बेबाक विचार

पैसा छाप बांटें तब भी भय नहीं छंटेगा!

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पैसा छाप बांटें तब भी भय नहीं छंटेगा!
भारत यदि वैक्सीन आने तक (मतलब अगली जून तक) भय और शारीरिक दूरी में रहता है तो आर्थिकी का क्या होगा? सवाल है कितनी अवधि का अनुमान लगे? अगली जून तक का या दो साल या चार साल (सन 2024) तक का?जान ले भारत कीबरबादी सबसे अलग होगी। इसलिए क्योंकि भारत 138 करोड़ लोगों की भीड़ लिए हुए है। दूसरे, भारत में वायरस पूर्व के चार सालों में लक्ष्मी की चंचलता खत्मथी। वह पहले से ही मंदी, बेरोजगारी के भंवर मेंथी। तीसरे, दुनिया के समझदार देशों में किसी ने भी जनता से नहीं कहा कि वायरस के साथ लिव-इन-रिलेशन में जीना सीखो! इसलिए बेकार है सोचना कि भारत सरकार, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण की बातों, आर्थिक पैकेज, आर्थिक सुधार की घोषणाओं का भारत की आर्थिकी पर असर होना है। जब सामान्य वक्त में आर्थिकी कंट्रोल में नहीं थी, मोदी-निर्मला सीतारमण के तमाम उपाय, इनकी चिकित्सा जब देश की आर्थिक सेहत को पहले ठीक नहीं कर पाए तोवैश्विक वायरस की बेकाबू स्थिति में इनके काबू में भला आर्थिकी कैसे हो सकती है? तभी नोट रखें न भारत आत्मनिर्भर, स्वदेशी बनेगा।न भारत की कंपनियों, आर्थिकी में जान लौटेगीऔर न गरीब, किसान, मजदूर की दो जून रोटी का बंदोबस्त हो सकेगा। अगले साल जून-जुलाई तक सरकार के पैकेज, उसकी घोषणाओं के नतीजे वैसे ही होंगे जैसे नोटबंदी के हुए थे। न माया मिली न राम। सौ जूते भी खाए, सौ प्याज भी खाए। बावजूद इसके वायरस से जान और जहान दोनों काबाजा बजा। सरकार जो कहेगी उससे उलटा होगा। आर्थिक गतिविधियों में गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक जैसे प्रदेश अगले एक साल में पश्चिम बंगाल बने हुए होंगे तो पश्चिम बंगाल, बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश में काम धंधा, हालात अफ्रीका के सब-सहारा इलाके जैसे होंगे! जाहिर है ऐसा महामंदी के आर्थिक सिनेरियो में होना है। न काम होगा, न रोजगार होगा, न मांग होगी और न फैक्टरियों से उत्पादन और सेवाओं से सेवा की डिलीवरी। जर्मनी, जापान, ब्रिटेन, अमेरिका जैसे दुनिया के इंजन दो टूक शब्दों में कह चुके हैं कि वे मंदी में फंस गए हैं या फंस रहे हैं। जब ये ऐसा कह रहे हैं तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भारत की जनता से कैसे यह बात कह रहे हैं कि वायरस हमारे लिए मौका है। इस वायरस के साथ हम लिव-इन-रिलेशन, सह जीवन में रह कर हम न्यू भारत पैदा करेंगे,जिससे भारत का आत्मनिर्भर जन्म होगा, भारत में नई फैक्टरियां जन्मेंगी, निवेश होगा और आर्थिक सुधारों से भारत दुनिया में नया, चमका हुआ विश्वगुरू होगा! मतलब भारत की आर्थिकी गिरती, फिसलती, मंदी के पैंदे को छूने वाली नहीं, बल्कि दुनिया में सबसे अलग वह करिश्मा दिखाएगी, जिसमें भारत विकास में दौड़ता हुआ होगा और दुनिया इस चमत्कार को देख दांतों तले उंगली दबा न्यू