महामारीः सरकार क्या कर सकती है?-6 : ईश्वर की, रामजी की कसम खा कर हर हिंदू सोचे कि हमारे आज के नेता और हम खुद ज्यादा साक्षर-समझदार-बुद्धिमना हैं या हमारे पूर्वज मतलब गांधी, नेहरू, लोहिया, जेपी, श्यामा प्रसाद, सावरकर, लाल-बाल-पाल और उनके वक्त के हिंदू अधिक बुद्धिमना और विचारमना थे? आज के रामदेव, श्री-श्री, मुरारी बापू, आसाराम, राम-रहीम आदि धर्म-अध्यात्म-दर्शन, समाज सुधार, बुद्धिमत्ता में भारी हैं या दयानंद सरस्वती, महर्षि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, मालवीय, स्वामी करपात्री आदि अधिक ज्ञानवान-चैतन्य थे? औसत हिंदू को सत्य से साक्षात्कार का तब अधिक अवसर प्राप्त था या आज अधिक है? तब क्या था, अब क्या है? तब चेहरों और चेहरों की बुद्धि में, उस वक्त के अंग्रेज राजा, हाकिमशाही और व्यवस्था के प्रति भारत का नागरिक क्या भाव लिए हुए था और 73 वर्षों के आजाद भारत में आज क्या भाव लिए हुए है? विचार करेंगे तो दिमाग सोचते हुए भन्ना उठेगा कि हम कहां थे, और कहां पहुंच गए हैं!
संदेह नहीं कि 15 अगस्त 1947 के बाद आजादी ने हिंदू को भौतिक तौर पर, अधिकारों के तौर पर, बंदोबस्तों में, माध्यमों में बहुत कुछ दिया है। सत्ता की रेवड़ियां हैं, आरक्षण है, समान अवसर है, जन धन खाते हैं, सर्वव्यापी बिजली, पानी, सड़क, शिक्षा सब है लेकिन बुद्धि, सत्य, संकल्प की चेतनता नहीं है। जो हुआ और जो है वह भारत के सभी प्रधानमंत्रियों की जुबानी, कई बार इन शब्दों में उद्घाटित हुआ है कि मेरा क्या? मैं न खाऊंगा न खाने दूंगा या सत्ता के दलालों सावधान में आ गया हूं।
जाहिर है 15 अगस्त 1947 की आजादी से लेकर अब तक की सामूहिक चेतना में सत्ता अपनी कल्पवृक्ष और कामधेनु हैं और उससे दूध-मलाई जितना दूह सकें वहीं राष्ट्र निर्माण। हजार साल की गुलामी और विदेशियों द्वारा लूटे जाने की प्रतिहिंसा में हिंदू के सभी वर्ण-वर्ग-चरित्र भूखे टूट पड़े हैं सत्ताजन्य कल्पवृक्ष व कामधेनु पर। हर साख पर उल्लू और लंगूर चिल्लपौं करते हुए। काबलियत नहीं है लेकिन साझेदारी चाहिए। प्रतिस्पर्धा नहीं कृपा चाहिए। बुद्धि-विचार-कर्तव्य-सेवा नहीं, बल्कि जिसकी लाठी उसकी भैंस या लूट सके तो लूट अंत समय पछताएगा, जब प्राण जाएंगे छूट के अंदाज और अंधा बांटे रेवड़ी फिर फिर अपने को दे की बंदरबाट में 73 वर्ष जैसे गुजरे हैं उस पर जितना लिखा जाए कम होगा।
अब तो हद है। महामारी के मौजूदा काल में अस्पतालों की, व्यवस्था की अंधेरगर्दी, मनमानी की जब बातें सुनता हूं तो समझ नहीं आता कि हिंदू का आजादी के बाद कैसा हुआ बुद्धि विन्यास! इतना पतन। महामारी को भी मौका मान लूटना और लुटवाना! याद हो आता है ब्रिटेन की संसद में भारत की आजादी पर हुई बहस के वक्त विंस्टन चर्चिल द्वारा आजादी के विरोध में दिया यह तर्क कि भारत को आजाद किया तो ‘पॉवर मुफ्तखोरों, दुर्जनों, कपटियों (Power will go into the hands of rascals, rogues, and freebooters) के हाथों में होगा। और पानी की एक बोतल, रोटी का टुकड़ा भी बिना कराधान के नहीं मिला करेगा।
चर्चिल का कहा भारत में इस मौजूदा सत्य से प्रमाणित है कि वायरस से मरे व्यक्ति की लाश को भी अस्पताल या नगरपालिका के कारिंदे शुकराना, नजराना ले कर फूंक रहे हैं। ऐसी हृदयविदारक, दिल दहलाने वाली बातें सुनने को मिलती हैं कि समझ नहीं आता हिंदू बुद्धि में कैसे ऐसा आत्मघाती, निर्दयी, भूखा वायरस प्रसारित हुआ है।
उफ! धाराप्रवाह लिखते-लिखते यह कैसा कटु सत्य। बावजूद इसके हिंदू दिमाग की तंत्रिकाएं हकीकत से न हिलेंगी, न सत्य को एक्सेप्ट करेंगी। दिमाग जब झूठ, गुलामी के वायरस से कूट-कूट कर भरा है तो कौम इस विवेक को लिए हुए हो ही नहीं सकती कि क्या सत्य है और क्या झूठ! हर सत्य के आगे झूठ प्रतिपादित है। हर हकीकत पर नियति का यह रोना है कि वायरस वाली लाश को फूंकने को यदि किसी ने अवसर बनाया है तो हम क्या कर सकते हैं! सरकार क्या कर सकती है!
