Journalist nayaindia : लब्बोलुआब है संपादक को खोजना है, लोकतंत्र-अभिव्यक्ति की आजादी को खोजना है तो मालिक को खोजना होगा। मैने ‘जनसत्ता’ छोड़ने के बाद अपने बूते पत्रकारिता के कई प्रयोग किए। मैं मालिक बना तो मेरे मन में जो आया वह मैंने किया। लेकिन मैं क्योंकि सरस्वती पुत्र ब्राह्मण तो भला बतौर मालिक कैसे पूंजीवान हो सकता था! वह तो बनिया ही हो सकता है। और बनियों में रामनाथ गोयनका पूरे भारत में अकेले अपवाद थे, जिन्होंने लगातार सब कुछ दांव पर लगाए रख कर महासंपादकी की।
पैंतालीस साल की अब तक की पत्रकारिता में 12-13 साल ‘जनसत्ता’ की नौकरी छोड़ बाकी वक्त में अकेले अपने बूते हिंदी पत्रकारिता में खपा हूं। मैंने कई प्रयोग किए। मैंने ‘दूरदर्शन’ पर (कोई 125 एपिसोड) ‘कारोबारनामा’ प्रोग्राम 1996 के उस वक्त बनाया जब प्रभाषजी ‘जनसत्ता’ में दो पेज उद्यम-बाजार को देने को तैयार नहीं थे। मैंने 1996-97 में तब ‘कंप्यूटर संचार सूचना’ पत्रिका निकाली जब हिंदी संपादकगण कंप्यूटर पर टाइपिंग के लिए तैयार नहीं थे और कंप्यूटर को लेकर राजीव गांधी का मजाक उड़ता था। मैंने तब भारतीय भाषाओं का ‘नेटजाल’ पोर्टल लांच किया जब यूनिकोड में हिंदी व भारतीय भाषाओं के फोंट नहीं थे। मैंने प्राइवेट टीवी चैनल के लिए ‘सेंट्रल हॉल’ (2009 से 2017) प्रोग्राम तब बनाना शुरू किया जब हिंदी के तमाम चैनल सांप-संपेरों के सनसनीखेज वीडियो, भूत-भूतनी की मनोहर कहानियां हिंदी दर्शकों को परोसते हुए दुनिया को जतलाते थे कि हिंदी वालों का कैसा मानसिक स्तर। और सन् 2010 से ‘नया इंडिया’ है। शायद देश-मीडिया के अंधकार काल में टिमटिमाता जैसे-तैसे जलता एक दीया…. एक प्रयोग।
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मैं ‘जनसत्ता’ छोड़ते वक्त ‘जनसत्ता समाचार सेवा’ का संपादक था। बतौर संपादक मैंने अपने ब्यूरो, संवाददाताओं, रिपोर्टरों, स्ट्रिंगरों की जैसे कप्तानी की तो ‘इंडियन एक्सप्रेस’ के संपादकों मसलन ‘एक्सप्रेस समाचार सेवा’ के संपादक एचके दुआ, स्थानीय संपादक धर साहब, सुमेर कौल से अपनी तुलना करते हुए विचारता था कि ‘जनसत्ता’ की टीम ज्यादा जीवंतता, आजादी लिए हुए काम कर रही है या एक्सप्रेस टीम? तब मुझे संतोष था कि सैलेरी में ‘जनसत्ता’ (प्रभाषजी के कारण) के हम लोग भले ‘एक्सप्रेस न्यूज सर्विस’ से बहुत नीचे थे लेकिन पूरे उत्तर भारत में स्ट्रिंगर टीम की डाक संस्करणों में छपती खबरों के कारण ‘जनसत्ता’ की माइक्रो धमक अधिक थी। ‘जनसत्ता’ की खबरों को, मेरी खबरों (गपशप कॉलम सहित) को एक्सप्रेस ब्यूरो के वरिष्ठ लोग पी रमन, सिद्दकी, देवसागर, अश्विनी, नीरजा चौधरी आदि पढ़ा करते थे।…यह संतोष मामूली नहीं था। क्योंकि ‘इंडियन एक्सप्रेस’, ‘टाइम्स ऑफ इंडिया’, ‘हिंदुस्तान टाइम्स’ याकि दिल्ली के राष्ट्रीय अंग्रेजीदां अखबारों में हिंदी का अखबार विचार और खबर में पठनीय बने, यह आजाद भारत के इतिहास में ‘जनसत्ता’ से शुरू अनहोनी बात थी।
