बेबाक विचार

लोग असाधारण तो देश, नेता असाधारण!

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लोग असाधारण तो देश, नेता असाधारण!
संकट में नेता का सवाल-4: भारत आजादी के बावजूद क्यों नहीं बना? जर्मनी, जापान, इजराइल, चीन कैसे बन गए? ऐसे सवाल औसत भारतीय दिमाग को नहीं पचते हैं। दो कारण हैं। एक, हम 138 करोड़ लोगों का औसत संकल्प शौचालय, देवालय, सड़क-बिजली-पानी, राशन, धर्मादा, नौकरी-चाकरी का है। दूसरे, हम अपनी खोल में जीते हैं। खोल की खामोख्याली में जीते हुए सोचते है कि हम इतना तो बन गए! इतना विकास, इतनी योजनाएं, इतने शिक्षित, इतना बड़ा बाजार, इतना पैसा, इतने मॉल, इतनी बिल्डिंगें, शहरों का ऐसा फैलाव, ऐसी आधुनिकता के साथ जब दुनिया के बड़े जी-20 देशों के समूह में सदस्य हैं तो और क्या बनना होता है! ऐसे सोचना दुनिया के लिए 21वीं सदी का भारत आश्चर्य है! दुनिया के तमाम ज्ञानी-सुधी, बुद्धिमना लोग और देश सोचते-सोचते हैरान होते हैं कि भारत कैसा है! लोग कैसे जीते और सोचते हैं! कूपमंडूकता की क्या इंतहा है। हां, भारत में ध्यान नहीं रहता है कि चीन, जापान, जर्मनी, इजराइल चारों देशों का नया, आजाद सफर भारत के साथ 1947 के आगे-पीछे शुरू था। तब चारों से भारत बेहतर स्थिति में था। गोरों द्वारा आजाद भारत में छोड़ा इंफ्रास्ट्रक्चर ध्वंस के मारे जर्मनी, जापान व अफीमची-बरबाद चीन और रेतीले टापू वाले इजराइल से लाख गुना बेहतर था। देश विभाजन के बावजूद 1947 में भारत की आर्थिकी चलती हुई थी। बाकी चारों देशों में लोगों में हिम्मत बंधाना, सुधारना, संकल्प बनाना, पूंजी संग्रह आदि की चुनौतियां विकट थीं। जबकि चारों देशों के मुकाबले भारत का सफर नेतृत्व की निश्चिंतता, उसके प्रति जनता के समर्पण से प्रारंभ था। नेहरू के आह्वान में 34 करोड़ लोगों का देश पीछे चलता था। हां, माओ का लांग मार्च चीनियों को अफीम के नशे से मुक्त करा उन्हें साम्यवादी भट्ठी में झोंकने के लिए था। वह जोर-जबरदस्ती, डंडे की तानाशाही से था। उसमें संघर्ष, बरबादी, मूर्खताएं सब थीं। ठीक विपरित भारत में नेतृत्व और प्रजा दोनों में एकात्मता, परस्पर विश्वास, साझे लक्ष्य में देश को बनाने का वह संकल्प था, जिसके प्रति दुनिया के तमाम अमीर-विकसित देशों में सहानुभूति थी, समर्थन था। तभी विदेश से बेइंतहा पैसा, दान, मदद भारत को मिली थी। निश्चित ही वैसा भाव जर्मनी, जापान, इजराइल के लिए भी था। उन्हें भी विदेशी मदद मिली थी। कुल मिला कर एक भी वह कारण नहीं था, जिससे जर्मनी, जापान, इजराइल और चीन के मुकाबले में भारत का सफर विपरीत परिस्थिति वाला माना जाए। बावजूद इसके इन चारों देशों में लोग आज सुखी, ठाठबाठ वाला जीवन जी रहे हैं। ये आगे हैं और भारत दशकों पीछे। भारत