बेबाक विचार

भोले हिंदू नेता, शेख को बनाया शेर!

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भोले हिंदू नेता, शेख को बनाया शेर!
Truth of-Kashmir Valley कश्मीर घाटी का सत्य-6:  शेख अब्दुल्ला शेर-ए-कश्मीर कहलाए। क्यों? इसका अधिकारिक खुलासा नहीं है। तथ्य है न उनके कारण राजशाही खत्म हुई और न वे और उनके कार्यकर्ता पाकिस्तानी हमलावरों को ललकारने, कबाईलियों को रोकने जैसी बहादुरी की दास्तां लिए हुए हैं। अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद एक आरटीआई में जब शेर-ए-कश्मीर टाइटल में ‘शेर-ए-कश्मीर पुलिस मैडल फॉर गैलेंट्री’ जैसे पुरस्कारों पर सवाल हुआ तो प्रशासन का जवाब था यह लोकभावना में था। जैसे गांधी के आगे राष्ट्रपिता और जिन्ना के आगे कायदे-ए-आजम वैसे ही उस वक्त के शेख अब्दुल्ला ने अपनी और अपने साथ कश्मीर की पहचान में यह जुमला चलवाया। उन्हें गांधी, नेहरू और भारत ने कश्मीर का पर्याय बनाया। जैसा मैं पहले लिख चुका हूं शेख के सामंतशाही विरोधी आंदोलन, मूलतः कश्मीरी पंडित वंशज (शेख अब्दुल्ला ने ही बताया है कि अफगान बादशाह के वक्त उनके पूर्वज, जो कश्मीरी पंडित थे उन्होंने इस्लाम अपना कर उनका शेख मुहम्मद अब्दुल्ला नाम रखा) की साझी विरासत व छह फुट चार इंच लंबी कदकाठी के भव्य व्यक्तित्व और उर्दू-कश्मीरी जुबान से नेहरू उनसे प्रभावित थे। नेहरू ने अपने पूर्वजों की घाटी में शेख अब्दुल्ला को सन् 1931 से ही दिल-दिमाग में बतौर जननायक पैठा लिया था। उन्हीं से फिर शेख की सेकुलर, जननेता की छाप गांधी के यहां बनी। कश्मीर घाटी का सत्य-6 जम्मू में था रक्तपात न कि घाटी में! यह सच्चाई को झुठलाते हुए था। जैसा मैं पहले लिख चुका हूं कि शेख क्या थे, कैसी उनकी शिक्षा-दीक्षा थी, और हिंदू महाराजा के खिलाफ घाटी में मुसलमानों की ‘मुस्लिम कांफ्रेंस’ का गठन उनकी बुनावट का अपने आप खुलासा था। लेकिन पंडित नेहरू ने सच्चाई नहीं समझी। उन पर भरोसा किया, समर्थन दिया और वे शेर-ए-कश्मीर बने। ठीक विपरीत महाराजा शेख की असलियत समझते थे। महाराजा ने उन्हें जेल में डाला तो नेहरू-कांग्रेस ने शेख को शह दी। इससे महाराजा व कांग्रेस में परस्पर अविश्वास बना। विलय में देरी हुई। पाकिस्तान को मौका मिला। अंतरराष्ट्रीय विवाद बना। शेख पर नेहरू इतने मेहरबान थे कि ज्योंहि महाराजा ने विलय किया तो शेख अब्दुल्ला को रियासत का प्रशासक बनवाया। उनसे संयुक्त राष्ट्र में भाषण कराया। उन्हें दुनिया के आगे बतौर मुसमलानों का एकाधिकारी नेता स्थापित किया। उन्हें हर संभव ताकत दी। Kashmir कश्मीर घाटी का सत्य-5:  नेहरू ही नहीं सभी हिंदू दोषी! क्यों? जवाब में एक जनवरी 1952 को तब के कलकत्ता की आमसभा में पंडित नेहरू के भाषण की इन लाइनों पर गौर करें, ’शेख अब्दुल्ला ही हैं, जिन्होंने पाकिस्तान का पूरा विरोध किया। संदेह नहीं कि वे ही कश्मीरी लोगों के नेता हैं, महान नेता हैं। यदि कल शेख अब्दुल्ला चाहें कि कश्मीर पाकिस्तान में मिले तो न मैं रोक सकता हूं और न भारत की पूरी ताकत ऐसा होने से रोक सकती है। नेता जो तय करता है वहीं होता है’। …..अब जरा शेख अब्दुल्ला की आतिश-ए-चिनार में उनके इस संस्मरण पर गौर करें, ‘एक दफा बात-बात में नेहरू ने जोश में कहा, शेख साहेब, यदि आप हमारे साथ कंधे से कंधा लगा खड़े नहीं रहे तो हम आपके गले में सोने की जंजीर डालेंगे। शेख ने उनकी और देखा और मुस्कराते हुए कहा, ऐसा मत करना अन्यथा कश्मीर से हाथ धो बैठोगे’। दोनों की जुबानी इन वाक्यों से बूझें कि नेहरू के दिमाग में शेख 1948 के हालातों में और हावी थे क्योंकि कश्मीर का संकट उनके चेहरे से सुलटने का ख्याल था। उधर शेख अब्दुल्ला अपने-आपको बड़ा और निर्णायक समझ बैठे थे! दोनों का ऐसा सोचना खामोख्याली वाला था। कैसे? kashmir कश्मीर घाटी का सत्य-4: उफ! ऐसा इतिहास, कैसे क्या? जवाब के लिए 1946-48 में हुई रियासत राजनीति पर गौर करें। 