Journalist nayaindia : ऐसा किसकी वजह से था? मेरा जवाब है अखबार मालिक रामनाथ गोयनका के कारण। कोई माने या न माने मेरा मानना है कि आजाद भारत के इतिहास में अब तक के सबसे बड़े महासंपादक रामनाथ गोयनका हुए। वे मालिक नहीं, बल्कि लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आजादी, नस्ल व कौम की जुबानी आजादी को प्राणवायु देने वाली फैक्टरी थे। (इस पर संभव हुआ तो बाद में विस्तार से लिखूंगा।) हिंदी पत्रकारिता में गोयनका याकि एक्सप्रेस का तब का परिवेश दुर्लभ चीज थी। मैं सन् 1976-77 से अब तक याकि सन् 2021 के 44-45 सालों में विचारते, लिखते, नया कुछ करते हुए बार-बार हिंदी और हिंदी पत्रकारिता की दशा-दिशा को बूझते हुए अखबार मालिक-सेठ की तलाश में रहा हूं। मेरा सौभाग्य जो हिंदी और उसके लिए अलग-अलग प्रयोग की धुन में बहुत घिसा। यह भी ईश्वर की कृपा जो पांच दशक से चली आ रही ऊर्जा अक्षत है। दूसरे दिमाग का वह रसायन भी जिंदा है, जिसने दिमाग में कुलबुलाते हुए विचार बनवाए रखा कि हम हिंदी के लोगों का अक्षर ज्ञान और उसमें प्रभावी हो सकने वाले मीडिया माध्यम का वह वैभव क्यों नहीं बना जो बाकी सभ्यताओं की मातृभाषाओं में है? जनसत्ता बना तो उसकी संध्या इतनी जल्दी क्यों? राजेंद्र माथुर से विचार और शैली की गंगा फूटी तो उनकी मृत्यु के साथ वह विलुप्त कैसे? क्यों नहीं इन चेहरों के बीज छितरे और फूटे?
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जाहिर है बुनियादी कारण हिंदुओं में सरस्वती-लक्ष्मी के मध्य साझा न होना है। हिंदुओं में गुलामी और बुद्धिहीनता के अवचेतन का गहरे पैठा हुआ होना है। मतलब समस्या राष्ट्र-राज्य की है। फिर हिंदीभाषियों की गंगा-जमुना की गोबर पट्टी की मुख्यधारा का मिजाज भी एक हद तक जिम्मेवार है। पिछले 75 वर्षों में गंगा-जमुना की पट्टी से समाज की जितनी क्षुद्रताएं, जात-पांत और मानवीय व्यवहार में छोटे-टुच्चेपन, ईर्ष्या, अंधविश्वास, धर्मभ्रष्टता, केकड़ेवाद का जैसा प्रसार देश में हुआ है वह एक अलग जटिल-गंभीर मसला है जिस पर दुर्भाग्य से किसी का ध्यान नहीं गया है।
Journalist nayaindia : तभी मेरा मानना है कि आजाद भारत की हिंदी पत्रकारिता व समसामयिक लेखन, देश विचार में यदि रिसर्च, खोजबीन हो तो मध्य प्रदेश, राजस्थान और पश्चिमी पंजाब से आए आर्यसमाजियों की कलम पर फोकस जा टिकेगा। और यह क्यों? वजह अखबार मालिक। सौ करोड़ लोगों की आबादी में राजस्थान के मंडावा के दसवीं पास रामनाथ गोयनका ने जिस धुन से ‘इंडियन एक्सप्रेस’ बनाया वैसी ही धुन में पाकिस्तान से आए लाला जगत नारायण ने जालंधर में ‘पंजाब केसरी’, महाशय कृष्ण ने दिल्ली में ‘वीर अर्जुन’, परेशनाथ ने दिल्ली प्रेस, सेठ लाभचंद ने इंदौर में ‘नई दुनिया’ और राजस्थान में कर्पूरचंद कुलिश ने ‘राजस्थान पत्रिका’ का प्रयोग शुरू किया तो इन सबके व्यक्तित्व-कृतित्व में ही आजाद भारत की आजादी की मशाल समाहित है। ये चंद शख्स अपनी। धुन, अपने विचार में, उसकी आजादी में जीये और उसके लिए हर कीमत अदा करने का साहस दिखाया। जिंदादिली दिखाई। सौ करोड़ की भीड़ के चंद मर्द पुरूष बने। इमरजेंसी के वक्त में भी।
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हां, 75 वर्ष पर आजादी के अमृत महोत्सव या 25 साल बाद के सौवें महोत्सव के समय के इस सत्य को नोट करके रखें कि भारत में स्वतंत्रचेता, मनुष्यगत अभिव्यक्ति की आजादी के प्रतिमान मर्द चेहरे चंद, उंगलियों पर गिनने जितने ही हैं।
