शुरुआत के चार-पांच सालों में चेहरों से मैंने बहुत कुछ जाना। जिन्हें दुर्दिन से निकाल समाचार संपादक जैसी ऊंची जगह बैठाया, उन्हें रंग बदलते देखा। जिन्हें कामकाजी-अराजनीतिक होने के भरोसे में बैठाया वे अपना दरबार लगाए मिले। जिनका घरोपा एक मानता था, उन्हें बिखरते, टूटते और ईर्ष्या व खुन्नस में देखा।… इसलिए जब मैंने 1995 में ‘जनसत्ता’ छोड़ा तो पल भर भी नहीं लगा कि मैं कुछ मिस कर रहा हूं। 99 फीसदी चेहरे विस्मृत। 25 साल बाद उन चेहरों में से चेहरे तलाशते हुए अब इस विचार में जा अटक रहा हूं …. Jindiginama jansatta Newspaper
छब्बीस साल की उम्र में ‘जनसत्ता’ की नौकरी और उसे चालीस वर्ष की उम्र से पहले ही छोड़ देना! तभी तब के चेहरों पर 25 साल बाद विचार करते हुए सवाल है उन 12-13 साल के चेहरों का भला मेरे लिए क्या अर्थ? क्या मैं उनसे बना? मेरा निज रिश्तों का विश्वास बना या टूटा? सवाल यह भी है कि इस तरह क्यों सोचना चाहिए? ले देकर एक सेठ रामनाथ गोयनका की नौकरी थी तो कुल मिलाकर चेहरे भी नौकरी के संगी। जिंदगी में आए-गए असंख्य चेहरों का वह छोटा सा एक वक्त।
पर मैंने ऐसे ‘जनसत्ता’ ज्वाइन करते हुए नहीं सोचा। तब एक्सप्रेस, पत्रकारी संस्थान, हिंदी पत्रकारिता और देश-राजनीति को लेकर उमंग थी। कुछ अच्छा करने, बनाने का जवान जोश था। अपनेपन, सामाजिकता-सामूहिकता के कुछ मासूम ख्याल थे। अब 25 साल बाद भारत मिजाज को बूझने व चेहरों के सत्व-तत्व का सत्य हावी है और मेरा मानना हो गया है कि हिंदुओं का जीना छोटी-छोटी क्षुद्रताओं वाले बौनों की मनोदशा वाला है जिसमें हिंदीभाषियों का मनोविश्व तो बहुत सिकुड़ा और टुच्चा। फिर साहित्य और पत्रकारिता! हे राम!
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आश्चर्य जो एक वक्त राजेंद्र माथुर ने यह सत्य बूझा और अपने संपादक राहुल बारपुते को याद करते हुए लिखा, “सारे संस्कार ही हिंदी में हीनता, विपन्नता और ईर्ष्या के हैं। हिंदी का साहित्यकार जब संपादक बनता है, तो वह चाहता है कि हिंदी साहित्य उस जगह आकर तमाम शुद्ध हो जाए, जहां वह खुद हुआ है। लेखकों को ज्यादा पारिश्रमिक (वेतन) देते समय शायद वह सोचता है कि ये लेखक यदि खुशहाल और खुद्दार हो गए तो, मुझे नहीं पूछेंगे। एवरेस्ट चढ़ने जैसा कोई महान लक्ष्य क्योंकि होता नहीं, इसलिए जो पांच सौ फुट ऊंची टेकरी पर चढ़ जाता है, वह सवा पांच सौ फुट चढ़ने वाले से जलता है, जैसे पचास पैसे पाने वाला भिखारी रुपया पाने वाले से जले। पत्रकारिता में तो लोग एक दिन काम करते ही दूसरे दिन यश के रनिंग अकाउंट का बंटवारा चाहते हैं, और चवन्नी कम मिले तो झगड़ पड़ते हैं। ‘नई दुनिया’ अगर एक नामी अखबार बन (नोट रखें गोयनका की तरह बारपुते-राजेंद्र माथुर को तब संस्था मालिक के नाते लाभचंदजी मिले हुए थे) सका, तो इसका एक बहुत बड़ा कारण यह था कि राहुलजी ने अपने श्रम का पृथक खाता कभी खोला ही नहीं, और दूसरों के खातों की ओर उन्होंने कभी ईर्ष्या से देखा नहीं। उनकी सात्विकता ने हम सबको हिसाबी और ईर्ष्यालु बनने से रोका, और इस कारण संस्थागत यश की वह जमापूंजी इकट्ठा हो सकी, जो हिंदी में मुश्किल से होती है”।
