वाराणसी। बनारस प्रधानमंत्री, गृहमंत्री जैसे दिग्गजों से सनसनाया हुआ है। काशी चर्चाओं से गुलजार है। चौतरफा ट्रैफिक की आवाज में गूंजता और वीवीआईपी हल्ला लिए हुए शहर। काशी की पुण्य भूमि में फिलहाल विश्वास और आस्था की जगह सियासी नौटंकियों व एजेंडं की गूंज है। हडकंप बना है इन सवालों से कि वैश्विक संकट के बीच में भला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पूरे दो दिन क्यों वाराणसी में रहेंगे? क्या काशी कॉरिडोर वाली शहर दक्षिण सीट भाजपा हार रही है? क्या नरेंद्र मोदी का लोकसभा क्षेत्र भी सुरक्षित नहीं है? क्यों वाराणसी दक्षिण की सीट के भाजपा विधायक ने जनता से माफ करने की विनती का वीडियो जारी कर एक और मौका देने की सार्वजनिक विनती की? Modi rallies in Banaras
मगर लोग अविचलित और बेरूखी से रोजमर्रा की जिंदगी जीते हुए है। कोई उत्साह नहीं। शायद लोगों की उदासनीनता और बेरूखी को तोड़ने के लिए ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और भाजपा का पूरा तंत्र तमाम संसाधनों के साथ मिशन बनाए हुए है कि वाराणसी की एक भी सीट हारी तो वह प्रधानमंत्री की हार होगी। वाराणसी में हार से पूरे देश में प्रतिष्ठा को नुकसान।
अयोध्या जैसा ही मसला है। यूपी का चुनाव आखिरी चरण में काशी में नरेंद्र मोदी की प्रतिष्ठा व साख की लडाई का हो गया है। कुछ भी हो वाराणसी की सभी सीटों पर सन् 2017 जैसी जीत होनी चाहिए और खासकर दक्षिण की उस सीट पर जिसमें काशी कॉरिडोर है। इसलिए नरेंद्र मोदी खुद काशी में डेरा डाल बैठे है।
शहर, दक्षिण की सीट पर मौजूदा मंत्री-विधायक डा नीलकंठ तिवारी, वापिस भाजपा उम्मीदवार है। दो मार्च को पीएम के काशी पहुंचने से पहले उन्होने एक वीडियो जारी किया। हाथ जोड कर अपनी गलतियों के लिए लोगों से माफी मांगी। क्यों?
जात से माझी विजय सैनी ने कहां- ‘किया था पिछली बार वोट, अब नहीं करेंगे।‘ पर्यटकों का गंगा घूमा कर रोजीरोटी कमाने वाले विजय का कहा बिना लाग-लपेट के था। क्यों? उसका जवाब था- कोविड़ में यहां कितना बुरा हो गया था…हमने देखा गंगा कितनी बेहाल हो गई थी, और सरकार क्या कर रही थी… सब कुछ दबा रही थी।
सैनी और उसके लोगों (जात) ने कसम खाई हुई है कि इस बार समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार किशन दीक्षित को वोट देंगे। सही में कई कारणों से भाजपा के डा नीलकंठ तिवारी लोगों की नाराजगी के मारे है। कुछ लोग सन् 2017 में भाजपा हाईकमान द्वारा श्यामदेव राय चौधरी का टिकट काटने की नाराजगी अभी भी पाले हुए है। सीट के एक मतदाता हरीश पांडे ने कहां- ‘तिवारीजी तो कभी इस तरफ दिखे ही नहीं, जबकि चौधरीजी हमेशा लोगों के साथ होते थे।‘
मगर यह तो प्रधानमंत्री का अपना इलाका है?
‘वो है… पर वो प्रधानमंत्री है, हमारी समस्या तो हमारा लोकल नेता हैंडल करेगा ना.”
