बेबाक विचार

अखिलेश न बनाएं ‘भौकाल’!

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अखिलेश न बनाएं ‘भौकाल’!
यूपी में दीये और तूफान की लड़ाई-1 : अखिलेश यादव वहीं गलती करते हुए हैं, जो तेजस्वी यादव ने बिहार में की। अखिलेश को भला कोविड काल में क्यों लखनऊ के पार्टी दफ्तर में भीड़ इकठ्ठा होने देना था? क्यों स्वामी प्रसाद मौर्य का बड़बोलापन प्रचारित करवाना था? क्या वे अखिलेश के लिए किंगमेकरहैं? क्या यूपी में चुनाव अगड़ा बनाम पिछड़ा, 80 बनाम 20 फीसदी की लड़ाई है? क्या अखिलेश जात राजनीति से, पिछड़े नेताओं के बड़बोले भौकाल से नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ को चुनाव हरा देंगे? Up assembly election नहीं, कतई नहीं! अखिलेश यादव नोट रखें कि वे भौकाल और हवा से मोदी-योगी को चुनाव नहीं हरा सकते हैं। उलटे नरेंद्र मोदी-अमित शाह अधिक सर्तक, अधिक मारक बनेंगे। अखिलेश की ताकत उनका दीयाहोना है। चुनाव में वे दीये वाली हैसियत और पुण्यता लिए हुए हैं। दीये के रूप में वे लोगों में जो विकल्प बने हैं तो उसी के विश्वास में उन्हें लोगों के मन को छूते रहना चाहिए। अखिलेश महागलती करेंगे यदि उन्होंने चंद दलबदलुओं से हवा बनने या बनाने का फितूर पाल उत्तर प्रदेश में कैंपेन किया। वे नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ को कम न आंके। वे चुनावी हवा-सुनामी बनाने में मोदी-शाह के आगे कहीं नहीं टिकते हैं। वे जितना भौकाल बनाएंगे उतना अधिक मोदी-शाह का निश्चय बनेगा। उनके साम-दाम-दंड-भेद बढ़ेंगे। बारीकी से सोचें कि चुनावी मुकाबले में अखिलेश यादव का विपक्ष का प्रतिनिधि चेहरा बन सकना कैसे हुआ? क्योंकर अपने आप योगी बनाम अखिलेश के मुकाबले की धारणा बनी? इस कारण कि जमीनी सत्य में या लोगों के आम अनुभव से विकल्प पर विचार है। अपना मानना है कि यूपी का चुनाव इसलिए दीये बनाम तूफान की लड़ाई है क्योंकि जनता बेचारी सचमुच भुक्तभोगी है। वह पांच सालों का वह जमीनी अनुभव लिए हुए है, जिसमें न उसे उसकी कोई चिंता करता मिला और न कहीं सुनवाई हुई। किसी भी जात का कोई भी मतदाता हो, किसी भी पार्टी का कोई एमएलए, एमपी, नेता हो वह पांच सालों से मन ही मन इस अनुभव के साथ है कि योगी आदित्यनाथ और नरेंद्र मोदी ने उनकी चिंता नहीं की। न चिंता हुई और न सुनवाई। लोग कोरोना में मरे तो मरे मगर कोई पूछने वाला नहीं था, बल्कि सीएम-पीएम झूठ बोलते सुनाई दिए थे। लोगों को रोजी-रोटी के लाले पड़े हैं तब भी सीएम-पीएम में न चिंता और न तकलीफ की सुनवाई। न एमएलए काम करवा सकता और न एमपी। घर का विकास नहीं, घर में बेहाली लेकिन प्रदेश-देश के विकास की झांकी का प्रोपेगेंडा जले पर नमक छिड़कते हुए। उत्तर प्रदेश के राजनीतिक जीवन और जनजीवन की शिकायत का लब्बोलुआब सिर्फ यह एक वाक्य है कि योगी ने किसी की परवाह नहीं की। किसी का लिहाज नहीं रखा। न चिंता करना, न सुनना। न सुनवाई और न संवेदना। योगी सरकार ने चाहे जितना, अथाह विज्ञापन, प्रोपेगेंडा कराया मगर वह सब कथित विकास की झांकी का वह हल्ला था, जिसमें घर-परिवार में लोगों के जीवन, उनकी तकलीफों-दुख-खराब-महामारी समय और मौत के वक्त में संवेदना के दो आंसू भी नहीं थे। इसलिए उत्तर प्रदेश में अपने आप लोग योगी के चेहरे पर ज्यादा सोचते हुए हैं। योगी का क्या व्यवहार है? योगी से क्या मिला? अपमान या सम्मान? मुख्यमंत्री किसका भला करता हुआ? किसकी चिंता करता हुआ? वह सरकार किस काम की, जो न चिंता करती है और न सुनती है? इन्ही सवालों में भाजपा के ही विधायकों ने योगी आदित्यनाथ के चेहरे पर सर्वाधिक सोचा होगा! तभी योगी के मंत्री या एमएलए अपनी अनदेखी, अपने अपमान, अपनी सुनवाई के कारण भी भाजपा छोड़ते हुए हैं। विधायक और उनकी जात या वोट सब समभाव दिमाग में यह ख्याल बनाए हुए हैं कि योगी राज में जो