1944 में शेख अब्दुल्ला ने ‘नए कश्मीर’ का घोषणापत्र बनाया। लेकिन न घाटी में हलचल हुई और न महाराजा ने शेख की बातों को अहमियत दी। 1944 में शेख अब्दुल्ला ने ‘महाराजा कश्मीर छोड़ो’ का आंदोलन छेड़ा तो महाराजा ने उन्हें जेल में डाला। उन्हें छुड़ाने और उनकी वकालत के लिए नेहरू पहुंचे तो राजा ने उन्हें रियासत की सीमा से लौटा दिया। 1944 से सितंबर 1947 के तीन निर्णायक वर्षों में शेख अब्दुल्ला महाराजा की जेल में थे। उनकी रिहाई के लिए न घाटी में और न जम्मू के मुसलमानों में आंदोलन होने की कोई वह सुर्खी है जो तब की टाइमलाईन में मिले। अकेले नेहरू उनको छुड़वाने की कोशिश करते हुए थे। जाहिर है विलयपत्र पर महाराजा के दस्तखत, जम्मू में पुंछी मुस्लिम बगावत, कबाईलियों की घुसपैठ और उन्हें भारतीय सेना द्वारा खदेड़े जाने की घटनाएं बिना शेख अब्दुल्ला के थीं। शेख अब्दुल्ला का रोल बाद में तभी बना जब भारत की कैबिनेट द्वारा विलय मंजूर हुआ और महाराजा से उन्हे आपातकालीन प्रशासन का प्रशासक बनाया गया। तब प्रोफाइल बनना शुरू हुआ। उनकी सत्ता में निरंतरता बनी। कह सकते हैं बाद में संयुक्त राष्ट्र में, विश्व बिरादरी में भारत का प्रचार था कि शेख अब्दुल्ला का चेहरा देखो और विश्वास रखो कि मुसलमान भारत में रहना चाहते हैं। मतलब बतौर तुरूप शेख अब्दुल्ला उपयोगी थे। मगर यह उपयोग, इसकी जरूरत प्रधानमंत्री नेहरू और कैबिनेट की गलतियों से थी। नेहरू न माउंटबेटन की सलाह मानते, न मसले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाते और न जनता की इच्छा याकि जनमत संग्रह का गांधी बीज मंत्र लेते तो मसले का अंतरराष्ट्रीकरण कतई नहीं होता। Kashmir article 370 कश्मीर घाटी का सत्य-3: सत्य भयावह और झांकें गरेबां! कह सकते हैं जूनागढ़, हैदराबाद और जम्मू कश्मीर तीनों के राजा भारत में विलय पर ना नुकुर करते हुए थे तो शेख अब्दुल्ला परिस्थितियों से भारत की जरूरत थे। ध्यान रहे विभाजन योजना में माउंटबेटन याकि अंग्रेजों ने राजा के निर्णय और भौगोलिक जुड़ाव को रियासतों की कसौटी बनाई थी। तब आबादी, इलाके और स्वतंत्र देश बन सकने वाली प्रशासनिक व्यवस्था से पटेल हैदराबाद को ले कर ज्यादा चिंता में थे। उस नाते वहां के लोगों (बहुसंख्यक हिंदू) की इच्छा का तुरूप कार्ड बनता था। लेकिन पहले अचानक जूनागढ़ का संकट आया। नवाब ने 15 अगस्त 1947 को पाकिस्तान में जूनागढ़ के विलय की घोषणा की। इससे चूहे-बिल्ली का खेल शुरू हुआ। मोहम्मद अली जिन्ना ने शातिरता दिखाई। विलय को लटकाए रखा। ऐसा इसलिए ताकि नेहरू मुस्लिम शासक के नीचे बहुसंख्यक हिंदू आबादी का तर्क रखें तो पाकिस्तान लपक कर उसी बात को जम्मू कश्मीर में फिट करे। एक महीने बाद 16 सितंबर को पाकिस्तान ने जूनागढ़ के विलय को मानने की घोषणा की। तब पटेल ने जनता (हिंदू) से फैसले की बात कही। वह पाकिस्तानी जाल में फंसना था। वह पटेल की जल्दबाजी थी। शायद इसलिए कि कैबिनेट में नेहरू ने भरोसा बना रखा था कि शेख अब्दुल्ला को जेल से छुड़ा कर रियासत की बागडोर देंगे तो जनमत संग्रह में मुसलमान भारत का पक्ष लेंगे। तभी 30 सितंबर को भारत की सर्वदलीय कैबिनेट में रियासतों के विवाद में जनमत संग्रह के तरीके पर विचार हुआ और मंजूरी मिली। सवाल है जनता की राय व जनमत संग्रह का बीज किसका था? मूलतः महात्मा गांधी का। 