क्या भगवान बनाम किसान की आस्था का मामला बना कर विपक्षी पार्टियां आगे की राजनीति कर सकती हैं? और अगर ऐसी राजनीति होती तो क्या भाजपा को इसका फायदा नहीं मिलेगा? यह नई बहस है, जो शरद पवार के एक बयान से शुरू हुई है। पिछले दिनों महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे और उप मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस अयोध्या गए थे। उनकी यात्रा को सफल बनाने के लिए महाराष्ट्र से विशेष ट्रेनों से शिव सेना के समर्थक भेजे गए थे। शिंदे और फड़नवीस ने अयोध्या में रामलला के दर्शन किए और एक प्रेस कांफ्रेंस करके कहा कि नरेंद्र मोदी शिव सेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे का सपना पूरा कर रहे हैं। वे भव्य राममंदिर का निर्माण करा रहे हैं।
इसके बाद पवार ने बयान दिया था कि शिंदे और फड़नवीस की आस्था भगवान में है और हमारी आस्था किसान में है। उसके बाद से ही भगवान बनाम किसान की आस्था का मामला चर्चा में है। सवाल है कि शरद पवार ने किसान को इतनी तरजीह क्यों दी? क्या वे तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव के अभियान से घबराए हुए हैं? गौरतलब है कि केसीआर ने पिछले दो महीने में महाराष्ट्र में दो रैलियां की हैं और दोनों में उन्होंने ‘अगली बार किसान सरकार’ का नारा दिया। उन्होंने अपने राज्य में रैयतू बंधु नाम से योजना शुरू की है, जिसके तहत हर फसल के सीजन से पहले किसानों को प्रति एकड़ के हिसाब से नकद रकम दी जाती है।
अगर केसीआर महाराष्ट्र में किसान की राजनीति करते हैं तो उनको जो भी फायदा होगा वह शरद पवार की पार्टी का नुकसान होगा क्योंकि महाराष्ट्र में किसान की राजनीति शरद पवार की पार्टी करती है। तभी उन्होंने किसान की आस्था का मामला बनाया। वैसे भी एनसीपी हो चाहे दूसरी विपक्षी पार्टियां उनको लग रहा है कि देश का किसान भाजपा की केंद्र सरकार से नाराज है। इसलिए उसको भाजपा के खिलाफ गोलबंद किया जा सकता है। बहरहाल, भगवान और किसान की बात पर एक नेता ने याद दिलाया कि प्रधानमंत्री भी देवालय और शौचालय की तुलना करके शौचालय को महत्वपूर्ण बता चुके हैं।