मैंने देखा कि केबिन में बैठे धर्मवीर भारती मानो स्टालिन या महामंडलेश्वर की तरह आसन जमाए मठाधीश और उनके आतंक में नौकरी करते हुए पत्रकारगण। मैं खांटी समाजवादी गणेश मंत्री की लेखन शैली में विचार प्रवाह का मुरीद हुआ करता था लेकिन मुंबई में धर्मवीर भारती के आगे गणेश मंत्री, उदयन शर्मा, एसपी सिह की समाजवादी रीढ़ सौ टका रेंगती हुई थी। बार-बार सोचता था यह बुद्धिमना-पत्रकारों का जमावड़ा है या कैदियों का। dharmyug magzine dharambir bharti
मैं पत्रकारिता के सात्विक भाव से पत्रकारिता में आया। मैंने जब 1976 से पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया और पहले ‘नई दुनिया’, ‘दैनिक हिंदुस्तान’, दिल्ली प्रेस, ‘नवनीत’, ‘रविवार’ आदि में व फिर अपनी ‘संवाद परिक्रमा’ फीचर एजेंसी के जरिए प्रादेशिक अखबारों में छपा तो वह सब पत्रकारिता की धुन का एक सात्विक निश्चय था। उस नाते अब 45 साल के बाद वैश्विक पैमाने की सात्विक पत्रकारिता को हिंदी के संपादकों में खोजने बैठा हूं तो बहुत गडमड है। मुझे सोचना पड़ रहा है कि अज्ञेय, धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय के संपादकत्व की भाव-भंगिमा, हाव-भाव, प्रवृत्तियां-निवृत्तियां सात्विक पत्रकारिता का प्रतिमान थीं या मठ पत्रकारिता बनवाने वाली?
टंटा हिंदी साहित्यकारों से शुरू पत्रकारिता का है। जैसा मैंने पहले लिखा कि हिंदी के साहित्यकार अपने-अपने वाद, अपनी दृष्टि, अपने मठ और अनुयायी लिए जीये और इनका बतौर संपादक काम करना साहित्यिक साये में पत्रकारिता से अपना मठ बनाना था।
बतौर मिसाल धर्मवीर भारती पर गौर करें। इलाहाबाद के साहित्यकार धर्मवीर भारती को जब ‘धर्मयुग’ का संपादकत्व मिला तो वे साहित्यकार होने की महिमा के साथ अपना झंडा लिए हुए थे। ध्यान रहे ‘धर्मयुग’ अपने कारणों से हिंदी की झंडाबरदार पत्रिका थी। निश्चित ही हिंदी की एक स्मरणीय पत्रिका और संपादक। तभी मैंने आठ विचारणीय संपादकों में धर्मवीर भारती को शामिल किया है। तर्क है कुछ भी हो भारती के संपादन में प्रोडक्ट लाजवाब था! पर ऐसा होना क्या टाइम्स ग्रुप की बहुरंगी रोटरी प्रिंटिंग मशीन, आर्ट विभाग, लेआउट टीम की डिजाइनिंग और मार्केटिंग से नहीं था? क्या पूंजी की ताकत से नहीं था? सवाल है हिंदी का वह प्रोडक्ट क्या ‘टाइम’, ‘न्यूजवीक’, ‘इकोनॉमिस्ट’ जैसी उन वीकली पत्रिकाओं वाला हुआ, जिससे हिंदीभाषी लोगों को खबर-विश्लेषण-बुद्धि की गंगोत्री मिलती?
नहीं। क्यों? इसलिए कि धर्मवीर भारती खालिस-सात्विक पत्रकारी संपादक के संस्कारों में रचे-बसे नहीं थे, बल्कि वे अपनी साहित्यिक अहमन्यता, अपना वाद, मठ बनाने की प्रवृत्ति वाले थे। उनके संपादकत्व का वह एकेश्वरवादी मठ था। सब कुछ एक अकेले धर्मवीर भारती की धुरी पर। समाचार, विचार, कविता-कहानी सब एक अकेले की माया और उसी में बनता पत्रकारी मठ! पूछ सकते हैं भारतीजी का मठ क्या विचार लिए हुए था? कुछ नहीं। वे केवल अपनी महानता का विचार लिए हुए थे।
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मैं धर्मवीर भारती और रघुवीर सहाय दोनों को समाजवादी समझता था लेकिन इमरजेंसी के वक्त दोनों पत्रिकाओं के पन्ने पलटते वक्त कभी नहीं लगा कि ये मधु लिमये, जार्ज फर्नांडीज जैसी उष्मा-छटपटाहट, विरोध का संपादकत्व लिए हुए हैं। कहते हैं रघुवीर सहाय तब प्रबंधन के आगे अपने कच्चे परिवार की दुहाई देते थे तो धर्मवीर भारती संजय गांधी में संभावनाएं देखते थे। इसे मेरा सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य कि मैं कभी भी हिंदी साहित्यकारों की संगत में नहीं रहा। न उन्हें गंभीरता से लिया। इनकी सियासी बुनावट को ले कर यह चर्चा सही लगती है कि उन दिनों बिगड़े हुए कांग्रेसी दरअसल समाजवादी भाव-भंगिमा अपना लेते थे। सो, धर्मवीर भारती भी वैसे ही समाजवादी। तभी आश्चर्य नहीं हुआ जो आखिरी दिनों में भारतीजी ने अपनी पत्नी पुष्पा भारती के राजीव-सोनिया गांधी के इंटरव्यू के बाद ख्याल बनाया कि उनके बाद उनकी पत्नी ही ‘धर्मयुग’ की संपादक बनने लायक! वे भला अपने मठ की गद्दी पर किसी बाहरी याकि गणेश मंत्री को विरासत देने का कैसे ख्याल बनाते!
