राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी और एसपी सिंह ऐसे नाम हैं, जिनके लिखे, जिनकी शैली, जिनके संपादन, जिनके प्रयोगों के अनुभव व किस्सों पर हिंदीजन बतौर संपादक विचार करते हैं।…सवाल है इन आठ चेहरों में स्टील वाली हिम्मती रीढ़ की हड्डी लिए कौन था? किसके संपादन से हिम्मत का वैसा जज्बा खिला जैसे अरूण शौरी या लंदन के ‘संडे टाइम्स’ के प्रतिमान संपादक हेरोल्ड इवांस से खिला?
संपादक कैसा, कौन व क्या अर्थ लिए हुए है इसका पैमाना यों लोकतंत्र व जन बुद्धि के स्तर अनुसार अलग-अलग है। उस नाते भारत क्योंकि भीड़ है व भीड़ पूजा-भक्ति से बेसुध जीती है तो भारत और खासकर हिंदी व भारतीय भाषाओं के संपादकों का मामला भी विचित्र है। मैं नहीं मानता कि आजाद भारत के हिंदीभाषियों को सच्चा संपादक एक भी मिला! क्या मतलब सच्चे संपादक से? वह जो देशकाल को बूझने का बौद्धिक-विचार बल लिए हुए हो, जिसकी रीढ़ की ह़ड्डी स्टील की हो। जो देख-सुन-सूंघ कर यह बूझ सके कि सरकार नागरिकों से धोखा-छल-भ्रष्टाचार कर रही है या जिम्मेवारी का ईमानदार निर्वहन? जो अपनी संपादकीय-पत्रकार टीम को प्रेरित-सुरक्षित करते हुए तटस्थता से सबकी खबर लेते हुए सबको खबर दे लेकिन अपने आपको पढ़ने-लिखने, जहाज की कप्तानी में खपाए रखे। सत्ता से सौ टका निरपेक्ष! कुल मिलाकर एक वह शख्सियत जो धुन, ऊर्जा, लगन में बाकी पत्रकारों के लिए प्रेरक हो। टीम की ऊर्जा, बुद्धि, लेखन-रिपोर्टिंग को खिलाने वाला हो। सत्य-झूठ मे भेद करने, विचार-बहस के सौ फूल खिलाते हुए वक्त-देशकाल की चुनौतियों-समस्याओं में अखबार को सूचना-समझ की खान बनवाने वाला हो और लोगों की आवाज का भी वाहक!
इन कसौटियों में 75 वर्षों में हिंदी में कौन संपादक था? मैं राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी पर चर्चा कर चुका हूं। बाकी नामों पर गौर करें तो हिंदी पत्रकारिता के इतिहास की किताब में डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने पत्र-पत्रिकाओं के प्रकाशन के क्रम में हजारों संपादकों का जिक्र किया है। वे सभी अपने-अपने वक्त के पुरुषार्थी और धुनी लोग थे। उनसे कुछ अखबारी संस्थाएं जैसे ‘आज’, ‘दैनिक जागरण’, ‘दैनिक भास्कर’, ‘प्रभात खबर’, ‘अमर उजाला’, ‘राजस्थान पत्रिका’, ‘नवभारत’ या अंग्रेजी-हिंदी के साझे मीडिया संस्थान मसलन ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ जैसे ग्रुप बने। वह उद्यम और व्यवसायी संस्था निर्माण का शुरुआती वक्त था। लेकिन इनका कुल लबोलुआब लक्ष्मी पुत्रों के धनधान्य पैदा करने वाले संस्थान न कि सरस्वती साधक संपादकों का पोषक केंद्र।
मैं भटक रहा हूं। असली सवाल कि पुरुषार्थ की सहस्त्र मीडिया धाराओं में रामनाथ गोयनका जैसे हिंदी में कितने और उनके संपादक जैसे श्रीश मुलगांवकर, अरूण शौरी के नामों से चिन्हित संपादक हिंदी में क्या हुए? मैं आगे भारतीय व अंग्रेजी पत्रकारिता पर समग्रता से विचार करूंगा। फिलहाल हिंदी पत्रकारिता और उसके संपादकों का मसला है।
राहुल बारपुते, राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी और एसपी सिंह ऐसे नाम हैं, जिनके लिखे, जिनकी शैली, जिनके संपादन, जिनके प्रयोगों के अनुभव व किस्सों पर हिंदीजन बतौर संपादक विचार करते हैं। इनमें अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, मनोहर श्याम जोशी मूलतः साहित्य लेखन के चेहरे हैं। बावजूद इसके पत्रकारिता के संदर्भ में बतौर संपादक इन पर विचार इनकी प्रयोगधर्मिता के चलते हैं। यदि 75 वर्षों की हिंदी पत्रकारिता की संपादक लिस्ट में इन्हें भी शामिल नहीं करेंगे तो हिंदी के प्रभु-एलिट वर्ग ने दिल्ली प्रेस के विश्वनाथ, ‘वीर अर्जुन’ के महाशय कृष्ण जैसे आर्यसमाजी मगर स्टील की रीढ़ वाले संपादकों को तो पहले से ही आउट किया हुआ है। क्या आपने जाना, सुना कि नेहरू-कांग्रेस के महिमामंडन काल में खम ठोक कर विरोध करने वाले विश्वनाथ, महाशय कृष्ण या के नरेंद्र जैसे नाम के भी संपादक हुए हैं? पर इनका नाम मैंने भी हिंदी पत्रकारिता के पठन-पाठन में नहीं सुना!
