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फुटपाथ बाजार है भारत का विकास!

परसों मैं वर्षों बाद दिल्ली का करोलबाग घूमा। सोमवार को बाजार बंद रहता है और फुटपाथ बाजार लगता है। 35 साल पहले मैं करोलबाग-देवनगर में रहता था तब भी सोमवार को फुटपाथ बाजार लगा करता था। पर इस सोमवार बाजार देख झनझना उठा। करोलबाग-रैगरपुरा में मुख्य सड़क या गलियों में इतनी-ऐसे दुकानें, इतनी भीड़ मानो झुग्गी-झोपड़ी में हाटबाजार, कीड़े-मकोड़ों का संसार! उफ! कितना कैसा बदला यह करोलबाग-रैगरपुरा-देवनगर इलाका। छोटी-छोटी गलियां भी बाजार में बदली हुईं और उटपटांग निर्माण तो बस्तर के हाट से भी ज्यादा भदेस चीजें, कपड़े-बिंदी से ले कर फुटपाथ पर तले जाते भटूरे, खाने-पीने की चीजें, सब्जियां, मोबाइल एक्सेसरीज। समझ नहीं आया की 35 साल पहले की स्मृतियों के देवनगर-राजेंद्रनगर के बीच के संपन्न इलाके करोलबाग में भला सौ रुपए की जिंस वाला हाट बाजार किन झुग्गी-झोपड़ियों के लिए है? विचार किया तो लगा कि करोलबाग की मुख्य सड़क भले सर्राफा बाजार माफिक सोने-चांदी की दुकानों से भरी हो लेकिन अगल-बगल की गलियों में सस्ते जूते, कपड़े बेचते सप्लायरों और रैगरपुरा-आनंद पर्वत की तंग गलियों के घरों में क्योंकि भीड़ अथाह बस गई है तो जीना भले कच्ची झुग्गी-झोपड़ी वाला न हो लेकिन वह पक्की झुग्गी-झोपड़ी से बेहतर कितना होगा?

कोई माने या न माने, अपना ऑब्जर्वेशन है कि दिल्ली के किसी पुराने इलाके में चले जाएं, वहां के पुराने अमीर, खानदानी बाशिंदे नई कॉलोनियों में चले गए हैं और उन्होंने पुराने मकानों को या तो दुकान, गोदाम या एक-एक-एक कमरे को किराये पर उठा पूरे इलाके को पक्की झुग्गी-झोपड़ी में बदल डाला है। दिल्ली के पुराने गांवों में भी यह दशा है तो करोलबाग, चांदनी चौक से ले कर लक्ष्मीनगर तक की तमाम गलियां एक-एक कमरे में किराये पर रह रही, बाहर से आई आबादी की भयावह भीड़, दुकानों, छोटे-छोटे कामधंधों के सैलाब से अटी पड़ी हैं।

यहीं है भारत का विकास! उसके ट्रिलियन डालर में विकास का सार! दिल्ली में जो है वह मुंबई में है तो कोलकाता, चेन्नई और तमाम महानगरों में है। करोलबाग का बाजार अगल-बगल की गलियों की पक्की झुग्गी-झोपड़ियों की भीड़ का एपिसेंटर है। करोलबाग के बगल के राजेंद्रनगर में आईएएस-आईपीएस-सरकारी नौकरियों की कोचिंग वाले हजारों या (शायद लाखों) लड़के-लड़कियों का एक-एक कमरे में जीना तो रैगरपुरा, आनंद पर्वत के घेटो में निम्नवर्गीय, प्रवासी आबादी की किराया इकोनॉमी की भीड़ ने ही करोलबाग के फुटपाथ बाजार के केहोस को खिलाया हुआ है।