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‘जनसत्ता’ की प्रारंभिक टीम याकि प्रभाष जोशी, बनवारी, सतीश झा और मेरे चौखट में संतुलन सहज था। तब रामनाथ गोयनका से प्रभाषजी को स्वतंत्रता थी और प्रभाषजी से हमें, मुझे स्वतंत्रता। मैं बेधड़क लिखता था तो मैं वैसे ही रिपोर्टरों, प्रदेश संवाददाताओं को भी बिना टोका-टाकी आजादी देते हुए था। मुझे याद नहीं कि मैंने किसी नेता, मंत्री, अफसर की शिकायत पर संवाददाता या रिपोर्टर को हड़काया हो। अधिक से अधिक शिकायतकर्ता या उसके लिखित खंडन को रिपोर्टर के पास भेजकर दोनों का जवाब-प्रति जवाब छपवाता था। ऐसे छोटे झंझट मुझे ही झेलने होते थे। जैसे आलोक ज्यादा छप रहा है तो दूसरे रिपोर्टर दुखी या मन ही मन कुनबुनाते हुए। विनीत-पुनीत अधिक एक्टिव तो आलोक व्यथित और फलां ऐसा फलां वैसा और भाई साहब आपको पता नहीं वह वैसा! उधर ‘इंडिया टुडे’ में प्रभु चावला ‘जनसत्ता’ के फलां-फलां को ले जा रहे हैं तो दीनानाथ मिश्र वहीं रामबहादुर राय से बात कर रहे हैं, वे उधर जा सकते हैं, जैसी चिंताएं और कौन चीफ रिपोर्टर, कौन ब्यूरो जैसे झंझट व राग-द्वेष, ईर्ष्या के बीच संतुलन बैठाने में मुझे बाकायदा खपना होता था। मेरे हिस्से में ही नई भर्ती, किसी को हटाने या तबादले के झंझट भी।
सोच सकते हैं मेरे को लेकर बाकी चेहरे कितना सोचते हुए रहे होंगे। मैं ना काहू से बैर और ना प्रेम में तटस्थ भाव चलते हुए था। एक हद तक अपने को अकेला बनाते हुए। हिंदी परिवेश की एक-दूसरे से जलन, वेतन में चवन्नी छाप भत्ते या बाईलाइन या पहले या अंदर के पेज में खबर छपने जैसी टुच्ची-टुच्ची बातों को सुनते-समझते हुए भी लापरवाह। कई बार कोफ्त होती थी कि जब रिपोर्टिंग की टीम में अजातशत्रु माफिक रामबहादुर राय को बैठाया हुआ है तब भी भाई लोगों में ऐसी टांग खिंचाई!
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मैं लिखता क्योंकि बहुत था, सप्ताह में पांच दिन संपादकीय, सप्ताह में एक दिन संपादकीय पेज लेख, रविवार को ‘गपशप’ कॉलम और सप्ताह के चार-पांच दिन दोपहर बाद केंद्रीय सरकार व राजनीति की रिपोर्टिंग या खोज-खबर के लिए फील्ड में तो इनके अलावा संपादकीय-रिपोर्टिंग बैठकें भी। इसलिए मोटे तौर पर एकांगी, और अपना काम करते हुए होना ही था।
शुरुआत के चार-पांच सालों में चेहरों से मैंने बहुत कुछ जाना। जिन्हें दुर्दिन से निकाल समाचार संपादक जैसी ऊंची जगह बैठाया, उन्हें रंग बदलते देखा। जिन्हें कामकाजी-अराजनीतिक होने के भरोसे में बैठाया वे अपना दरबार लगाए मिले। जिनका घरोपा एक मानता था, उन्हें बिखरते, टूटते और ईर्ष्या व खुन्नस में देखा।
सर्वाधिक दुखद अनुभव इंदौर के दो चेहरों की परस्पर ईर्ष्या वाला!… ‘ईर्ष्या’ शब्द ठीक या प्रतिस्पर्धा, दुराव, भड़काने वाले नारद मुनियों, इंदौरियों द्वारा सुलगाई खुन्नस या पत्नियों के राग-द्वेष से बनी खिन्नता या नई दुनिया के पुराने वक्त की गांठों का फफोले बन कर फूट पड़ना!….चाहे जो मानें। पर मेरा वह अकल्पनीय अनुभव था जो प्रभाष जोशी और राजेंद्र माथुर दोनों एक-दूसरे से खींच गए।