दरअसल हिंदू दिमाग की तंत्रिकाएं स्वयंस्फूर्त निडरता में न फड़कती हैं, न रिएक्ट होती हैं। वे बात-अनुभव-व्यवहार को खौफ, सामर्थ्य, चिंता में तौलती हैं और फिर मध्य मार्ग से सुने, अनसुने, देखी-अनदेखी, क्रिया-प्रतिक्रिया में मुर्दा कौम की तरह आया-गया होने देती हैं।
उस नाते महामारी का वक्त मुर्दा बनाम जिंदा कौम के फर्क का भी आईना है। इससे हमारी बुद्धि, डीएनए का सत्य उद्घाटित है। कुछ दिन पहले मुझे 20 दिन अस्पताल में रहे और पोस्ट-कोविड सावधानी में 120 दिन घर में रहने का निश्चय किए हुए सुनील का फोन आया कि उन्हें अति आवश्यक काम से सीए के यहां जाना पड़ा तो देख आश्चर्य हुआ सड़क पर लोग बिना मास्क ऐसे घूम रहे हैं मानो महामारी नहीं है! जाहिर है अस्पताल-संक्रमण के भुक्तभोगी और वायरस से अछूते व्यक्ति की समझ व चेतना में फर्क है। जिसने भुगता वह जाग्रत है और जो बचा हुआ है वह सोया हुआ है।
इस बात को वैश्विक पैमाने में कनवर्ट करें, तौलें तो भारत बनाम बाकी देशों, मुर्दा बनाम जिंदा कौम का फर्क मालूम होगा। भारत कैसा है, भारत के लोग कैसे हैं यह कोरोना काल में सड़कों की भीड़, अस्पतालों के व्यवहार, अखबार-टीवी चैनलों की सुर्खियों से मालूम होगा। सरकार की प्राथमिकता, उसके व्यवहार से मालूम होगा। कहने को सरकार चिंता में है लेकिन भगवान भरोसे। न औसत नागरिक समझने को तैयार है और न देश की सरकार। दोनों के पास सपाट तर्क हैं हम कर क्या सकते हैं! या यह कि इतना तो कर डाल रहे हैं! हिसाब से देश पर जो विपदाएं हैं उसमें सबको महामृत्युंजय जाप करते हुए होना चाहिए। मतलब वायरस के खिलाफ कमर कस लोग अपने को बचाएं तो सरकार से जवाब तलब करें कि वह कैसे लोगों की जान से खेल रही है। कैसे इस तरह के झूठ से बहला रही है कि जितने संक्रमित हो रहे हैं उतने ठीक हो रहे हैं।
सोचें कितने और कैसे विकट संकट में हैं आज देश। लगेगा महामारी से बड़ा दूसरा संकट नहीं है। दिवाला निकलने से बड़ा दूसरा संकट नहीं है। दुश्मन चीन के छाती पर बैठने से बड़ा संकट नहीं है। बावजूद इसके सरकार और देश के लोग किन हेडलाइंस से मैनेज हैं, लोग किन बातों में बहले-मूर्ख बने हुए हैं? तो जवाब में सुशांत-रिया-कंगना की बॉलीवुड किस्सागोई में।
क्या यह राष्ट्र-राज्य की, राष्ट्र के लोगों की मानसिक अपंगता का प्रमाण नहीं है? कई लोग सोचते है इसमें सरकार की धूर्तता, चालाकी, होशियारी है जो ऐसा नैरेटिव, हल्ला बनाए हुए है। मैं इसे सरकार की मानसिक अपंगता, नासमझी, मूर्खता मानता हूं। इसलिए कि भला इसका अंत परिणाम क्या होना है? जब लोग मर रहे है, बीमार हो रहे है, आर्थिकी का दिवाला निकल रहा है, व्यवस्था जर्जर हो रही है, दुश्मन सीमा में घुस देश की बहादुरी को पंचर कर रहा हो तो भटकाने, बहलाने, फुसलाने की बॉलीवुडी किस्सागोई के प्रपंच, हेडलाइन मैनेजमेंट का अर्थ मानसिक अपंगता की जग हंसाई है। सचमुच दुनिया हंस रही है। दो साल बाद आप देखिएगा कि दुनिया में हमारी मानसिक अपंगता के कैसे और क्या किस्से चले हुए होंगे और हम खुद किस अवस्था में होंगे। (जारी)
आजादी बाद उलटे निरक्षरता और भक्ति!
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