सो भीड़ व भीड़ का केहोस ही भारत की पांच ट्रिलियन इकोनॉमी के सपने का पुलाव है। हां, करोलबाग के फुटपाथ बाजार और भीड़ के फैलाव व उसकी सघनता ने सोचने को मजबूर किया कि इस देश की, भारत की क्या दिशा है? यदि दिशा बनी हुई होती तो 35 साल पहले का करोलबाग बाजार, उसका सोमवार का फुटपाथ बाजार वे कुरूपताएं, विद्रूपताएं, घटियापन और छोटी बेसिक जरूरतों की सस्ती खरीद की वह भूख लिए हुए नहीं होता, जिसे देख दिमाग झनझना गया। मैंने बिहार में गांव-कस्बों के हाटबाजार देखे हैं तो बस्तर, मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाके के हाटबाजार भी देखे हैं। छुट्टी याकि रविवार के दिन पेरिस, लंदन के पुराने इलाकों के फुटपाथ बाजार भी मैंने देखे हैं। उस नाते दो टूक गांठ बांध लेने वाली बात है कि सवा सौ करोड़ लोगों का देश रेहड़ी बाजार बनाम अमेजन बाजार में बदल रहा है तो इस असमान प्रवृत्ति के बीच स्मार्ट सिटी, स्मार्ट विकास की रत्ती भर गुंजाइश नहीं है।

हां, फुटपाथ-रेहड़ी-घर के बाहर दुकान खोल बैठने बनाम ऑनलाइन खरीद के एक्स्ट्रीम धुर भारत की एक्स्ट्रीम असमानता का पर्याय है तो भारत के निठल्ले बनते जाते और भीड़ से आर्थिकी के आंकड़े बनने की वास्तविकता का भी प्रमाण है।

मतलब हमारा विकास इसलिए नहीं है कि हमारी उत्पादकता बढ़ रही है। वह इसलिए है क्योंकि आबादी बढ़ रही है। कल सवेरे अमेरिकी थिंक टैंक विश्व जनसंख्या समीक्षा की एक रिपोर्ट पढ़ने को मिली। उसने बताया कि भारत की आर्थिकी दुनिया की पांचवीं आर्थिकी हो रही है, वह ब्रिटेन व फ्रांस को पछाड़ दे रही है। पर ऐसा करोलबाग, रैगरपुरा के फुटपाथ बाजार की, देश की बढ़ती भीड़ से है। हम एक सौ तीस करोड़ हो गए हैं तो आर्थिकी यदि 2.94 ट्रिलियन डॉलर की बने तो वह फुटपाथ पर पकौड़ा बेचने-खाने वाले लेन-देन से है, दिल्ली के राजेंद्रनगर या देश के तमाम शहरों में नौजवानों के सरकारी नौकरी के लिए, दाखिलों के लिए कोचिंग लेने जैसे अनुत्पादक कामों के चलते है।

सचमुच गौर करें, दुनिया में ऐसा दूसरा देश कौन सा है, जहां करोड़ों नौजवान कोचिंग लेते हैं? इस बात को बारीकी से समझें कि भारत में शिक्षा-ट्रेनिंग खर्च जितना होता है उससे कई गुना अधिक कोचिंग-ट्यूशन खर्च होता है। पता नहीं अर्थशास्त्री भारत की इस बरबादी को उत्पादक मानते हैं या अनुत्पादक। भारत सरकार की आर्थिक गणनाओं में इसे सर्विस सेक्टर बताया जाता है। इसका फैलाव भी विकास समझा जाता है जबकि यह पूरी तरह पैसे-समय की बरबादी है और इतनी बरबादी दुनिया के किसी दूसरेदेश में नहीं है। चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस, जापान आदि कही से मुझे यह रपट पढ़ने को नहीं मिली कि वहां सरकारी नौकरी के लिए या दाखिलों के लिए अरबों-खरबों के खर्च वाला कोचिंग-ट्यूशन ताना-बाना है। यह सब भारत की बरबादी है लेकिन मजा देखिए कि इस अनुत्पादकता और बरबादी में भी हम अपने विकास आंकड़े बनाते हैं!

इस हकीकत को समझा जाए कि फुटपाथ-रेहड़ी-पकौड़ा-भटूरा-रेस्टोरेंट बाजार हो या कोचिंग-ट्यूशन का बाजार इसे सेवा क्षेत्र का नाम मिला हुआ है। इसी में भारत दुनिया में सबसे तेज रफ्तार आगे बढ़ रहा है। यह भारत की आर्थिकी मेंफिलहाल कोई 60 प्रतिशत हिस्सा लिए हुए है, जिसमें देश का 28 प्रतिशत रोजगार है।