इंडिया के लिए सिटी बजाएगी। ऐसे ख्यालों में भारत के मुंगेरीलाल जन जी सकते हैं लेकिन दुनिया नहीं। इसलिए जरा विश्व के पैमाने में, सत्य की कसौटीमें इन बिंदुओं पर गौर करें। एक- महामारी (लाखों-करोड़ों लोगों को संक्रमित करती हुई) के साथ सहजीवन संभव नहीं हुआ करता। महामारी में आर्थिकी-काम-धंधे का मौका नहीं बनता। इस एप्रोच में उलटे ऐसा दुष्चक्र बनता है, जिसमें घर-घर संक्रमण पहुंचेगा और मुर्दाघर आबाद होंगे। दो- अमीर-निवेशक देशों-विदेशी कंपनियां जब महामंदी, महा बेरोजगारी में फंसी होती हैं तो वे भारत जैसी कंगली आर्थिकी में निवेश की बात तो दूर उसकी तरफ आंख उठा कर नहीं देखेंगी। तीन- वित्त मंत्री के बीस लाख करोड़ रुपए या जीडीपी के दस प्रतिशत वाले पैकेज से आर्थिकी में जान फूंकने की बात फर्जी है। कंगली सरकार वास्तविकता में पैसा बांटने की हैसियत नहीं रखती। मोदी सरकार के पैकेज की दुनिया में पड़ताल हो चुकी है और नामी विश्लेषक आर्थिक एजेंसियों ने जीडीपी के कथित दस प्रतिशत के बराबर पैकेज को रियिलटी में जीडीपी का 0.7 प्रतिशत से 1.3 फीसदी हिस्सा करार दे पैकेजों को ढोंग, फर्जी करार दिया है। चार- सरकार छोटे-मझोले कामधंधों से लेकर एयरलाइंस आदि बड़े क्षेत्रों को खुलवा कर, इन सबको कर्ज लेने की कह कर, कर्ज की देनदारी बढ़वाते हुए आर्थिकी चलवाने की आत्मघाती एप्रोच लिए हुए है। यह बिना मांग व ग्राहकी बनवाए सप्लाई साइड में कामधंधा खुलवाना होगा, जिससे काम-धंधों का और दिवाला निकलेगा। पांच- सन 2020-21 केवित्त वर्ष में भारत के विकास को ले कर वैश्विक संस्थाओं ने निगेटिव रेट के जो अनुमान दिए हैं उससे आर्थिक सुधारों की कथित घोषणाओं के बावजूद विदेशी कंपनियां भारत की ओर लपकेगी नहीं। छह- विदेशी कंपनियां-निवेशक चीन से फैक्टरियां हटाएंगे तो वे विएतनाम, ताईवान और पूर्वी यूरोप के उन देशों में जाएगे, जहां नौकरशाही न्यूनतम है। मोदी सरकार को अभी भी समझ नहीं आया है कि भारत के विकास में असली बाधक याकि विलेन नौकरशाही है, जो कानूनों को खत्म या सुधारने के बावजूद लहरें गिनकर भ्रष्टाचार करने के लिए दुनिया में कुख्यातहै। जैसे मौजूदा वायरस संकट में भी प्रशासकीय धांधलियों, टेंडर, खर्चे के बहानों की खबरें आने लग गई हैं। ऊपर के इन बिंदुओं में अब विचारें कि कैसे वायरस से सहजीवन में आत्मनिर्भर इंडिया पैदा होगा? फिलहाल अधिकांश अर्थशास्त्री प्रिंटिंग प्रेस में नोट छापकर लोगों को बांटने का सुझाव लिए हुए हैं। सरकार भी संकेत दे रही है कि वह एक ब्रहास्त्र लिए हुए हैं। चिदंबरम, अमर्त्य सेन, अभिजीत बनर्जी आदि सब नोट छापो और बांटों की एप्रोच लिए हुए हैं। अपनी जगह ठीक बात है कि यदि अगली जून तक हर परिवार को पांच से दस हजार रुपए प्रति माह बांटा जाए तो घर बैठ कर जहां वायरस से बचा जा सकेगा वहीं लोगों द्वारा उस पैसे को खर्च करने से मांग, डिमांड बनेगी। वह खाने-पीने के अलावा, कपड़ा, साईकिल जैसी खरीद में पैसा खर्च करेगा तो फैक्टरियों को ऑर्डर मिलेंगे। आर्थिकी चलने