मैं राजेंद्र माथुर की लेखनी का बालकाल से मुरीद था और प्रभाषजी का बतौर उनकी कप्तानी से। नौकरी करते हुए प्रभाषजी का लगातार साथ वहीं रज्जू बाबू एक बिल्डिंग छोड़ कर टाइम्स बिल्डिंग में। 1983-86 के तीन सालों में मेरे लिए एक बिल्डिंग का फासला नहीं के बराबर था। लेकिन धीरे-धीरे 1987 के बाद इतना बड़ा फासला हो गया कि महीनों उनसे मिलना नहीं होता था। तभी सन् 1991 में रज्जू बाबू का मेरे बेटे के जन्म की दावत में आना, मेरे लिए यह सोचते हुए सुकूनदायी था कि उनका-मेरा अपनापन जस का तस।
1986 से पहले मेरी जब भी इच्छा होती थी मैं राजेंद्र माथुर से मिल लिया करता था। शुरुआत में वे शाम के वक्त दफ्तर से बाहर मिलते। फिरोजशाह मैदान के खंडहर मैदान में हम घूमते हुए गपशप करते। वे बंगाली मार्केट जैसे ठिकानों/ रेस्टोरेंट बुलाते तो पहुंच जाता। कुछ जगह ऐसी भी थी जो मेरे लिए नई। जैसे एक दफा लोदी गार्डन में पीछे की तरफ के रेस्टोरेंट व रीगल के ऊपर रेस्टोरेंट पर उन्होंने लंच खिलाया तो मै हैरान हुआ कि उन्होने इन्हे दिल्ली में इतनी जल्दी खोज लिया। दो-तीन साल सिलसिला चला फिर शीत युद्ध का सर्दपन और राजेंद्र माथुर का भी अपने यहां चांद-सितारे याकि सुरेंद्र प्रताप सिंह, विष्णु खरे, सूर्यकांत बाली, दीनानाथ मिश्र आदि का जमावड़ा जमा कर उनमें रमना।
असल वजह इंदौर के दोनों चेहरों का खूटों में बंटना था। बात शायद 1986 की होली की है। रिपोर्टर कुमार आनंद ने होली के मौके पर सबके घर जा कर होली मिलन, रंगबाजी का प्रोग्राम बनाया। हम लोग गाड़ी लेकर पत्रकार साथियों के घर गए। आखिर में प्रभाषजी के घर। प्रभाषजी के घर धमाल के बाद मैंने पास में ही रज्जू बाबू के घर जाने और उन्हें भी चलने को कहा तो उनके अनमनेपन, सर्दपन, अनिच्छा ने मुझे करंट मारा। जबकि मैं मासूम भाव दोनों का घरोपा साझा माने बैठा था।…पर यह तो गड़बड़! ऐसा कैसे?…और रज्जू बाबू के घर गया तो वे भी सर्द।
तब मैंने दोनों घरों में आने-जाने वाले इंदौरियों व परिवार की गृहलक्ष्मियों की भाव-भंगिमा बूझी। मैं कुछ नाम भूल रहा हूं लेकिन नाना जोशी, राजेंद्र तिवारी जैसे चेहरों से समझ आया कि नई दुनिया के बंटवारे से लेकर कौन महान संपादक, किसका जलवा अधिक जैसी बातों के बतगंड़ में खेमेबंदी हो चुकी है।
किस इंदौरी ने भड़काया, किसने सुलगाया इसकी मैं थाह नहीं ले पाया। मोटे तौर पर वीपी सिंह के राज के बाद, चंद्रशेखर की राजनीति के दौरान समझ आया कि जनसत्ता की सफलता ने प्रभाषजी में ‘नई दुनिया’ के बंटवारे की दिलचस्पी बनवा दी और देवीलाल, वीपी सिंह, चंद्रशेखर के चेहरे क्योंकि ‘जनसत्ता’ से तो प्रभाषजी राजऋषि से कम नहीं। उधर राजेंद्र माथुर का नई दुनिया, अभय छजलानी से सरोकार रहा होगा तो वहा एसपी सिंह, दीनानाथ मिश्र जैसे चेहरे यशोगान वाले थे। मोटे तौर पर दो अखबारों की प्रतिस्पर्धा में चेहरों का छोटापन ऐसा बना, जिसके आगे मैं देखते-बूझते अनजान था।
तो अंततः रिश्ते वहीं जा टिके जो हिंदीभाषियों के स्वभाव का सदा-सनातनी सत्य है। यहां मैं वापिस राहुल बारपुते के संदर्भ में राजेंद्र माथुर का लिखा लिख दे रहा हूं, “साहित्य हो या पत्रकारिता, तमोगुणी और रजोगुणी सक्रियता या आलस्य ने चीजों को कहां से कहां पहुंचाया है, यह क्या हम आए दिन देखते नहीं? समाज के नाते अथवा संस्था के नाते हम हिंदुस्तानी उत्कृष्ट होना जानते ही नहीं और हिंदीभाषियों में यह खसलत दूसरों से कुछ ज्यादा ही है”।
