बेबाक विचार

भारत 2020: सूखे आंसू और बबूल की खेती

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भारत 2020: सूखे आंसू और बबूल की खेती
सन् 2020 को याद रखेगी पीढ़ियां-3: बूढ़ी अम्माओं के कातर चेहरे, नंगे-छिले पांव हजारों किलोमीटर पैदल चलते हुए और खेती की खुद्दारी में रोना रोते किसान चेहरों को याद करूं या शाम पांच बजे पांच मिनट तक ताली-थाली बजाने, फिर दीया जलाने वाले चेहरों को याद करूं या वायरस के मारे लाखों परिवारों की अस्पतालों और श्मशानों में बिना संस्कारों के लाशों को फूंके जाने की तस्वीरों को याद करूं? एक और सत्य छह किलो अनाज की पोटली की भीख पर जिंदा 81 करोड़ चेहरों का भी! कितनों का ख्याल बने? और सबका क्या लब्बोलुआब? क्या यह नहीं कि भारत की भीड़ में सभी चेहरों का मतलब जीरो! कितनों को याद होगा, कितनों में पीड़ा होगी सन् 2020 के वीभत्स महाकाल में रोते-बिलखते-घुटते-मरते चेहरों की? पीड़ा, त्रासदी, लाचारगी और मौत के वारंटों की चिंता में मर-मर कर जीते हुए चेहरे लेकिन न कोई सुनवाई, न संवेदना और इतनी मानवीयता भी नहीं जो दो पल के लिए घायल, मरे लोगों, मरने वालों का ध्यान ही कर लें। हां, यह भारत हकीकत है। कैसे? तो जानें कि मैं सन् 2020 में कई बार वैश्विक टीवी चैनलों की उन तस्वीरों को देख कर ठिठका, जिनमें अमेरिका के गांव, कस्बे, काउंटी में मुख्य सड़क पर महामारी में मरे लोगों के फोटो के साथ संवेदना प्रकट करते होर्डिंग थे। कम्युनिटी का फलां-फलां इस-इस तारीख को दिवंगत हुआ, श्रदांजलि! इतना ही नहीं देश के ‘न्यूयार्क टाइम्स’ या काउंटी अखबारों ने अपनी तह वायरस से हुई एक लाख लोगों की मौत के आंकड़े के दिन मृतकों के नाम-काम की लिस्ट का कई पन्नों का पूरा अखबार प्रकाशित किया। काउंटी, कम्युनिटी, राज्य स्तर पर सामूहिक श्रदांजलि कार्यक्रम हुए। मृतकों को कम्युनिटी, काउंटी भाव से याद किया गया तो हर तरफ रिकार्ड बनता हुआ है कि महामारी के काल में काउंटी, प्रदेश, देश का जनमानस कैसे-कैसे क्षणों से गुजरा है। यह है फर्क मुर्दा और जिंदा नस्ल का, संवेदक और असंवेदक मानव का, जानवर बनाम इंसान का! मुझे पता है मेरा इस तरह लिखना हम हिंदुओं के लिए बेमतलब है। महामारी के महाकाल के सन् 2020 में ही मुझे तीव्रता से भान हुआ कि हमारा-भारत का जीवन ‘अंधकार’ और ‘डेड ब्रेन’ की उस अवस्था में है, जिसमें शरीर की इंद्रियां यह बोध लिए हुए नहीं हैं कि इंसान की तरह जीना क्या होता है! हम तो महामारी के वक्त भी सत्य नहीं बोलेंगे! टेस्ट-आंकड़ों-चिकित्सा के फरेब में अंधविश्वास-टोटकों में जीवन जीना ही जब स्वभाव है तो वह सभ्य व्यवहार कैसे बना हुआ हो सकता है जो दुनिया के सभ्य-मानवीय देशों में सन् 2020 के महामारी काल में देखने को मिला है। मैं वर्ष 2020 में डोनाल्ड ट्रंप का आलोचक रहा हूं बावजूद इसके यह सत्य है कि उन्होंने महामारी के तुरंत बाद 90 प्रतिशत आबादी के घर न्यूनतम छह सौ डॉलर का चेक पहुंचवाया। अश्वेत आंदोलन पर राजनीति की रोटियां सेंकते हुए भी आंदोलन की भावना में पुलिसिंग सुधार में पहल की। ट्रंप महामारी को ले कर कितने ही लापरवाह और मूर्खता में रहे हों लेकिन टेस्टिंग-आंकड़े-महामारी को दबाने का रंचमात्र फर्जीवाड़ा नहीं किया। अपनी बदनामी की कीमत पर भी वे टेस्टिंग-बीमारी के आंकड़ों को दबवाते हुए नहीं थे। सन् 2020 में दुनिया का हर देश महामारी के महाकाल में परीक्षा देते हुए था। परीक्षा नागरिकों की रक्षा की, जान, तकलीफ और आंसू की सच्चाई के आगे सच्चे व्यवहार की। हकीकत है कि अमेरिका, यूरोप, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया, सिंगापुर