तो मालिक हुए महासंपादक। आजाद भारत की राष्ट्र रचना क्योंकि कृतघ्नता, अहसानफरामोशी और हाकिमी प्रवृत्ति के दुर्गणों में रची-बसी है इसलिए रामनाथ गोयनका का मूल्यांकन अभिव्यक्ति की आजादी, पत्रकारिता के बतौर भारत रत्न नहीं होना हैरानी वाली बात नहीं है। आप भले असहमत हों लेकिन विश्वनाथ नाम की एक शख्सियत ने अपने बूते दिल्ली प्रेस संस्थान बना कर ‘सरिता’, ‘मुक्ता’, ‘भूभारती’, ‘कारवां’ जैसी पत्रिकाएं निकाल कर हिंदुओं को छुआछूत, अंधविश्वासों से मुक्त कराने व अभिव्यक्ति की आजादी के मिशन में पचास साल जैसे जो काम किया जैसा संपादन-प्रकाशन किया वह हिंदीभाषियों मे आधुनिकता-वैज्ञानिकता की पैठ बनवाने के लिए भारत के खातिर था। उन्होंने हिंदू घर-परिवारों, महिलाओं में ‘सरिता’ को पसंद की नंबर एक पत्रिका बना कर धर्म की कुरीतियों से ले कर तुलसीदास की ‘रामचरितमानस’ की बेबाक विवेचना, धर्मगुरूओं के पांखड से लोगों को बाहर निकालने वाली पत्रकारिता की। लेकिन विश्वनाथ, उनके मीडिया संस्थान का नाम हिंदी पत्रकारिता का इतिहास लिखने वाले डॉ. वेदप्रताप वैदिक को भी याद नहीं रहा। ऐसे ही महाशय कृष्ण, लाला जगतनारायण ने अपने बूते अखबार बना अपने आर्यसमाजी-हिंदू विचारों को तब जनता के बीच अभिव्यक्ति किया, नेहरू का तब विरोध करने का साहस दिखाया जब नेहरू का जादू देश पर चढ़ा हुआ था। कर्पूरचंद कुलिश ने ‘राजस्थान पत्रिका’ के छोटे फर्रे के रूप में शुरुआत की लेकिन इमरजेंसी के वक्त कुछ न होते हुए भी विरोध का साहस किया। ऐसे ही इंदौर के लाभचंद छजलानी थे। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी की घोषणा की तो उन्होंने संपादक राहुल बारपुते-राजेंद्र माथुर को अखबार में ब्लैंक संपादकीय छापने की हरी झंडी दी।
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Journalist nayaindia : सो, भारत में देश व उसके नागरिकों की आजादी, और आजादी के सच्चे अर्थ की सच्ची पहचान अभिव्यक्ति की आजादी, मीडिया की आजादी में संपादक-पत्रकार का अर्थ मालिक-संपादक है। मालिक में कलेजा नहीं तो संपादक मेमना रहेगा। मेरा मानना रहा है कि भारत में लोकतंत्र सच्चा नहीं बना, लोगों ने सच्ची आजादी नहीं पाई तो वजह लोकतंत्र के चार खंभों में विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिक के खंभे जहां जनता के पैसे, सरकारी खर्चे से संस्थागत रूप में पोषित हुए वहीं खबरपालिका, मीडिया के खंभे को बनाने, संस्थागत (जैसे पश्चिमी देशों में हुआ, ‘बीबीसी’ आखिर जनता के पैसे से ही तो) रूप में पक्का-स्थायी बनाने का भारत के संविधान ने विचार ही नहीं किया। तभी लोकतंत्र का दारोमदार रामनाथ गोयनका व उनके संपादकों पर।
विषयांतर हो गया है। लब्बोलुआब है संपादक को खोजना है, लोकतंत्र-अभिव्यक्ति की आजादी को खोजना है तो मालिक को खोजना होगा। मैने ‘जनसत्ता’ छोड़ने के बाद अपने बूते पत्रकारिता के कई प्रयोग किए। मैं मालिक बना तो मेरे मन में जो आया वह मैंने किया। लेकिन मैं क्योंकि सरस्वती पुत्र ब्राह्मण तो भला बतौर मालिक कैसे पूंजीवान हो सकता था! वह तो बनिया ही हो सकता है। और बनियों में रामनाथ गोयनका पूरे भारत में अकेले अपवाद थे जिन्होंने लगातार सब कुछ दांव पर लगाए रख कर महासंपादकी की। इसलिए मैं अपने प्रत्यक्ष अनुभव में आजाद भारत का अकेला महासंपादक रामनाथ गोयनका को मानता हूं। हिंदी और भारतीय भाषाओं का भी। (जारी)
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