अनदेखी, जो अपमान, हिकारत और असंवेदनशीलता मिली उससे जैसे भी हो छुटकारा मिले! इस तरह सोचता हुआ जाट है तो ब्राह्मण और दलित है तो पिछड़ी जातियां भी है। मतलब योगी ने अनचाहे-अनजाने में अपना गूंगा-बहरा-काना जो राज बनाया और विधायकों से लेकर आम जनता ने महामारी काल में जो अनुभव किया तो वह सर्वव्यापी-सर्वजनीय फैलाव लिए हुए है। इस बात को इस तथ्य से भी बूझ सकते हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने अफसर एके शर्मा का नौकरी से इस्तीफा करवा कर उन्हें यूपी में विधायक क्यों बनवाया? एके शर्मा को योगी सरकार में बैठाने की बात थी ताकि योगी राज संवेदनशील बने। स्वाभाविक बात जो उससे योगी की हैसियत घटती, उन्हें खतरा लगता। तभी योगी ने मोदी की नहीं सुनी और एके शर्मा को वह अनुभव हुआ जो पांच सालों में कई मंत्रियों, अफसरों, लोगों याकि यूपी में जातियों का भी है। Up assembly election Read also भारत की चीन नीति: आखिर चीन की उलझन क्या? तभी ज्यों-ज्यों चुनाव निकट आते गए तो एक तरफ दिल्ली में नरेंद्र मोदी चिंता करते हुए थे वही दूसरी और उत्तर प्रदेश के आम जीवन में योगी के चेहरे के विकल्प में अखिलेश के दीये पर फोकस बनना शुरू हुआ। अपने आप माना जाने लगा कि अखिलेश विकल्प का अकेला चेहरा हैं। लोग मानने लगे कि मायावती अपने डर से केंद्र सरकार के आगे समर्पित हैं तो कांग्रेस में दम नहीं। तभी नेचुरल अंदाज में अगड़े-पिछड़े-मुसलमान-दलित में वे सब अखिलेश के दीये से उम्मीद करते हुए हैं, जिन्हें मान-सम्मान-इंसानी संवेदना की रोशनी चाहिए। ध्यान रहे समाजवादी पार्टी में शामिल होने के शुरुआती चेहरे ब्राह्मण विधायकों के है तो पिछड़े मंत्रियों-विधायकों का सपा की सराय में जमा होना संभवतया इनके चुनाव क्षेत्रों में जातियों के दबाव का नतीजा है। सो, जो है वह जमीन की सच्चाई, अनुभव से है। फालतू बात है कि धर्म की राजनीति के ऊपर जातीय समीकरण हावी हो रहे है, उससे चुनाव में जीत-हार होगी। इस तरह का हल्ला अखिलेश यादव को भटकाने वाला है। जनता के बीच यादवों का भौकाल बनवाने वाला है। वैसे ही जैसे बिहार में तेजस्वी यादव के साथ हुआ। तेजस्वी ने भी ऐन वक्त राजनीति में ऐसा हल्ला बनवाया, ऐसी हवा बनाई मानो पूरा चुनाव जात समीकरण पर होगा। यादव-मुसलमान वोकल-भौकल हो गए। गांव-चौपाल में यादवों का हल्ला बना और बाकी जातियां खासकर अगड़े बिदक गए। मोदी-शाह का मनाचाहा हुआ और बिहार में वापस अलोकप्रिय नीतीश की सरकार बन गई। सोचें, शुक्रवार को लखनऊ के सपा दफ्तर की लाल टोपी भीड़ में स्वामी प्रसाद मौर्य ने जैसा भाषण दिया और 85 प्रतिशत अपने वोटों की जो हवाबाजी की वह यदि तीन मार्च तक उत्तर प्रदेश में जातीय राजनीति की हवा में तब्दील रहे तो उसकी सवारी से अखिलेश क्या मोदी-शाह को हरा सकेंगे? कतई नहीं। इसलिए कि तब घर-घर भाजपा यह नैरेटिव बनवा देगी कि देखो यादव और मुसलमान कैसे चौड़ी छाती घूम रहे हैं। लौट आएगा गुंडा राज, जातियों का जंगल राज! अखिलेश यादव दीये की लड़ाई वाला पुण्य जनता में गंवा बैठेंगे यदि स्वामी प्रसाद मौर्य, ओमप्रकाश राजभर आदि चेहरे उनके कैंपेन में वोकल हुए। यदि इनसे चुनाव जीतने की हवा, उसका भौकाल बना। ठीक बात है कि मनोबल के लिए हवा कुछ बननी चाहिए। लेकिन जब बिना हल्ला, बिना आक्रामकता के अखिलेश यादव अपने आप जनता में विचारणीय होते हुए हैं, खुद नेता नीचे के दबाव से जुड़ते, हौसला पाते हुए हैं तो वह मौन ताकत ही ठोस व टिकाऊ है। उसे भौकाल में जाया नहीं होने देना चाहिए। मोदी-शाह-योगी को चौकन्ना, आक्रामक होने का मौका नहीं देना चाहिए। इसलिए कि हवा, सुनामी और भौकाल के साधन मोदी-शाह-योगी के पास जितने और जैसे है उसमें अखिलेश और विपक्ष का बूता जीरो है। तब अखिलेश क्या करें? इस पर कल।
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