
प्रधानमंत्री मोदी का हिंदुस्तान टाइम्स में आज एक विचारणीय वाक्य मिला। अखबार की खबर के अनुसार 21 अक्टूबर को प्रधानमंत्री ने ‘एक भारत, श्रेष्ठ भारत’ प्रोग्राम में आला अफसरों को संबोधित करते हुए कहा- ‘आपने मेरे पांच साल बरबाद किए हंै, मैं आपको अगले पांच साल बरबाद नहीं करने दूंगा।‘वाक्य गजब है। बरबादी और संकल्प दोनों को बतलाने वाला! अपना पुराना मानना है कि आजादी के बाद से भारत को नौकरशाही चुहों जैसे कुतर-कुतर कर खा रही है। भारत राष्ट्र-राज्य की सभी बीमारियों की जड़ नौकरशाही है। नेहरू, पटेल, मोदी सबने नौकरशाही को घोड़ा मान सवारी की जबकि वह अंग्रेजों से संस्कारित जन्मजात ऐसा खच्चर है जिससे विकास की घुड़सवारी हो ही नहीं सकती है! नरेंद्र मोदी को पिछले पांच सालों में अफसरों ने जितना उल्लू बनाया और बावजूद इसके वे अफसरों पर जैसे निर्भर हंै, वह प्रमाण है कि नौकरशाही का भारत को कैसा श्राप लगा हुआ है!
ताजा प्रमाण बैंकाक में व्यापार की बहुपक्षीय सहमति के आरईसीपी करार से भारत का बाहर होना है! मैं भी समर्थक हूं कि भारत को ऐसी व्यापार संधि में नहीं बंधना चाहिए जिससे हम दिवालिया हो, चीन हमारे बाजार में और छा जाए! मगर यह सिर्फ एक पहलू है। इस पहलू पर नरेंद्र मोदी अपने आपको ‘इंडिया फर्स्ट’,स्वेदशी, मजबूत लीडर, दमदार घुड़सवार आदि चाहे जो कहें लेकिन देश हित और दीर्घकालीन भू-राजनैतिक हितों में यह तो सोचना होगा कि हम अपने आपको पंद्रह देशों से अलग करके दक्षिण-पूर्व एसिया, दक्षिण कोरिया,जापान से आस्ट्रेलिया तक के पूरे हिंद-प्रशांत क्षेत्र को चीन के लिए छोड़ दे रहे हंै तो वह क्या आगे आत्मघाती नहीं होगा?
यह क्यों हुआ? इसलिए कि भारत के अफसरों ने याकि खच्चर घोड़ों ने, उस पर सवार घुड़सवारों ने वक्त रहते नहीं समझा कि 16 देश बैठ कर परस्पर मुक्त व्यापार का जो खांका बना रहे हंै, जो सौदेबाजी कर रहे हैं तो उसे भारत कैसे अपने हित माफिक बनाए! कोई माने या न माने अपना मानना है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल और उनके नीचे के विदेश-वाणिज्य मंत्रालय के खच्चर अफसरों ने महाबलीपुरम में चीन के राष्ट्रपति शी व प्रधानमंत्री मोदी की मुलाकात तक यह गंभीरता से नहीं बूझा कि सौदेबाजी में चीन की कैसी दादागिरी बन रही है और भारत का बेचना कम होगा व खरीदना ज्यादा बनेगा!