अभी भी ब्रितानी रेल पटरियों पर है, जबकि जापान, चीन, जर्मनी ने बुलेट ट्रेन का सफर करके उसे घिस डाला है। एक जापानी बुलेट ट्रेन की पटरी बनवाने में भारत को पसीना निकला हुआ है। हकीकत के इस शर्मनाक आईने के बावजूद भारत के लंगूर ज्ञानी बोलते मिलेंगे कि आर्थिकी पांचवें नंबर की हो गई है। हम ब्रिटेन, फ्रांस से आगे हो गए हैं। ऐसी सामूहिक चेतना, मूर्खता पर भला क्या कहा जाए। तभी 21वीं सदी में भी भारत सांप-संपेरों, ताली-थाली-दीये वाला आश्चर्य लिए हुए है। नोट रखें कि हम जो हैं वह 138 करोड़ लोगों की संख्या-भीड़ से हैं। जब भीड़ अधिक होगी और सौ करोड़ लोग यदि महीने में पांच किलो अनाज-चना खाने का राशन भी लिए हुए हैं तो दुनिया की पांचवीं अर्थव्यवस्था होने की झांसापट्टी का हिसाब अपने आप बनेगा। अपने आपको बहलाने के लिए चाहे जो सोचें असलियत है कि जापान, जर्मनी, चीन, इजराइल में जीवन के जीने की खुशहाली के आगे हम छटांग नहीं, उनके पासंग नहीं हैं। रियलिटी की कसौटी में भारत 73 साल से कछुआ रफ्तार था और है। 1947 से 1964 के बीच जापान का विकास 7.9 प्रतिशत विकास दर से हुआ तो भारत का 1.68 प्रतिशत की रफ्तार से। पीवी नरसिंह राव यदि प्रधानमंत्री नहीं बनते और वे आर्थिकी को नहीं सुधारते तो भारत उसी रफ्तार में घसीटता हुआ होता जैसे 1991 से पहले था। नरसिंह राव से एक मोड़ आया तो चीन में देंग श्याओ पेंग से मोड़ बना। इन दोनों के सुधार के बाद भारत और चीन का नया सफर हुआ। मगर आगे का फिर सवाल है कि चीन कहां और हम कहां? क्यों? जवाब में मुझे भारत का मामला समझ आता है लेकिन चीन का नहीं। 20वीं सदी के दो नेता और दो देश अपने लिए सचमुच पहेली हैं। एक कमाल अतातुर्क और तुर्की और दूसरा माओ और उनका चीन। दोनों देश इन दो नेताओं से पहले नींद में थे। तुर्की में लोग ऑटोमान खलीफागिरी के साथ दिल-दिमाग में धर्म याकि इस्लाम के डीएनए से आधुनिक बन ही नहीं सकते थे। धर्म, कठमुल्लाई सोच से वे मुक्त हो उड़ ही नहीं सकते थे। ऐसे ही चीन में उस वक्त माओ की कमान बनी थी जब चीनी लोग जापानियों से हार, गुलामी और अफीम के नशे में सचमुच दुनिया के नंबर एक अफीमची थे। धर्म, गुलामी और नशे में कुंद दिमाग-मंद बुद्धि वाली प्रजा की भीड़ पर कमाल अतार्तुक ने तुर्की में और माओ ने चीन में लोगों पर जैसे कोड़े मारे और उन्हें बदल देने का जो नेतृत्व दिया तो एक लेवल पर धारणा बनती है कि कौम यदि कोई बुद्धिमान, संकल्पवान बिरला नेतृत्व पा जाए तो कट्टरपंथी मौलाना जहां कोट-टाई पहनने वाला आधुनिक इंसान बना मिलेगा तो अफीमची-आलसी लोग दुनिया की नंबर एक मेहनती नस्ल बन सकते हैं। मुसलमान आधुनिक नहीं बन सकता है, इस बात को तुर्की में कमाल अतातुर्क ने गलत साबित किया है। उन्होंने बलात सत्ता