‘धर्मयुग’ की अधिक चर्चा करने की वजह है। मैंने ‘धर्मयुग’ से ही हिंदी पत्रकारिता की मठ परंपरा का अनुभव किया। बतौर ट्रेनी जर्नलिस्ट में कुछ सप्ताह ‘धर्मयुग’ में रहा और माहौल देख घबरा गया। जब मुझे लगा कि ‘धर्मयुग’ में उप संपादक बनाया जा सकता हूं तो वह आंशका भी मेरे टाइम्स ग्रुप को छोड़ने का कारण थी। ‘धर्मयुग’ में कुछ सप्ताह बैठ कर उससे बचने के लिए मैं बगल की फिल्मी पत्रिका ‘माधुरी’ भागा। फिल्मी दुनिया के ग्लैमर का चाव न होते हुए भी भले संपादक विनोद तिवारी के कहे अनुसार रिपोर्टर राकेश पांडे के साथ फिल्मों के मुहूर्त इवेंट-दारू पार्टियों में घूमता था। वे भी क्या दिन थे!
तो मैंने देखा कि केबिन में बैठे धर्मवीर भारती मानो स्टालिन या महामंडलेश्वर की तरह आसन जमाएं बैठे हैं और पत्रकारगण आतंक में नौकरी करते हुए। मैं खांटी समाजवादी गणेश मंत्री की शैली के विचार प्रवाह का मुरीद हुआ करता था लेकिन मुंबई में धर्मवीर भारती के आगे गणेश मंत्री, उदयन शर्मा, एसपी सिह की समाजवादी रीढ़ सौ टका रेंगती हुई थी। बार-बार सोचता था यह बुद्धिमना-पत्रकारों का जमावड़ा है या कैदियों का! सीनियर गणेश मंत्री जैसे पत्रकारों के लिए लाल रजिस्टर और एसपी सिंह, उदयन शर्मा, हरिवंश जैसे उप संपादकों के लिए हाजिरी का काला रजिस्टर। मतलब ठीक साढ़े नौ बजे से शाम साढ़े पांच बजे की हाजिरी की सख्त समय पाबंदी। यदि तय समय के अनुसार पत्रकार नहीं पहुंचा तो आधे दिन की तनख्वाह कटी। लाल रजिस्टर वालों से महामंडलेश्वर भारतीजी सप्ताह में दो दिन निश्चित समय पर मुलाकात करते और उन्हें बताते कि क्या करना है। काले रजिस्टर वाले उप संपादकों के लिए भी अलग दो दिन। यदि मुलाकात में पत्रकार ने सुझाव दिया, आइडिया दिया, बहस की तो भारती उस बात को ध्यान में रखते। उसे फिर सालाना वेतन बढ़ोतरी (तीस रुपए) नहीं मिलती। मजेदार किस्सा है अनुराग चतुर्वेदी ने जेएनयू से समाजशास्त्र में एमए किया था लेकिन ‘धर्मयुग’ में भारतीजी ने उन्हें चुटकुलों का इंचार्ज बनाया। जेएनयू के जोश में अनुराग ने भारती से मिलकर अनुरोध किया कि उन्हें उनके विषय बाबत लिखने, उप संपादन की जिम्मेवारी मिले क्योंकि चुटकुले कुल कितने होंगे और उन्हीं में हमेशा सुबह से शाम तक बैठे रहना।…. भारती ने सुना अनसुना किया मगर हां, ध्यान रखा कि अनुराग की साल की तीस रुपए की वेतनवृद्धि रूके।
सो, उदयन शर्मा को ज्योतिष, एसपी सिंह को खेल, अनुराग को चुटकुले याकि तमाम प्रतिभाओं को डब्बूजी में कन्वर्ट कर धर्मवीर भारती महान संपादक कहलाते थे। प्रतिभा व पत्रकारिता को कुचलते हुए कैसे महान संपादक बना जाता है इसके हिंदी प्रयोग के नाम थे धर्मवीर भारती और ‘धर्मयुग’। धर्मवीर भारती हिंदी पत्रकारिता में ‘अहम ब्रहास्मि’ के मुगालते में छोटेपन, क्षुद्रताओं के वे प्रयोगकर्ता थे, जिससे वे बाकी साहित्यकार संपादकों के लिए भी