हां, ऐसी खबरें रिकार्ड में है कि भारत के वार्ताकार अफसरों ने बहुत लचर सौदेबाजी की। इस तरह की रियायते की, ऐसी एप्रोच अपनाई जो तार्किक नहीं हो सकती। न आयातों के सैलाब को रोकने का बंदोबस्त सोचा न चीन के साथ भिन्नता के पैमाने मंजूर कराए, ओरिजन के नियम बहाने धांधली और 2014 को आधार वर्ष मानने की गलतियां की तो भारत के वार्ताकारों, भारत सरकार ने यह भी नहीं बूझा कि तमाम आसियान देश ग्लोबल सप्लाई चैन का हिस्सा हैं और उन्होंने भारत की तुलना में अपना सिस्टम, अपनी व्यवस्थाएं ऐसी चाकचौबंद बना रखी है जिनसे वे चीन के व्यापार को उसी के अंदाज में, बराबरी से हैंडल कर सकते हैं जबकि भारत अभी भी केवल एक बाजार के रूप में है। भारत ने अपनी सीमाओं याकि विदेशियों से व्यापार की कस्टम आदि व्यवस्था को सुधारने, रेग्यूलेटरी मेकेनिज्म, इंफ्रास्ट्रक्चर को वैश्विक व्यापार की मौजूदा प्रवृतियों, उसमें सावधानियों के अनुसार बना ही नहीं रखा है तो मुक्त व्यापार में घाटा होगा नफा नहीं! बाकि सब बेचने वाले बनेंगे और हम खरीदने वाले!
उस नाते आरसीईपी से भारत का बाहर रहना बला का टलना है! लेकिन अपने पांवों पर कुल्हाड़ी मारना भी है। समझे इस बात को कि हम सवा सौ करोड़ का दुनिया में बढ़ सकना तभी संभव है जब हम दुनिया से व्यापार करें। विकास का आधार है व्यापार! चीन या आसियान देश या योरोपीय देश या अमेरिका और नाफ्टा देश सभी विकास की बुलंदियों पर इसलिए है क्योंकि पड़ोस से परस्पर खुला-आसान व्यापार संभव हुआ। उस नाते आरसीइपी से अलग होना भारत का भविष्य के लिए खाई खोदना है। सोचंे, हम पाकिस्तान के चलते दक्षिण एसिया को मुक्त व्यापार क्षेत्र नहीं बना सकते। यों भी कंगलों-पिछड़ों के परस्पर व्यापार से समद्धी नहीं होती। योरोपीय संघ से मुक्त व्यापार की भारत में हिम्मत नहीं है। योरोप और अमेरिका से साथ दिक्कत है कि उनसे व्यापार शुरू से घाटे का मतलब बेचना कम खरीदना ज्यादा है। फिर दक्षिण अमेरिकी देशों और अफ्रीका महाद्वीप का नंबर आता है तो वे दूर है और उन बाजारों में चीन, योरोप, अमेरिका ने ऐसा दबदबा बना रखा है कि मैड इन इंडिया तो दूर भारत वहा चर्चा तक में नहीं होता।
उस नाते भारत के लिए आदर्श इलाका म्यंमार से शुरू हुआ दक्षिण-पूर्व एसिया, और दक्षिण कोरिया-जापान से ले कर आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड का वह हिंद-प्रशांत क्षेत्र है जो भारत की सुरक्षा, सामरिक-भू राजनैतिक जरूरत में भी अहम है। इसी इलाके के पंद्रह देशों (आसियान के इंडोनेशिया, थाईलैंड, सिंगापुर, मलेशिया, फिलीपीन, विएतनाम, ब्रुनई, कंबोडिया, लाओस और इनसे मुक्त व्यापार का समझौते किए हुए छह देश याकि आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, दक्षिण कोरिया, जापान, चीन) के साथ सबकों एक मुक्त बाजार बनाने वाले आरसीईपी व्यापार समझौते में भारत हिस्सा होने् वाला था। व्यापार के इस ब्लाक का मतलब है 16 देश, वैश्विक जीडीपी का2 5 प्रतिशत हिस्सा और वैश्विक व्यापार का 30 प्रतिशत!