पर कब्जा कर सन् 1923 से 1938 के पंद्रह साला राज में कौम, देश, धर्म को जैसे बदला वह नेतृत्व की कसौटी में बहुत बड़ा आश्चर्य है। उनका जनता से आह्वान हुआ करता था कि जो अपने जीवन को अच्छा बनाने, स्वतंत्रता के लिए त्याग को तैयार होते हैं उन्हें कोई पराजित नहीं कर सकता। उनका बनाया तुर्की आज भी इस्लामी देशों की बिरादरी में सर्वाधिक आधुनिक है। मौजूदा राष्ट्रपति के अपवाद को छोड़ें तो तुर्की के लोगों का जीवन स्तर, विकास, जनतांत्रिक अधिकार, समानता, दिमाग-बुद्धि-आर्थिक विकास में तुर्की के लोग तमाम इस्लामी देशों से कई गुना अव्वल हैं। सो, सौ साल पहले कमाल अतातुर्क नाम के एक राष्ट्रपति, लीडर, नेतृत्वकर्ता ने देश, नस्ल, कौम, धर्म में जैसा कायाकल्प कराया तो अर्थ निकलता है कि यदि कुंद-मंद बुद्धि के परिवेश में संयोग से कोई विजनरी-समझदार-संकल्पी नेतृत्व बन जाए तो वह अपने बौद्धिक बल से देश को बदल सकता है। यह धारणा फिर चीन में माओ और उनके बाद देंग श्याओ पिंग के अनुभव से भी पुष्ट है। माओ ने चीनी लोगों को नशे और गुलामी की कुंदता से बाहर निकाल उन्हें साम्यवाद की भट्ठी में तपाया, जलाया और पकाया और खून-पसीना बहाने वाली श्रमशक्ति में बदला। 1992 में देंग की समझदारी (या निक्सन-किसिंजर के मौका देने से!) ने उस श्रमशक्ति की ताकत को बूझ दूरदृष्टि में चीन को दुनिया की फैक्टरी बनाने का संकल्प किया। गुलाम मगर अनुशासित, मंद बुद्धि मगर सीखने-नकल के लिए संकल्पित श्रमशक्ति का फिर लीडरशीप की देखरेख में चीन में वह कमाल हुआ, जिसके नतीजे देख दुनिया हतप्रभ है और बतौर सभ्यता चीनी लोग फिर दुनिया की धुरी होने के हॉन गौरव में डूबे हुए हैं। यह गौरव 140 करोड़ आबादी में हर नागरिक की खुशहाली के साथ है, इसमें हर की याकि प्रति व्यक्ति आय 8254 डॉलर है जबकि भारत में लोग चार गुना कम याकि सिर्फ 2169 डॉलर का आंकड़ा लिए हुए हैं। तुर्की और चीन जैसे छोटे-मोटे कुछ और भी उदाहरण हैं। जैसे विभिन्नताओं की अलग-अलग तासीर लिए नस्लों के टापू सिंगापुर के राष्ट्रपति ली के नेतृत्व का कमाल है तो अपना मानना है कि दक्षिण अफ्रीका के गोरों-कालों को समरस कर नेल्सन मंडेला ने अपनी कमान में जैसी नई शुरुआत कराई वह कम आश्चर्यजनक नहीं है। दक्षिण अफ्रीका गृह युद्ध का मैदान बनता लगता था लेकिन नेल्सन मंडेला ने गोरों-कालों के बीच खाई खत्म करा देश को जिन नए संकल्पों की और मोड़ा वह कमाल अतातुर्क या माओ, देंग जैसा ही विचारणीय मसला है। इन कुछ अपवादों को छोड़ें तो जैसी जनता वैसे नेता और दोनों से देश, कौम, सभ्यता बॉटम में। अब्राहम लिंकन, रूजवेल्ट, चर्चिल, गोल्डा मैयर, रोनाल्ड रीगन, मारग्रेट थैचर आदि का नेतृत्व असाधारण था। इनसे देश विशेष की दिशा-दशा बदली लेकिन ये