लगेगी। सचमुच अमेरिका, यूरोपीय देशों में बेरोजगारों, काम धंधों के हाथ में फ्री नकद पैसा बांट महायुद्ध के बाद के मार्शल प्लान याकि कीन्सवादी एप्रोच में पैसा उड़ेलो और आर्थिकी चलाओ की सफलता के पुराने प्रमाण हैं। पर अपनेको भारत में इसकी सफलता पर खटका है। एक तो भारत में पैसा बांटा जाना भ्रष्टाचार के पेट में विलुप्त होना होता है। फिर जब पहले से ही केंद्र सरकार, राज्य सरकारें पुरानी दिवालिया स्थिति में वायरस की महामारी के चलते वित्तीय घाटा बढ़ा देने वाली है और वह जीडीपी के12-15 प्रति्शत तक चला गया तो वह भी तो खतरनाक है। जीडीपी के अनुपात में सरकारों का कर्ज 80 प्रतिशत तक हो गया और उसके बाद पैसा छाप कर बांटने, भय में लोगों के घर में रह कर पैसा खाने से जो मुद्रास्फीतिका दबाव बनेगा तो वह क्या भारत को वेनेजुएला की दिवालिया दशा की और ले जाने वाला नहीं होगा? मोदी-निर्मला सीतारमण उस दशा को क्या संभाल सकेंगे? अपना मानना है कोविड-19 को भारत सरकार ने टेस्टिंग-ट्रेसिंग-रिस्पोंस की बजाय झूठ, भगवान भरोसे जैसे छोड़ा है उससे आने वाले महीनों में घर-घर अराजक भय बढ़ेगा। घर लौटने वालों की तादाद बढ़ेगी और वे छह-आठ महीने-साल (याकि वैक्सीन से भरोसा बनने तक) से पहले काम की पुरानी जगह, कमाई के पुराने ढर्रे में नहीं लौटेंगे। 138 करोड़ में से बहुसंख्यकपरिवार, लोग सिर्फ पेट भरने व घर में रहने की मनोदशा में वक्त काटेंगे। फालतू का प्रचार है कि घर लौटे मजदूर सरकार को कह रहे हैं कि वे तो लौटना चाहते हैं, फैक्टरी चालू कराएं। वायरस याकि मौत से लिव-इन रिलेशनशिप, सहजीवन महानगर के उन लोगों के लिए ठीक है जो कार, अपने वाहन, इलाज का जुगाड़- साधन का आत्मविश्वास और पक्की सरकारी-कारपोरेट नौकरी लिए हुए हैं लेकिन गांव-अनौपचारिक क्षेत्र का गरीब-मजदूर-मध्य वर्ग मौत-बीमारी के भय से उबर कर कोरोना के साथ सहजीवन का हौसला-हिम्मत यदि लिए हुए होता तो वह सड़क पर पैदल घर लौटता हुआ नहीं मिलता। सो, वायरस के रहते अपनी तह लौट कर रोजगार तलाशने, फैक्टरी चलवाने, मजदूरी कमाने, उसे फिर खर्च कर सप्लाई-डिमांड की चेन बनाना कामगार के लिए संभव नहीं है। यदि उसे पैसा फ्री में बंटा तो वह खाने-पीने की बेसिक जरूरत पर खर्च कर घर में ही रहेगा। तब इन चीजों के दाम तेजी से बढ़ेंगे और बाकी उद्योग कबाड़ बनेंगे। तभी अपना पहले भी तर्क था, अब भी तर्क है कि लोगों को वायरस मुक्त बनाने की मेडिकल चुनौती को रामभरोसे छोड़ना मोदी सरकार की वह भयावह बलंडर है, जिससे आने वाले सालों में आर्थिकी पर जब विचार करेंगे तो जानने को मिलेगा कि लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई। पहले नोटबंदी, फिर वायरस पर हाबड़तोबड़ लॉकडाउन और अब मजदूर का वायरस के साथ सहजीवन बनवाने की जुमलेबाजी में आर्थिकी को चलाने की कोशिश बहुत घातक होगी और वेंटिलेटर पर लेटी आर्थिकी का सचमुच भगवान मालिक होगा। सवाल है तब हो क्या? इस पर कल विचारेंगे।(जारी)
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