याकि सभ्य देश एक-एक जान की चिंता करते हुए पूरे साल दहले, रोते वायरस की सच्चाई स्वीकारते हुए थे जबकि भारत के हम लोग और सरकार पहले दिन से हजारों झूठ से वायरस को नकारे रहे। वैश्विक मीडिया याकि बीबीसी, सीएनएन, फ्रांस, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि की टीवी चैनलों में समाचार बुलेटिन 95 प्रतिशत वायरस की खबरें लिए थे और हैं जबकि भारत के टीवी चैनल पांच प्रतिशत भी नहीं। यह फर्क भारत और भारत के 138 करोड़ लोगों की भीड़ के इस सत्य का प्रमाण है कि हमने महामारी के सन् 2020 को कैसे जीया है! साल के 365 दिन। इसका पहला दिन, पहला-दूसरा-तीसरा महीना देश की बीस प्रतिशत मुस्लिम आबादी की बूढ़ी अम्माओं की इस चिंता का था कि नए कानून से तब हम कैसे इस देश में रह पाएंगे? परदे में रहने वाली 75 साला नूर-उन-निसां आदि बुजुर्ग औरतों ने कड़कड़ाती ठंड-सर्द रातों में टेंट में बैठे यह रोना रोया कि ‘उन्होंने हमें बांट दिया है। इसलिए शाहीन का यह परवाज (उड़ना) है। मैंने इस उम्र में लड़ने का फैसला लिया है’। तो एक मुसलमान ने लिखा- इस देश में सरकार, टीवी मीडिया, सोशल मीडिया सबने मुसलमान की वह घेरेबंदी बना डाली है, जिसका लब्बोलुआब असहिष्णुता, नफरत का शोर है।... साथी देशवासियों मुझसे बात करो। मुझे न समझो पागलों के जरिए। संवाद करो। नफरत के उस शोर से बाहर निकलो, जिसमें कुछ सुना नहीं जा रहा है। शुरू करो एक संवाद। एक मुसलमान से बात करो। लेकिन भारत राष्ट्र-राज्य ने नहीं सुना। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह रत्ती भर नहीं पसीजे! ज्योंहि वायरस फैला तो उसे ‘अवसर’ बना बूढ़ी अम्माओं को जोर-जबरदस्ती इस मैसेज के साथ घर लौटा दिया कि घर में बैठ कर रोओ। सार्वजनिक स्थल रोने के लिए नहीं है। यहीं नहीं तुरत दिल्ली की एक मस्जिद से तबलीगियों को पकड़ दुनिया में हल्ला बनाया गया कि ये मुसलमान वायरस फैलाते हैं, इनके कारण भारत के कोने-कोने में वायरस फैला है। ये पाकिस्तानी, ये देशद्रोही इन्हें डालो जेल में! वर्ष का आखिरी महीना, आखिरी दिन? दिल्ली की सीमा पर कड़कड़ाती ठंड़-सर्द रातों में सड़कों पर डेरा डाले असंख्य किसान इस चिंता में कि नया कृषि कानून मौत का वारंट है। खेतिहर किसान की स्वतंत्रता, खुद्दारी को अरबपतियों के यहां गिरवी रखवाने वाला कानून है इसे रद्द करो! हमें सुनो! बूढ़ी औरतों और बूढ़े सिख किसानों की चिंता का दुनिया के सभ्य मानवों, सभ्य देशों, सभ्य मीडिया ने नोटिस लिया, उनका दिल धड़का, संवेदना-सहानुभूति बनी लेकिन भारत राष्ट्र-राज्य के मुंह से, नैरेटिव से क्या निकला? ये किसान खालिस्तानी हैं, वामपंथी घुसे हुए हैं, ये पाकिस्तानी-चीनी एजेंट हैं। ये विदेशी चंदे के पालतू हैं। मतलब इंसान को कंलकित करने की निजी, जात, धर्म, राष्ट्र स्तर की जितनी संभव गालियां हो सकती हैं वह किसानों को मिली हैं। सवाल है बूढ़ी अम्माओं का जनवरी की कड़कड़ाती ठंड में रोते हुए होना और दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में सड़क किनारे किसानों के रोने को मनुष्य की पीड़ा, कष्ट, त्रासदी का मानव संकट मानें या न मानें? पल भर मसले के सत्य को भूलें। सिर्फ इंसान के नाते उन इंसानों पर सोचें जो चिंता, पीड़ा में रोते हुए हैं उन्हें ढाढस देने, चुप कराने, मलहम लगाने का इंसानीपना, मानवीय होने की संवेदना दिखलाएंगे या गाली देंगे कि हरामियों, बदमाशों, दुश्मनों, खालिस्तानियों, पाकिस्तानी एजेंटों! उफ! कितनी तरह की गालियां अपने ही लोगों को। तभी सन् 2020 का भारत अनुभव सवाल लिए हुए कि