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बहरहाल, इन आठ चेहरों में स्टील वाली हिम्मती रीढ़ की हड्डी लिए कौन संपादक था? एक नहीं। दूसरे किसके संपादन से हिम्मत का वह जज्बा खिला जैसे अरूण शौरी या लंदन के ‘संडे टाइम्स’ के प्रतिमान संपादक हेरोल्ड इवांस से खिला? किसी से नहीं! (इवांस का जिक्र इसलिए क्योंकि सन् 1976 में जेएनयू के पुस्तकालय में ब्रितानी अखबार व पत्रिकाएं बहुत आती थीं। विदेशी मामलों की समझ के लिए दिल्ली की ब्रिटिश, अमेरिकी लाइब्रेरी जा कर पत्र-पत्रिकाएं को पढ़ते हुए जाना था कि लंदन में इवांस की कमान में ‘संडे टाइम्स’ से नया धमाल है। खोजी पत्रकारिता हो रही है)। तीसरा सवाल हिंदी पाठकों, पत्रकारिता को इन संपादकों से क्या मिला? इनका विचार-विश्लेषण-लेखन समसामयिक इतिहास में सही साबित हुआ या गलत? ये सत्ता से निरपेक्ष सत्यावलोकन में कप्तानी से जहाज को सही दिशा में ले जाते हुए थे या सत्ता, दरबार और नेताओं के चुंबक की और खींचे?
मैंने राहुल बारपुते और अज्ञेयजी के अखबारी लेखन को नहीं पढ़ा है। राहुल बारपुते के बारे में राजेंद्र माथुर के ही लिखे संस्मरणों के हवाले कह सकता हूं कि मालिक मिजाज में स्टाफ-पारिश्रमिक-खर्चों के फैसले लेते हुए भी वे पत्रकारों को खिलने देने के प्रकाशपुंज थे। तभी हिंदी पत्रकारिता के इतिहास के स्मरणीय संपादक। उनके कारण सत्तर-अस्सी के दशक में ‘नई दुनिया’ हिंदी का वह अखबार बना, जिससे पूरे देश की पत्रकारिता में हिंदी पत्रकारिता का मान बना, पॉजिटिव राय बनी। उनसे पत्रकार और संपादकों की पीढ़ी बनी व हिंदी पाठकों को सोचने-विचारने की खुराक प्राप्त हुई।
अज्ञेयजी ‘दिनमान’ के पहले संपादक और इमरजेंसी के बाद ‘नवभारत टाइम्स’ के संपादक थे। उन्होंने ‘दिनमान’ की टीम अच्छी बनाई। ‘नवभारत टाइम्स’ में सही चेहरों को लेने की शुरुआत की। बावजूद इसके दोनों जगह उनका साहित्यिक व्यक्तित्व-कृतित्व हावी था तो उनके वरिष्ठ सहयोगी डॉ. वैदिक से मैंने सुना है कि वे सुबह अखबार पढ़ कर नहीं आते थे तो संपादकीय क्या लिखें उस पर सही विचार नहीं हो पाता।
सो, ‘तार सप्तक’ के संपादक के नाते उनका खास अर्थ है मगर पत्रकारिता के मायने में नहीं। दरअसल आजादी के बाद हिंदी पत्रकारिता को दो तरह की मुश्किलों से गुजरना पड़ा। एक, गुरूकुल कांगड़ी से निकले आर्यसमाजी लेखकों-विद्यालंकार संपादकों से, जिनकी संस्कृतनिष्ठ हिंदी की जिद्द से लोगों में अखबार पढ़ने का चाव नहीं बना और रामनाथ गोयनका को भी इसकी वजह से साठ के दशक में ‘जनसत्ता’ निकाल कर बंद करना पड़ा था।
दूसरा जिम्मेवार कारण रोजी-रोटी के टोटे में हिंदी साहित्यकारों का पत्रकार बन कर पत्र-पत्रिकाओं को रियल पत्रकारिता से महरूम बनाना था। इलाहाबाद-बनारस-पटना के हिंदी मक्का-मदीना में ‘आज’, ‘आर्यावर्त’, ‘प्रदीप’ जैसे अखबारों को मैं अस्सी के दशक में पलटता था तब भी खबर पेज और संपादकीय पेज सब सपाट-निराकार हेडिंग, कहानी-कविता, फूहड़ बनारसी व्यंग्य में भरे होते थे। तब अखबारी दफ्तर पत्रकारी तकाजों की नासमझी से संपादकों के अहम में, क्षुद्रताओं में रमे साहित्यिक चखचख के अड्डे होते थे। संपादक हिंदी का साहित्यिक पोप होता था और उसकी कृपा पर जिंदा स्टाफ।