नेता दिमाग-बुद्धि से उड़ती हुई आजाद जनता के बीच से निकले थे। इसलिए दिमाग-बुद्धि से समृद्ध देशों में नए पायलट से नई उड़ान कुल मिलाकर नागरिक की सामूहिक चेतना की बदौलत है। अमेरिका का सामान्य राष्ट्रपति भी असाधारण होगा क्योंकि वह दिमाग-बुद्धि से पुष्ट आबादी में से निकला हुआ है। अपनी थीसिस है कि आधुनिक काल, मतलब पिछले तीन सौ सालों में फ्रांस और अमेरिका जैसे बने हैं वह तमाम विकसित देशों का प्रतिमान उदाहरण है। फ्रांस में जनता जागी तो राजशाही को उखाड़ फेंका और उस जनक्रांति में लोगों के कुलबुलाए दिमाग ने वक्त के सकंट में जो चिंता, अंतःप्रेरणा व संकल्प बनाए तो उसी अनुसार जननायक, जन नेता पैदा हुए। उन्होंने जन भावना को समझ जनकेंद्रित मौलिक संविधान रचा। फ्रांस ने दुनिया को स्वतंत्रता, समानता व भाईचारे के प्रजातंत्री बीज दिए। दूसरा उदाहरण अमेरिका का है। अमेरिका की खोज के बाद यूरोप के लोगों में नई दुनिया बसाने का दुस्साहस  हुआ। जो लोग यूरोप की राजशाही, सामंती व्यवस्था से उकताए हुए थे वे झंझावती समुद्री यात्रा की जोखिम उठा अमेरिका पहुंचे। मतलब दुनिया के सर्वाधिक, दुस्साहसी, स्वतंत्रचेता, खोजी और जीवन को अपने हाथों आजाद-अच्छा बनाने का विचार-पुरुषार्थ लिए लोगों से अमेरिका बना है। और वहीं अमेरिकी नस्ल का डीएनए है। तो अमेरिका बसा और लोगों ने उसे बसाने वाले ब्रिटेन से मुक्ति का संघर्ष कर लड़ाई जीती तो जनता और नेताओं ने वह व्यवस्था, वह संविधान रचा, जिसमें जनता माईबाप। व्यक्ति की निज आजादी और सुरक्षा की ऐसी गांरटी कि नागरिक को हथियार रखने तक का अधिकार। यूरोप के सामंती अनुभव को जाने लोगों ने सर्वेसर्वा एक मालिक, राष्ट्रपति वाला संविधान नहीं बनाया। ऐसा संविधान लिखा, ऐसा प्रजातंत्र बनाया, जिसमें सब चेक-बैलेंस के नीचे। निज जीवन को हर तरह की आजादी। संस्थाएं एक-दूसरे से स्वतंत्र। जाहिर है आधुनिक वक्त में फ्रांस, अमेरिका दो उदाहरण हैं, जिसमें नागरिकों के दिमाग-बुद्धि की जाग्रतता में क्रांति हुई। संविधान और बुद्धि-सत्य के सामूहिक मंथन, चिंतन, चेतना और संघर्ष की प्रतिध्वनि में वैसे नेता उभरे और वह संविधान लिखा गया, जिससे देश में जनता को उड़ने, बुद्धि को खिलने, कौम को निर्भीक-निडर बनाने की हर संभव आजादी दी। जनता असाधारण, नेतृत्व असाधारण तो राष्ट्र का भी असाधारण बनने का सफर। यहीं नेतृत्व, नेता को ले कर संकट के वक्त या सामान्य वक्त या सर्वकालिक विश्लेषण है। सवाल है इस बैकग्राउंड में भारत के नेतृत्व की क्या दास्तां है? शायद अगले सप्ताह लिखना हो सके हमें 1947 से प्रधानमंत्री कैसे मिले हैं? भारत के प्रधानमंत्रियों और भारत की जुगल जोड़ी से क्या हुआ!
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