31 जुलाई से दो अगस्त 1947 को गांधी की जम्मू, श्रीनगर यात्रा हुई। वे नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ताओं और किशोरीलाल सेठी की देखरेख व आवभगत में थे। यात्रा से पूर्व 29 जुलाई 1947 को उन्होंने प्रार्थना सभा में कहा, ‘मैं वहां महाराजा को यह कहने नहीं जा रहा हूं कि वे भारत में विलय कराएं न कि पाकिस्तान में। असली सार्वभौम प्रदेश की जनता है। कश्मीर की सत्ता जनता की है। उन्हें फैसला करने दें कि वे क्या चाहते हैं...जो होगा वह कश्मीर के लोगों से होगा’। एक अगस्त 1947 को गांधी श्रीनगर पहुंचे तो महाराजा हरिसिंह के प्रधानमंत्री रामचंद्र काक के सचिव ने उनको सीलबंद पत्र दिया। उससे पहले दिल्ली में नेहरू ने गांधी को ब्रीफ कर रखा था कि काक महाराजा के बहुत विश्वसनीय हैं। वे ही शेख अब्दुल्ला को जेल में बंद रखवाने वाले हैं। इस बैकग्राउंड में श्रीनगर में नेशनल कांफ्रेंस के कार्यकर्ताओं के बीच, उनकी जुटाई भीड़ में शेर-ए-कश्मीर शेख अब्दुल्ला की रिहाई और प्रधानमंत्री काक को तुरंत हटाने के गांधी के आगे नारे लगे (वह शायद पहला प्रायोजित वाकया था, जिससे शेर-ए-कश्मीर का जुमला चर्चा में आया)। गांधी ने सुना और कहा, मैं सियासी मिशन में नहीं आया हूं। उनसे पूछा गया आजादी के बाद कश्मीर में क्या होगा तो जवाब था, ‘वहीं होगा जो आप लोग चाहेंगे। कश्मीर के लोग चाहेंगे’। तीन महीने बाद भारतीय सेना के मोर्चा संभालने पर 27 अक्टूबर 1947 को गांधी का वापस कहना था, ‘कश्मीर में लोकप्रिय शासन बनना चाहिए। ऐसे ही हैदराबाद, जूनागढ़ में हो। असली शासक जनता है। यदि कश्मीर के लोग पाकिस्तान में शामिल होना चाहते हैं तो पृथ्वी की कोई ताकत ऐसा होने देने से रोक नहीं सकती। मगर उन्हें स्वतंत्र रहने देकर अपना फैसला खुद करने देना चाहिए’। कश्मीर घाटी का सत्य-2: साझा खत्म, हिंदू लुप्त! सो, गांधी का बीज मंत्र दो टूक। यही नहीं श्रीनगर में उन्होंने शेख अब्दुल्ला की कथित लोकप्रियता (शेख की पार्टी के प्रायोजित जलसों से) पर भी ठप्पा लगाया। अगस्त के पहले सप्ताह में श्रीनगर में जब महात्मा गांधी जनता की राय का तरीका बता चुके थे तो बूझा जा सकता है कि नेहरू, पटेल में स्वाभाविक तौर पर जनता का फैसला, जनमत संग्रह का बीज गांधी के कहने से कुनमुनाया। इस तरीके पर 30 सितंबर 1947 को कैबिनेट में मोहर लगी। उसी दिन माउंटबेटन की मौजूदगी में पंडित नेहरू ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाकत अली से जूनागढ़ के पाकिस्तान में विलय पर आपत्ति करते हुए कहा भारत तैयार है जूनागढ़ में आम चुनाव, जनमत संग्रह या रायशुमारी के नतीजे को मानने के लिए। सरदार पटेल चुप रहे। माउंटबेटन ने नेहरू के कहे को पकड़ लियाकत अली से कहा हां, यदि जरूरत हुई तो नेहरू दूसरी रियासतों में भी इस सिद्धांत को एप्लाई करेंगे। उस क्षण का जिक्र करते हुए माउंटबेटन ने बाद में लिखा, ‘दुर्भाग्य से पंडित नेहरू ने गर्दन हिलाई और लियाकत अली की आंखें चमक उठीं। कोई संदेह नहीं तब दोनों के दिमाग में कश्मीर था’। (Pandit Nehru nodded his head sadly. Mr Liaqat Ali Khan’s eyes sparkled. There is no doubt that both of them were thinking of Kashmir.)। कश्मीर घाटी का सत्य-1  घाटी: इस्लाम का कलंक नहीं तो क्या? और कश्मीर में जनमत संग्रह के आइडिया में फिर दारोमदार की मजबूरी में हीरो किसे बनाना था? शेख अब्दुल्ला को! तभी शेख अब्दुल्ला शेरे-ए-कश्मीर बनते गए और पांच साल बाद यह शेर भारत राष्ट्र-राज्य को, पंडित नेहरू को भस्मासुर समझ आया। उन्हें बरखास्त कर जेल में डाला गया। मगर हां, उससे पहले शेख अब्दुल्ला का घाटी में खेला कम नहीं था। (जारी)
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