हां, पैसे-आमद-खर्च को ले कर भारत के घर-परिवारों में फिलहाल जो औसत दशा है वहीं भारत सरकार की अब है और यह 2020-21 के आम बजट से प्रमाणित है। जैसा मैंने बजट से पहले लिखा कि लोग खरीद नहीं रहे हैं। या तो पैसा है नहीं या पैसा निकाल नहीं रहे हैं। जोखिम नहीं ले रहे हैं। आम मूड है कि पता नहीं कल क्या हो!वही दशा भारत सरकार की है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने बहुत लंबा भाषण दिया। छोटे व मझोले आयकरदाताओं को टैक्स कमी के कुछ झुनझुने दे कर देश को समझाना-जतलाना चाहा कि सब ठीक है। सब कंट्रोल में है। पर जैसे घर-परिवार, औसत भारतीय के दिल-दिमाग में इन दिनों कड़की, बेरोजेगारी, चौपट काम और भविष्य की चिंता है वैसे ही वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण, केंद्र सरकार और राज्य सरकारें हैं। सरकार अपनी कंगली दशा को छुपाने के लिए भारी उलझन में है।
सचमुच वर्ष 2020-21 के बजट से क्या केंद्र सरकार और प्रदेशों दोनों की सरकारों में पैसा उड़ेल कर लोगों का जीना आसान बनाने, नए प्रोजेक्ट शुरू करने और पुरानी चल रही योजनाओं में पैसा खर्च करने या पूंजीगत निवेश करने-करवाने की क्षमता है! ये भी सब सूखी है, ठहरी और ठिठकी व संकट समाधान में बिना विजन के है। सरकार लाचार है, सरकारों को पहले अपने खुद के रोजमर्रा के खर्चों का प्रबंध करना है। एक अर्थशास्त्री प्रो. जयती घोष ने गजब निष्कर्ष दिया। उनके अनुसार केंद्र सरकार का बजट बेमतलब की गुमराह करने वाली कवायद हो गई है। बजट में आमद और खर्च के जो आंकड़े हैं वे मूर्ख बनाने के लिए है। इसलिए उन आंकड़ों के आधार पर सोचा ही नहीं जाना चाहिए कि केंद्र सरकार की वित्तीय नीति किस दिशा में जा रही है और उससे क्या बनेगा!
अपनी थीसिस है कि जब देश के लोगों को पता नहीं कि हकीकत क्या है, कल क्या होगा और करें तो क्या करें वाली दशा में जब सब हैं तो सरकार भी वैसी ही दशा में होगी। मोटे तौर पर जैसे लोग खर्च करने की स्थिति में नहीं हैं तो सरकार भी नहीं है। लोगों की आय नहीं है तो सरकार की भी आय बिगड़ी हुई है। बावजूद इसके तमाम अर्थशास्त्री उम्मीद में थे कि सरकार जब संकट नहीं मान रही है और मंदी व बदहाल आर्थिकी की दशा को मानने को ही तैयार नहीं है, वह चक्रीय भंवर वाली मामूली बात बता संकट नहीं समझ रही है तो बजट से या नोट छाप कर ही वह खर्च का सैलाब बनाए। नोट छाप, बांट काम धंधे शुरू कराए, गांव-देहात में मनरेगा, कृषि-शहरी विकास, बड़े-विशाल प्रोजेक्टों से मजदूरी-रोजगार में उफान ला दे, जिससे अपने आप लोगों का विश्वास लौटे और पैसा खर्च होना शुरू हो। सरकार ऐसा दुस्साहस करे तो मांग-डिमांड बढ़ेगी और कंपनियां बिक्री-निर्माण में पहले वाली स्थिति में पहुंच सकेंगी!
