सबको ध्यान रखना चाहिए कि बचपन छोटी जिद्द लिए होता है तो बुढ़ापा भी छोटे-छोटे स्वाद व सुख की जिद्द लिए होता है। इन्हें जरूर पूरा कराना चाहिए। हां, इन छोटी बातों में जिंदगी की आधी-अधूरी कहानियों के पात्रों और वक्त का रस है। मुझे बचपन और बच्चों की मासूमियत के सुख और बूढ़े लोगों की छोटी-छोटी चाहना में समझ आता है कि पिता-पुत्र या अभिभावक संतान के रिश्तों का मजा गजब होता है लेकिन यदि वे पटरी से उतरे हुए बने तो फिर त्रासद स्थितियां भयावह होती हैं। मैंने ‘शब्द फिरै चंहुधार’ के कॉलम में हिंदू समाज और परिवार के रिश्तों पर बहुत लिखा है। आजादी बाद के भारत में कानूनों ने हिंदू के घर-परिवार में घुस कर रिश्तों के बीच ऐसी अराजकता, क्रूरता और नीचता बनवाई है कि उसका हिसाब नहीं है। साठ-सत्तर-अस्सी के दशक तक ऐसा नहीं था। औसत हिंदू परिवार सहज रिश्तों में ढला होता था। फादर डे, मदर डे जैसे जुमलों की आज चाहे जितनी चोंचलबाजी होती हो लेकिन आज घर-परिवार में बेटा-बेटी होना भी मतलबी है तो पिता होना भी मतलबी। वक्त ने पिता को दौड़ा रखा है तो बेटे-बेटियों को भी। एक को बनाना है तो दूसरे को बनना है और अंत में दोनों एक-दूसरे के बने हुए नहीं होते हैं, बल्कि एक-दूसरे को स्वार्थ में तौलते हुए होते हैं! मैंने अपने बचपन और अपने पिता पर कभी ऐसे सोचा ही नहीं कि पिता कमाता है, लुटाता है और संतान की गलतियों को भुगतते हुए दुःख दर्द व तकलीफ को छुपाता है। तब पिता और पुत्र के रिश्ते सहज-नैसर्गिक-बिना परिभाषा के थे। आज फादर्स डे को मनाते हुए पिता को परिभाषित किया जाता है। घर के याकि पिता और बेटे के रिश्ते में दोनों के अलग-अलग अर्थ सोचना बुनियादी तौर पर पश्चिमी जीवन शैली (जिसमें कई अच्छी बातें भी हैं) में सबकी अलग-अलग स्वतंत्रता में अलग-अलग रोल के चलते है। रिश्ते के मनोविज्ञान को रोल में बांधना अपने को पसंद नहीं है। पिता है तो घर का खूंटा है, छत है, घर का अनुशासन, संस्कार, सुरक्षा और उंगली पकड़े बचपन को दिशा है तो वह सब स्वंयस्फूर्त है, जीव के जैविक मनोविज्ञान की बदौलत है और वह रिश्ते की निरंतरता लिए हुए है। उसे कर्तव्य, कमाई, अनिवार्यता, लेन-देन के किसी भी भाव, किसी भी चश्मे से देखना या उस तरह विचारना बेहूदा है। न ही यह विचार होना चाहिए कि मां का फलां यह रोल है तो पिता का यह। जो हो, मेरे पिता, बतौर मुझ पिता से ज्यादा अच्छा पितृत्व लिए हुए थे। उन्होंने अपने पिता के प्रति कर्तव्य, उनके मान-सम्मान में कमी नहीं रखी तो मेरे लिए, मेरे भाई-बहन के लिए जितना संभव था उस अनुसार उन्होंने किया और सबके प्रति अच्छा भाव, सदिच्छा बनाए रखी। और यही बतौर पिता जिंदगी की वह उपलब्धि है, जिसकी हर पिता को गांठ, हर संतान को गांठ बांधे रखनी चाहिए। क्या नहीं? (जारी)
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