लेकिन अबइस पड़ोसी व्यापार ब्लाक से हम बाहर है! मतलबब्लाक में चीन की एकछत्रता बनेगी। हकीकत है कि जापान के प्रधानमंत्री एबे ने प्रधानमंत्री मोदी से निजी तौर पर आरसीईपी में भारत के रहने का आग्रह इसलिए किया था ताकि चीन पर चैक रहे। आस्ट्रेलिया और आसियान देश भी भारत की उपस्थिति इसलिए चाहते थे ताकि चीन के आगे भारत खड़ा रहे। दक्षिण कोरिया, जापान से ले कर आस्ट्रेलिया सभी चीन से आंशकित हो अपनी भू राजनीतिक चिंता में हिंद-प्रशांत क्षेत्र के गठजोड़ों में भारत की उपस्थिति चाहते हंै और यह खुद भारत के भी भारी हित में है।
बावजूद इसके भारत का फैसला आरसीईपी से बाहर रहने का है। इस व्यापार समझौते की सात साल की सौदेबाजी में पांच साल मोदी सरकार और उनके नौकरशाहो ने काम किया। जापान के प्रधानमंत्री, आसियान देशों के नेताओं, चीन के राष्ट्रपति शी से खुद प्रधानमंत्री मोदी की वार्ताएं हुई। लेकिन अंत नतीजा क्या, प्रधानमंत्री मोदी यह कहते हुए बाहर हुए कि भारत की शर्तों पर आरसीईपी नहीं है तो भारत बाहर!
और हम लोग ताली बजा रहे हंै कि वाह! क्या मर्द नेता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी! सात साल की वार्ता के बाद हम आउट। हिंद-प्रशांत के अपने इलाके की भू राजनीति में चीन विरोधी देशों में भारत से निराशा बनी है और चीन का दबदबा बढ़ा है और हम खुश हंै! यह है भारत राष्ट्र-राज्य! मैं राष्ट्रवादी, स्वदेशी हूं तो दक्षिणपंथी, मुक्त व्यापार समर्थक भी। लेकिन इस बुद्धीहीनता का पक्षधर नहीं कि अमूल, मदर डेयरी याकि भारत के गौपालकों को बचाना है तो न्यूजीलैंड के गौपालकों के दूध और उसकी डेयरी भारत में सस्ता दूध नहीं बेचे। अपना मानना है कि हम सवा सौ करोड़ लोगों की प्राथमिक जरूरत है कि खाने-पीने की चीजे सस्ती, अच्छी और श्रेष्ठता के आधुनिक पैमाने में श्रेष्ठतम हो। कंपीटिशन होगा तो अपनी डेयरियां, अपनी किसानी भी आधुनिक बनेगी।हमें पिछड़ेपन, मिलावटी दूध और आदिम खेती का टापू बन कर नहीं रहना है बल्कि अपने दूध और खेती के लिए आसियान (म्यांमार, लाओस, कंबोडिया आदि) के बाजार खुलने चाहिए!
लेकिन हमारा हतभाग्य जो बकौल नरेंद्र मोदी हकीकत उभरेगी कि ‘आपने मेरे पांच साल बरबाद किए हंै, मैं आपको अगले पांच साल बरबाद नहीं करने दूंगा।‘ और जान ले पांच नहीं बल्कि बहतर साल बरबादी के!
अब ऐसा है तो दोषी क्या खुद नरेंद्र मोदी या भारत के वे प्रधानमंत्री, वे घुड़सवार नहीं है जिन्होंने खच्चर नौकरशाही को घोड़ा समझ भारत को बनाने का अश्वमेघ, घुड़सवार अभियान चलाया? प्रधानमंत्री मोदी को न पांच साल के पहले टर्म में समझ आया और न आरसीईपी व्यापार सौदे से बाहर होने का फैसला करते हुए अब समझ आया है कि व्यवस्था बदले बिना, नौकरशाही को बदले बिना कुछ नहीं हो सकता है। तभी यह भी सवाल है कि उनके पांच साल खच्चरों पर निर्भरता के थे या खच्चरों से मुक्ति के?
इससे भी भारी भयावह सवाल है कि वैश्विक व्यापार में निपट एक अकेले वाली स्थिति में हम विश्व व्यापार करेंगे कैसे? भारत किसी भी मुक्त व्यापारी क्षेत्रिय संधि का हिस्सा नहीं है। हिंद-प्रशांत क्षेत्र के देशों के साथ भारत का आरसीईपी में समरस न हो पाना आने वाले दशकों में भारत के लिए बहुत नुकसानदायी होगा। नरेंद्र मोदी, भाजपा और विपक्ष याकि कांग्रेस, राहुल गांधी ने जैसी टिप्पणीयां, जो अल्पकालिक अंदाज जतलाया है वह बहुत त्रासद और नासमझी वाला है!