मतलब जैसे भी हो, डायलिसिस पर बैठी आर्थिकी में सरकार को बजट से भरपूर नया खून डालना चाहिए। पर बजट 2021-22 मेंबताया गया है कि सरकार खुद खून की कमी से डायलिसिस में है। आर्थिकी का ईलाज करने वाले डॉक्टर और उसका ब्लड बैंक खुद ही खून की कमी का मारा हुआ है। सरकार की अपनी मशीनरी से खून नहीं बन रहा है तो वह जनता को क्या खून देगी।
चौंकाने वाला नया विश्लेषण प्रो. जयती घोष से जानने को मिला। उनके अनुसार जहां सरकार बिना विजन के है तो वहीं उसकी गणित भी झूठी है। जो आंकड़े हैं वे वास्तविकता से मैच नहीं करते हैं। यों बजट के अनुमान, संशोधित अनुमान और साल बाद आए वास्तविक आंकड़ों में पहले भी कुछ फर्क हुआ करता था मगर इस सरकार में और खासकर पिछले साल से बजट अनुमान और उस अनुसार राजस्व प्राप्ति याकि कमाई व खर्च के आंकड़ों में अनुमान व हकीकत का ऐसा फर्क बन रहा है कि बजट के दस्तावेज का मतलब नहीं बचता। इसकी एक वजह बजट को एक फरवरी को पेश करना भी है। पूर्व में बजट फरवरी के आखिर में पेश किया जाता था। अब क्योंकि एक ही तारीख को बजट पेश होना है तो सरकार को आमद और खर्च के आंकड़े दिसंबर अंत के उपलब्ध होते हैं। मतलब चालू वर्ष की एक पूरी तिमाही, जनवरी से मार्च के आकंड़े पूरी तरह अनुमानित बनेंगे और उसकी आड़ में सरकार चाहे जैसे मनमानीकर सकती है। तभी अभी बजट के संशोधित अनुमान चालू वर्ष के अंत के आंकड़े अनुसार सही साबित हों यह जरूरी नहीं है। जैसे सरकार के राजस्व, उसकी कमाई का मामला है। पिछले साल बजट में टैक्स रेवेन्यू के अनुमान को वास्तविक आंकड़े के मुकाबले 1,67,195 करोड़ रुपए ज्यादा बताया गया। अनुमानित आंकड़े से लोग मूर्ख बने मगर हकीकत को जानते हुए सरकार ने उसकी आड़ में चुपचाप जनवरी से मार्च के बीच अपने खर्च में भारी कटौती की। सर्वाधिक कटौती खाद्य-राशन, कृषि और राज्यों को फंड ट्रांसफर में हुई थी जबकि इन्हीं में ज्यादा खर्च किए जाने की जरूरत थी।
प्रो. जयती घोष के अनुसार वहीं इस साल भी होता लगता है। चालू वित्तीय वर्ष के नौ महीने याकि दिसंबर 2019 के अंत तक की केंद्र सरकार की प्राप्तियों-रेवेन्यू का आंकड़ा 11.78 लाख करोड़ रुपए है। जबकि अब मतलब जनवरी से मार्च की तिमाही में सरकार ने 15.21 लाख रुपए की कमाई-रेवेन्यू का अनुमान-विश्वास जताया है। मतलब नौ महीने में जितनी प्राप्ति हुई उससे ज्यादा इन तीन महीनों में कमाई का सरकार का अनुमान! तीन महीने के अनुमान में 66 प्रतिशत टैक्स रेवेन्यू, कॉरपोरेट टैक्स की आमद दो गुना और इनकम टैक्स से 80 प्रतिशत आमद बढ़ने का अनुमानजताया है।
जाहिर है ऐसा होगा नहीं। असली आंकड़े कुछ और ही, बहुत कम के बनेंगे। मगर हां, सरकार हालात समझ इन तीन महीनों में अपने खर्चों को भारी घटा बैलेंसशीट को सही बनाने की हड़बड़ी में रहेगी। उसका सिलसिला शुरू होने का संकेत है। बजट में आवंटित राशि में से पहले नौ महीनों में खेती का खर्च सिर्फ 60 प्रतिशत हुआ। ऐसे ही स्वास्थ्य, शिक्षा आदि क्षेत्रों में कंजूसी से खर्च है। खाद्य सब्सिड़ी में बजट अनुमान की राशि 1.84 लाख करोड़ रुपए को कम कर 1.08 लाख करोड़ कर दिया गया है। मनरेगा योजना में भी कंजूसी है। मौजूदा लेवल में खर्च की आवश्यकता एक लाख करोड़ रुपए की बनती है मगर इसको बजट में पहले ही 71 हजार करोड़ रुपए में बांधा गया। अब उसमें भी आगामी वर्ष में साढ़े नौ हजार करोड़ रुपए की और कमी है। उधर राज्यों को अलग केंद्र सरकार पैसे के लिए तड़पा रही है। जीएसटी क्षतिपूर्ति फंड में से पैसा ट्रांसफर करना रोका हुआ है, बल्कि घोषणा अब है कि आगे से राज्यों को ऐसा पेमेंट तभी होगा जब मकसद विशेष की सेस में पैसा आएगा। यहीं नहीं राज्यों को उनका जीएसटी हिस्सा, पेमेंट भी समय पर भेजा नहीं जा रहा है।
इस सब पर क्या कहा जाए? प्रो. घोष के अनुसार बॉटम लाइन है कि बेशर्मी से आंकड़े गढ़ते हुए हकीकत कितनी ही छुपाई जाए इस बजट से वैसा कोई वित्तीय धक्का नहीं लगेगा, जिससे आर्थिकी फिर दौड़ने लगे!
और मैं भी बजट पूर्व व नोटबंदी के बाद के आर्थिक विश्लेषण में लगातार लिखता रहा हूं कि यदि एक बार आर्थिकी डायलिसिस पर चली गई तो संकट लगातार चलना है। दिक्कत यह है कि संकट माना ही नहीं जा रहा है। सबकुछ स्वस्थ-प्रसन्न घोषित हुआ पड़ाहै तो आधार वर्ष बदलें, रेल बजट को छुपा लें, बजट पेश करने की तारीख पहले खिसका कर बैलेंसशीट में हेरफेर के लिए तीन महीने की अवधि की मोहलत बना लें तब भी होना क्या है? वह नौबत तो आनी है जब सरकार चाहते हुए भी खर्च के लिए पैसे की मोहताज हो, जैसे जनता हुई पड़ी है! क्या नहीं?
बजटः सरकार भी ठिठकी, ठहरी
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