एक और तथ्य जानें। भारत की आर्थिकी दुनिया की पांचवी, 2.94 ट्रिलियन डॉलर की हो या बकौल प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पांच ट्रिलियन की बने उसमें आने वाले दशकों में भारत के 130 करोड़ या भविष्य के 150 करोड़ लोग फुटपाथ बाजार याकि रेहड़ी-पकौड़ा-भटूरा-रेस्टोरेंट बाजार वाला ही जीवन स्तर अनिवार्यतः लिए हुए होंगे। इस बात को मौजूदा इस आंकड़े से भी समझें कि विकास की बड़ी-बड़ी बातों, पांच ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी के जुमलों के बीच भारतीय नागरिक का प्रतिव्यक्ति आय का आकंड़ा 2,170 डॉलर सालाना है जबकि अमेरिका में प्रतिव्यक्ति आमद का आंकड़ा 62,794 डॉलर सालाना है।

सोचें कैसी भयावह रियलिटी लेकिन जुमले दुनिया में अमीर होने के!

करोलबाग के फुटपाथ बाजार में ही मुझे चीन के सामान, चीनी मोबाइल के कवर, एक्सेसरीज आदि का सैलाब समझ आया। कितना त्रासद है देखना कि हम 130 करोड़ और आगे 150 करोड़ भारतीयों का दुकान लगा कर बेचना और खरीदना नंबर एक आर्थिक एक्टिविटी है और उसमें सामान चाईनीज, वियतनामी, बांग्लादेशी, आसियान देशों से आया हुआ! धंधा हम कर रहे हैं और मुनाफा चीनी, कोरियाई जैसे विदेशी कमा रहे हैं! तब हम अमीर हो रहे हैं या वे अमीर हो रहे हैं? हमारा जीवन स्तर बढ़ रहा है या उनका बढ़ रहा है? दुनिया में चीन, वियतनाम की धूम है या भारत की धूम है?

आप भी सोचिए? मैं कल और सोचूंगा।

By हरिशंकर व्यास

भारत की हिंदी पत्रकारिता में मौलिक चिंतन, बेबाक-बेधड़क लेखन का इकलौता सशक्त नाम। मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक-बहुप्रयोगी पत्रकार और संपादक। सन् 1977 से अब तक के पत्रकारीय सफर के सर्वाधिक अनुभवी और लगातार लिखने वाले संपादक।  ‘जनसत्ता’ में लेखन के साथ राजनीति की अंतरकथा, खुलासे वाले ‘गपशप’ कॉलम को 1983 में लिखना शुरू किया तो ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ में लगातार कोई चालीस साल से चला आ रहा कॉलम लेखन। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम शुरू किया तो सप्ताह में पांच दिन के सिलसिले में कोई नौ साल चला! प्रोग्राम की लोकप्रियता-तटस्थ प्रतिष्ठा थी जो 2014 में चुनाव प्रचार के प्रारंभ में नरेंद्र मोदी का सर्वप्रथम इंटरव्यू सेंट्रल हॉल प्रोग्राम में था।आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों को बारीकी-बेबाकी से कवर करते हुए हर सरकार के सच्चाई से खुलासे में हरिशंकर व्यास ने नियंताओं-सत्तावानों के इंटरव्यू, विश्लेषण और विचार लेखन के अलावा राष्ट्र, समाज, धर्म, आर्थिकी, यात्रा संस्मरण, कला, फिल्म, संगीत आदि पर जो लिखा है उनके संकलन में कई पुस्तकें जल्द प्रकाश्य।संवाद परिक्रमा फीचर एजेंसी, ‘जनसत्ता’, ‘कंप्यूटर संचार सूचना’, ‘राजनीति संवाद परिक्रमा’, ‘नया इंडिया’ समाचार पत्र-पत्रिकाओं में नींव से निर्माण में अहम भूमिका व लेखन-संपादन का चालीस साला कर्मयोग। इलेक्ट्रोनिक मीडिया में नब्बे के दशक की एटीएन, दूरदर्शन चैनलों पर ‘कारोबारनामा’, ढेरों डॉक्यूमेंटरी के बाद इंटरनेट पर हिंदी को स्थापित करने के लिए नब्बे के दशक में भारतीय भाषाओं के बहुभाषी ‘नेटजॉल.काम’ पोर्टल की परिकल्पना और लांच।

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