मष्तिष्क कैसे इतना जड़ और ठूंठ! अब जरा उन बेचारे दीन-हीन, गरीब चेहरों को याद करें जो झुलसती गर्मी में करोड़ों की तादाद में अप्रैल-मई में सड़कों पर पैदल चलते हुए थे। एक शाम अचानक लॉकडाउन घोषणा और अगली सुबह खौफ, मजबूरी में लोगों का पैदल घर के लिए चल पड़ना! न लोग तैयार थे, न सरकार तैयार थी मगर बाल-बच्चों, बूढ़ों के साथ लोगों का भूखे-नंगे पैदल निकलना शुरू हुआ तो सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक भारत के महानगर सूने लगने नहीं लगे। सोचें पृथ्वी के किस कोने में मनुष्य सन् 2020 में वैसी त्रासदियों से गुजरा है जैसे भारत में था!  ऐसा पैदल मार्च दुनिया में कहीं नहीं हुआ! भारत के इतिहास में भी ऐसा केवल एक बार विभाजन के वक्त लोगों की ऐसी पैदल आवाजाही हुई। हिसाब नहीं है कि कितने करोड़ पांव झुलसती गर्मी में तारकोल की सड़कों पर सैकड़ों-हजारों किलोमीटर चले? इन पांवों में कितने छाले पड़े होंगे? कितने पेट कितने दिन अधभूखे-अधप्यासे रहे होंगे और चलते-चलते रात में कहां -कैसे सोए, कैसे भूख-दर्द में बिलबिलाते हुए भी आगे बढ़े! कोई दो महीने लोग पैदल चले और भारत का शासक वर्ग शेखी बघारता रहा। व्यवस्था के नाम पर मनमाना किराया वसूलते हुए भेड़-बकरियों की तरह इंसानों को ट्रेन डिब्बों में ढोता रहा। रत्ती भर, चुल्लू भर संवेदना नहीं कि बच्चे-बूढ़े, गर्भवती महिला को मां, बेटी या पति खींचते हुए ले जा रहे हैं तो राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, मुख्यमंत्री, चीफ जस्टिस में कोई एक बूंद आंसू तो छलकाए! तो 21वीं सदी का सन् 2020 क्या मानव इतिहास में मानवीय त्रासदी का भारत अध्याय नहीं है? बिल्कुल है। दुनिया के इतिहास में हमेशा लिखा रहेगा कि सन् 2020 की महामारी में भारत सचमुच अंधेरे का उपमहाद्वीप था। न समझदारी थी, न संवेदना थी और न शर्म, पश्चाताप, खेद व जवाबदेही! इससे भी बड़ी शर्मनाक हकीकत जो  उस त्रासदी को कैसे ऐसे भुलाया गया मानो कुछ हुआ ही नहीं! यही यक्ष प्रश्न है कि भारत का शासक रोता क्यों नहीं है? दिल्ली की सल्तनत से क्यों कभी आंसू नहीं निकलते। मैंने इतिहास में यह प्रसंग कभी नहीं पढ़ा कि 1947 में लोगों की आवाजाही, बरबादी, लूट, कत्लेआम से गांधी, पटेल, नेहरू की आंखों से आंसू आए और उनमें से किसी एक ने भी मानव त्रासदी के लिए अपने को जवाबदेह करार दे माफी मांगी या सत्ता त्यागने का विचार बनाया। न मुगल बादशाह अकाल, महामारी या हिंदुस्तानियों की मानवीय त्रासदी पर पसीजते-आंसू बहाते मिले और न अंग्रेज (तब भी कई बार भयावह अकाल और महामारी) कभी अपने आपको कसूरवार-आंसू बहाते मिले और न आजाद भारत के प्रधानमंत्रियों की आंखें यह सोच गमगीन हुईं कि यह मैंने क्या किया! महामारी, उसका बुरा वक्त लेकिन उसमें भी गुरूर, अहंकार दिखलाने, निष्ठुरता से राजनीति करने, झूठ का नैरेटिव, तो कहां गया हिंदू रामजी की कथा का वह सार कि प्रजा पहले, जो यदि कोई धोबी भी ऊंगली उठाए तो महारानी सीता का निर्वासन होगा। पर सन् 2020 में भारत की प्रजा ने कानून को जुल्मी बताते हुए स्यापा भी किया तो सुनना तो दूर प्रजा को देशद्रोही होने का दुत्कारा मिला। तभी जो हुआ वह भविष्य बरबाद करने वाली महाकाल वर्ष की बबूल खेती है। मुसलमान क्या सोचें, सिख क्या सोचें, गरीब-गुरबा क्या सोचें यदि यह राजा की चिंता नहीं है तो अंततः राजा क्या याद बना अलविदा होगा, इसकी इतिहास में ढेरों दास्तां है। तभी कई मायनों में सन् 2020 का महाकाल भारत के भविष्य की चिंताजनक तस्वीर बना जा रहा है। (जारी)
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