क्यों मालिक तब साहित्यकार को संपादक बनाता था? इसलिए कि बतौर विधा हिंदी में पत्रकार बनने की पढ़ाई, ढलाई का शिक्षण था ही नहीं? दूसरे, जो साहित्य लिखता है वह लिखने की कला, हुनर, शैली में हल्का सा भी अनहोनापन, वैशिष्टय लिए होता था तो मालिक द्वारा उसे उपयुक्त समझना स्वभाविक था। बतौर मिसाल टाइम्स ग्रुप के मालिक अशोक जैन, इंदु जैन के लिए फैसलों को याद करें। हिंदी बढ़ रही है, हिंदी ही भविष्य है यह सोचकर टाइम्स और ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ ग्रुप के मालिक सेठ अशोक जैन, केके बिड़ला ने अखबार के अलावा पत्रिकाएं निकालने का फैसला किया तो ‘धर्मयुग’, ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’, ‘दिनमान’ आदि निकाले गए। मेरा मानना है तब सेठ-मैनेजमेंट इस ख्याल में थे कि जैसे समाचारों की मैगजीन ‘टाइम’, ‘न्यूजवीक’, ‘इलेस्ट्रेटेड वीकली’ पत्रिकाएं निकलती हैं वैसे हिंदी में भी निकले और ब्रांड बने।
सो, स्थापित मीडिया समूहों ने वक्त, हिंदी की जरूरत में पत्रिकाएं सोचीं, निकालीं। टाइम्स, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ समूह के मालिकों, कोलकत्ता के आनंद बाजार ग्रुप के मालिक अविक सरकार से लेकर पत्रिका की इतवारी पत्रिका, वैश्विक ब्रांड ‘रीडर्स डाइजेस्ट’, एक्सप्रेस समूह, ‘इंडिया टुडे’ ग्रुप सबने हिंदी पत्रिकाएं निकालीं लेकिन हिंदी संपादकों ने ऐसा गुड़गोबर किया कि हर मालिक यह रोता मिला कि हिंदी में पढ़ने वाले नहीं, पैसे खर्च करने वाले नहीं। हिंदी के संपादकों ने वह दरिद्रता दिखाई कि सारा ठीकरा पाठकों, हिंदीभाषियों पर इस जुमले से फूटा कि इनमें न पढ़ने की बुद्धि है और न खरीदने का पैसा!
क्या मैं गलत लिख रहा हूं?
वजह? बड़ा मुश्किल है जवाब खोजना। पहली बात शायद गुलामी काल के लंबे अवचेतन में अहमन्यता की ललक, भूख और बुद्धि-विचार की जगह भक्ति व हीनता की छोटी-छोटी बातों का भारत में हर जगह अपने आप परिवेश बनना। शायद इसी के चलते आजादी के बाद हिंदीजनों, साहित्यकारों के आग्रह अजीब हुए। जैसे यह जिद्द कि हिंदी अखबार संस्कृतनिष्ठ हिंदी में हों, फिर भले पाठक उसकी पढ़ाई में शिक्षित हुआ ही नहीं। जन संवाद के माध्यम अखबार भी लोकभाषा की बजाय संस्कृतनिष्ठ देवनागरी थोपते हुए। तभी दिल्ली में नेहरू, उनके मंत्री, अफसर, एलिट सभी हिंदी अखबारों से अनजान से थे। सोचने वाली दूसरी बात है कि आम पाठक भले विद्यालंकार, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय के साहित्य को न पढ़-समझ पाए लेकिन फिर भी वे ही समाचार पत्र के संपादक बने क्योंकि हिंदी के प्रोफेशनल संपादक, पत्रकार थे कहां? साहित्यकार के नाते ही जब नाम है तो उन्हीं में से संपादक छांटना!
आधुनिक हिंदी की नंबर एक समस्या रही कि उसके रचनाकर्मी, साहित्यकार अपने-अपने वाद, अपनी-अपनी दृष्टि, अपने-अपने मठ व अनुयायी लिए हुए थे। तभी संपादक नियुक्त साहित्यकार अपने नजरिए, अपने अनुयायियों और भक्तों में अपनी पोपगिरी को बनाने के लिए पत्र-पत्रिकाओं को मठ बना देता था बिना यह सोचे कि इससे हिंदी का अहित होगा।
इसलिए 1947 से 1977 के तीस सालों में हिंदी पत्रकारिता में साहित्यकारों को संपादक बनाने के अधिकांश प्रयोग पत्रकारिता के मठ, संपादक विशेष के मिजाज की धारा बनवाने वाले थे। उनसे सत्तर-अस्सी आते-आते वे अखबार, वे संपादक, वे पत्रकार पैदा हुए, जिनकी मोटे तौर पर चार धाराएं समझ आती है। एकेश्वर मठ पत्रकारिता, दूसरी चंदन पत्रकारिता, तीसरे दरबारी पत्रकारिता और चौथे एक्टिविस्टों की क्रांतिकारी पत्रकारिता! (आगे कल)