प्रकाश स्तंभ हुए। टाइम्स ग्रुप में ही एक साहित्यकार संपादक थे कमलेश्वर। वे भारती से उलटे प्रगतिशील, कम्युनिस्ट। वे अपनी पत्रिका में क्रांतिकारिता बघारते। मगर बतौर मठ भारतीजी के मठ का क्योंकि अधिक जलवा था तो कमलेश्वर अपने अनुयायियों से प्रतिस्पर्धी मठ की हवा बिगाड़ते। जैसे भारती पर निशाना साधते हुए उनकी पत्रिका में छपा एक शीर्षक था- जो कायर हैं वे कायर ही रहेंगे! मठाधिपति भारती बिलबिलाए। उन्होंने शरद जोशी से जवाबी हमला लिखवा छापा- जो टायर थे वे टायर ही रहेंगे! दोनों अपनी-अपनी पत्रिका के आदि और अंत। हां, ध्यान रहे कि दोनों की पत्रकारिता याकि कायर व टायर पत्रकारिता आखिर में राजीव गांधी के घाट पर साझा पाई गई!
ज्ञान-बुद्धि-प्रतिभा वालों को बंजर-कुंठित बना कर हिंदी की मुख्यधारा के इन संपादकों ने दशकों हिंदी के साथ वह ज्यादती की, जिससे वह राष्ट्रभाषा होते हुए भी बांग्ला, मलयाली, मराठी, तमिल की क्षेत्रीय पत्रकारिता से पिछड़ी रही। उधर ‘नवभारत टाइम्स’, ‘दैनिक हिंदुस्तान’ के अक्षय कुमार जैन, आनंद जैन या रतनलाल जोशी, चंदूलाल चंद्राकर के संपादकत्व का मिजाज मठ परंपरा से अलग होते हुए भी दिल्ली के सत्तावानों में बंधा था। वह बिना किसी प्रयोजन के दरबारी पत्रकारिता थी। तब दिल्ली के हिंदी अखबार प्रधानमंत्री, प्रधानमंत्री दफ्तर या सरकार की रीति-नीति पर टीका-टिप्पणी करने की कल्पना लिए हुए नहीं थे। ये सभी संपादक बिना निजी स्वार्थ के सहज भाव सत्तापरस्त थे। मालिक अशोक जैन, केके बिड़ला और उनके संपादक इस साझा नेचुरल समझ में अखबार निकालते थे कि सब चंगा है। वहीं इन्हीं मालिकों के अंग्रेजी संपादक शामलाल, इंदर मल्होत्रा या बीजी वर्गीज कम ही सही विश्लेषण तो करते थे। वर्गीज ने सिक्किम पर संपादकीय लिखा ही था।
कुल मिलाकर हिंदी अखबार और संपादक दोनों सपाट बावजूद इसके राष्ट्रीय अखबार का रूतबा। इस स्थिति में परिवर्तन 1975 में इमरजेंसी की घोषणा से आया। तब इंदौर में ‘नई दुनिया’, जयपुर में ‘राजस्थान पत्रिका’, दिल्ली में ‘स्टेटसमैन’, एक्सप्रेस ने जैसे जो भी इमरजेंसी का विरोध किया उससे संपादकों-पत्रकारों में पत्रकारिता, अभिव्यक्ति का मन ही मन महत्व बना। इसलिए ज्योंहि इमरजेंसी खत्म और चुनाव की घोषणा तो मानो विस्फोट हुआ। हिंदीभाषियों ने तब जाना कि पत्रकारिता क्या होती है!
उस मोड़ पर मठ पत्रकारिता व सत्तामुखी पत्रकारिता बिखरी। दो नई धारा, एक्टिविज्म और चंदन पत्रकारिता का उदय हुआ। एक्टिविज्म पत्रकारिता में एमजे अकबर की कलकत्ता स्कूल ऑफ जर्नलिज्म के हिंदी प्रतिनिधि चेहरे एसपी सिंह थे तो चंदन पत्रकारिता के प्रतिनिधि कन्हैयालाल नंदन। मोटे तौर पर दोनों का सत्ता के ईर्द-गिर्द सरोकार। तभी फिर संपादकों-पत्रकारों की राज्यसभा सांसद, नेता बनने की भूख शुरू हुई। मुझे इसका पहला अनुभव श्रीकांत वर्मा और कन्हैयालाल नंदन से हुआ। (जारी)