सचमुच हर तरफ भाजपा के मौजूदा विधायकों के खिलाफ लोगों में एंटी-इनकंबेसी, नाराजगी कम-ज्यादा अनुपात में है। प्रधानमंत्री का लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र अपवाद नहीं है। सभी आठ विधानसभा सीटों पर वैसी गूंज कतई नहीं है जैसे सन् 2017 में नरेंद्र मोदी के एक दौरे से बन जाया करती थी। मामूली बात नहीं दो प्रधानमंत्री मोदी ने चुनाव घोषणा से पहले और बाद में वाराणसी के एक के बाद एक चक्कर लगाएं। काशी में रात गुजारी और वापिस मतदान से पहले गुजारेंगे।
महानगर की आठों सीटों में जात समीकरण की गणित और भाजपा के मौजूदा विधायकों से लोगों की केमैस्ट्री के अलावा भाजपा बनाम सपा के सीधे मुकाबले से भी मोदी-भाजपा की प्रतिष्ठा की नंबर एक सीट काशी कॉरिडोर वाली शहर दक्षिणी सीट है। दोनो तरफ ब्राह्मण उम्मीदवार होने से ब्राह्मणों में यदि 25-30 प्रतिशत भी समाजवादी पार्टी के दीक्षित को मिले तो मुसलमान, यादव से लेकर बंगाली (ब्राह्यण-बंगाली वोटों की वजह से ही ममता बनर्जी वाराणसी में है।) और पिछडी जातियों के कम-ज्यादा वोटों की पलटी काशी कॉरिडोर में मोदी के जादू को खत्म करते हुए होगी। इसके बाद शहर उत्तरी, शिवपुर, वाराणसी कैंट में कांटे की लडाई का हल्ला जातिय समीकरण और एकमुश्त मुस्लिम वोटों के चलते है। शहर की कोर सीटों में जब ये हाल है तो इर्दगिर्द की राजभर, कुर्मी, दलित, पिछडी जातियों, मुस्लिम के वोट लिए रोहनिया, सेवापुरी, पिंडरा, अजगरा (सुरक्षित) सीटों पर भी भाजपा को मेहनत करनी पड़ रही है।
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इसलिए नरेंद्र मोदी, अमित शाह, योगी आदित्यनाथ सभी आ डटे है। ऐसे ताकत झौके जाने से ही भाजपा कार्यकर्ता और समर्थक अति आत्मविश्वास में माने बैठे है कि पार्टी एक भी सीट नहीं हार रही।
ऐसा लोगों में नहीं माना जा रहा है। गंगा किनारे छोटे-छोटे काम करते या शहर में आटोरिक्शा चलाने वाले चेहरों को कुरेदे तो लगेगा काशी जातियों का झंझाल है। जातियों का रूझान समझने की कोशिश में लोकल पत्रकार, एक्टिविस्ट से बात करे तो मल्लाह, मांझी, दलित, राजभर, कुर्मी आदि जातियों की पूरी गणित उलटी मिलेगी। लगेगा भाजपा-मोदी का बनारस में ठोस आधार तो सिर्फ फारवर्ड वोटों से है। उसमें ब्राह्मण भी कुछ समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को जाते हुए है। बाकि मुस्लिम, यादव, राजभर, पिछडी जातियों और दलित मतदाताओं में भाजपा राम भरोसे ही है।
ऑटोरिक्शा चलाने वाले नौजवान समाजवादी पार्टी के समर्थक है तो सभी मुसलमानों से सुनाई देता है कि हमारा वोट नहीं बंटेगा। हमें पता है किसे वोट देना है। वही मल्लाह, मांझी जैसी जातियों में ये डॉयलॉग मिले कि सबने सन् 2017 में भाजपा को वोट किया लेकिन इस दफा अखिलेश यादव को वोट मिलेंगे।
लोग परिवर्तन चाहते है!
अयोध्या से गौरखपुर और अब वाराणसी में लोगों का मूड दिखने में बेरूखा है लेकिन अंदर ही अंदर भभका है। परिवर्तन चाह रहा है।
गोरखपुर में भी लडाई कांटे की। राजेश पांडे ने कहा ‘जो अपना घर (गोरखपुर) ठिक नहीं कर पाया वह प्रदेश को क्या ठिक करेगा।“ एक ब्राह्मण का ऐसा कहना और ध्यान रहे गौरखपुर में योगी के खिलाफ समाजवादी पार्टी ने ब्राह्मण उम्मीदवार खडी की है। गोरखपुर में वैसा कोई विकास नहीं है जैसा वाराणसी में झलकता है। गोऱखपुर से जुड़े हाईवे बुरी तरह खराब। गौरखनाथ मंदिर के इर्दगिर्द को छोडकर बाकि सभी तरफ बेहाली, गंदगी और मुश्किले। तभी लोग कहते मिले कि योगीजी को मतदान से पहले तीन दिन लगातार गौरखपुर में डेरा डाले रहना पड़ा।
वैसे ही जैसे अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वाराणसी में डेरा डाला है। भाजपा के सभी हैवीवेट कई दिनों से बनारस और उसके आसपास पसीना बहाते हुए है। प्रशासन प्रधानमंत्री के लिए शहर को साफ-सुथरा बनाता हुआ, ताकि लोगों में उत्सुकता बने। मगर लोगों में न कौतुक है और न यह जोश की मोदीजी आ रहे है। शहर, दक्षिण के सुरज पांडे ने सन् 2017 में जोश-खरोस के साथ मोदी को वोट दिया था पर अभी तय नहीं है कि वोट डालेगा।
क्यों?
उसने मुस्कराते हुए कहां- हम क्यों अपना दिन का आमदनी वेस्ट करें, वोट करने जाने से, होता क्या है!
इसलिए अयोध्या एक बारीक-पतले धागे में बंधा है तो वाराणसी कगार पर है। प्रतिष्ठा खतरे में है। अनिश्चितता, घबराहट और भय झलकता हुआ है।