मैं इस खटराग का हिस्सा नहीं बना।…पर प्रभाषजी का तो खास था ही।
और सन् 1991 में राजेंद्र माथुर की असमय मृत्यु… उनको श्रद्धांजलि के लिए विट्ठलभाई पटेल हाउस में शोक सभा हुई। प्रभाषजी भी शोकसभा में गए थे। बतौर रिपोर्टर जनसत्ता से विवेक सक्सेना था। उसने श्रद्धांजलियों को समेट विस्तार से रिपोर्ट लिखी। पर चीफ रिपोर्टर ने उसे प्रभाषजी से मिलने के लिए कहा। वह श्रद्धांजलि रपट अगले दिन अंदर के पेज में कट-छंट कर दो कॉलम में छपी थी। मैंने उससे कारण पूछा…. मुझे भरोसा नहीं हुआ कि ऐसा भी हो सकता है! पर वह सामने था।
तभी मैं अब सोचते हुए हूं कि इंदिरा गांधी के वक्त से शुरू ‘जनसत्ता’ जल्द हिट हुआ। राजेंद्र माथुर के कारण ‘नवभारत टाइम्स’ सचमुच एक श्रेष्ठ राष्ट्रीय अखबार बना और दोनों की सफलता के बावजूद दिल बड़े नहीं बने। सफलता से टुच्चापन बना और जल्द संध्याकाल! क्या मैं गलत हूं?
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इसलिए जब मैंने 1995 में ‘जनसत्ता’ छोड़ा तो पल भर भी नहीं लगा कि मैं कुछ मिस कर रहा हूं। 99 फीसदी चेहरे विस्मृत। 25 साल बाद उन चेहरों में से चेहरे तलाशते हुए अब इस विचार में जा अटक रहा हूं कि दोनों की अंतिम दिनों में सांसें कैसे धड़की होंगी? क्या प्रभाष जोशी ने ‘जनसत्ता’ में बतौर वारिस राहुल देव से सुकून पाया? उनके तब कागद कारे करने से राहुल देव की संपादकी खिली या बिगड़ी? ओम थानवी के ठसके से जब प्रभाषजी ने विदाई पाई तो मैनेजर संपादकों से उनके एक्टिविज्म की लपट भभकी या बुझी?
मेरी ऐसी ही पीड़ा रज्जू बाबू को ले कर भी है। पता नहीं लोगों को याद है या नहीं लेकिन आखिरी सांसों से पहले राजेंद्र माथुर निश्चित ही बेचैन रहे होंगे। उस समय समीर जैन का हिंदी को रोमन में कन्वर्ट कर छापने का आइडिया खिलने लगा था। रज्जू बाबू के चांद-सितारे एसपी सिंह-विष्णु खरे एंड पार्टी मैनेजमेंट प्रयोगों के परीक्षणकर्ता हो गए थे। सो समीर जैन और उसकी मंडली के आगे राजेंद्र माथुर के वीटो कैसी बैचेनी वाली रहे होंगे? तो सत्य यह भी कि एक्सप्रेस के नए मालिक विवेक गोयनका ने प्रभाषजी और टाइम्स समूह के मालिक समीर जैन ने राजेंद्र माथुर की पुण्यता का मान क्या उतना ही नहीं रखा, जो मालिक-नौकर के रिश्तों में होता है।
कह सकते हैं मैं कहां से कहां चला गया लेकिन रियलिटी जो दोनों चेहरे आखिर में उन क्षुद्रताओं, उस फर्जीवाड़े के शिकार हो जीये, जिसमें एक तरफ राजेंद्र माथुर अपनी मेधा, अपनी कलम, अपनी बुद्धि, अपने भारत चिंतन के कीर्तिस्तंभ के बावजूद एकदम अकेले, अपनी धड़कनों में बेचैन तो दूसरी और झांकी सझाए डोली उठाएं एक्टिविस्ट भटेरों के बावजूद प्रभाष जोशी भी शायद अकेले, यह विचारते हुए थे कि वनस अपॉन ए टाइम….।
जो हो, आजाद भारत के 75 वर्षों में हिंदी पत्रकारिता के 15 वर्षों के स्वर्णिम अध्याय के दो मालवी संपादकों से मैंने चेहरों के कई सत्य भोगे।