लाइफस्टाइल/धर्म

क्या झूठ बोलना हमारी आदत बन गया है? जानिए झूठ बोलने के पीछे का विज्ञान..

Share
क्या झूठ बोलना हमारी आदत बन गया है? जानिए झूठ बोलने के पीछे का विज्ञान..
एक दिन में हम 3-4 झूठ तो बोल ही देते है, कई बार बिना किसी कारण के भी बोल देते है। झूठ बोलना हमारी आदत सी बन गया है। क्या कभी विचार किया है कि हमारे झूठ बोलने के पीछे क्या कारण है?ऐसी क्या मजबूरी है कि हम दिन में 3-4 बार बिना झूठ बोले रह नहीं सकते है। कुछ लोग झूठ के इतना आदि हो चुके है कि जहां सच से सच से काम चल जाए, वहां भी उनके मुंह से झूठ ही निकलता है। हालंकि किसी को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं बोला जाता है। कई बार किसी को आहत ना हो इसलिए भी झूठ बोला जाता है। झूठ अब हमारी दिनचर्या में शामिल हो चुका है, हमारी आदत बन चुका है। वैसे झूठ बोलने की अनिवार्यता के बारे करीब दो दशक पहले कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के सामाजिक मनौविज्ञान पढ़ाने वाले प्रोफेसर बेला डे पॉलो ने अलग तरीके से स्पष्ट किया। फिर इसे दस्तावेज के तौर पर पेश भी किया। इसे भी पढ़ें शर्मनाक:12 साल की बच्ची के मां बनने पर देश भर में रोष

किसी को ठेस पहुंचाने के लिए झूठ नहीं बोला जाता

पॉलो और उनके साथियों ने 147 व्यस्कों से कहा था कि वह लिखे कि हर हफ्ते उन्होंने कितनी बार किसी से झूठ कहा। सामने आया कि हर व्यक्ति ने दिन में औसतन एक या दो बार झूठ बोला। इनमें से ज्यादातर झूठ किसी को नुकसान पहुंचाने वाले नहीं थे। बल्कि उनका उद्देश्य अपनी कमियां छुपाना या दूसरों की भावनाओं को बचाना था। हालंकि किसी को ठेस पहुंचाने के लिए नहीं बोला जाता है। किसी को आहत ना हो इसलिए भी झूठ बोला जाता है।हालांकि बाद में की गई एक और स्टडी में पॉलो ने पाया कि ज्यादातर ने किसी मौके पर एक या एक से ज्यादा बार बड़े झूठ भी बोले हैं – जैसे शादी के बाहर किसी रिश्ते को छुपाना और उसके बारे में झूठ बोलना।

क्या है झूठ के पीछे का विज्ञान

बचपन में हम सबने सुना होगा कि झूठ बोलना पाप है, नदी किनारे सांप है। फिल्मों में भी सुना है झूठ बोले कौआ काटे। इसके बावजूद हम झूठ से परहेज़ नहीं करते क्योंकि कहीं न कहीं यह हम इंसानों के डीएनए का हिस्सा है। इस पर "नेशनल जियोग्राफिक" में भी इसके पीछे छिपे विज्ञान को समझने की कोशिश की। इसके मुताबिक - इंसानों में झूठ बोलने की प्रतिभा नई नहीं है। शोध बताती हैं कि भाषा की उत्पत्ति के कुछ वक्त बाद ही झूठ बोलना हमारे व्यवहार का हिस्सा बन गया। झूठ बोलते समय हम सोचते नहीं है हमारे मुख से निकल जाता है। कई बार बोले हुए झूठ का पछतावा बाद में करना पड़ता है।

किसी मुश्किल काम को आसान बनाने के लिए है झूठ

संसाधनों की रस्साकशी में बिना किसी ताकत और जोर जबरदस्ती के लोगों से चालाकी से काम निकलवाना ज्यादा कारगर है और यह झूठ का रास्ता अपनाने पर आसानी से हो पाता है। यह जानवरों की अपनाई जाने वाली रणनीतियों से काफी मिलता जुलता है। हारवर्ड यूनिवर्सिटी में नीतिशास्त्र पढ़ाने वाली सिसेला बोक मानती हैं कि किसी का पैसा या संपत्ति हासिल करने के लिए डाका डालने या सिर फोड़ने से तो ज्यादा आसान है झूठ बोलना। क्या झूठ बोलने से काम ज्यादा आसानी से हो जाते है तो हम इसका जवाब हां में ही पाएंगे। दैनिक कार्य में अगरकोई काम सच बोलने से नहीं हो रहा तो हम झूठ का ही रास्ता अपनाएंगे।

सच और झूठ के बीच फर्क करने की क्षमता खतरे में

दिलचस्प बात यह है कि कुछ झूठ की सच्चाई जानते हुए भी हम उस पर यकीन करते हैं। इससे हमारी दूसरों को धोखा देने की और हमारी खुद की धोखा खाने की प्रवृत्ति दिखाई देती है, खासतौर पर सोशल मीडिया के युग में यह बात गौर करने लायक है। बतौर समाज हमारी सच और झूठ के बीच फर्क करने की क्षमता खतरे में है। अगर सोशल मीडिया की ही बात करें तो शोध के मुताबिक हमें उस झूठ को स्वीकारने में तनिक संकोच नहीं होता जो हमारी ही सोच को और मजबूत करती है।

हम झूठ को भी झूठ नहीं मानते

आमतौर पर जब नेता दावा करते हैं कि उनकी रैलियों और सभाओं में ऐतिहासिक भीड़ जमा हुई है, तो उनके समर्थकों ने इसे बगैर जांच किए स्वीकार कर लेते हैं। बाद में पता लगता है कि उन्होंने जिन तस्वीरों के जरिए ये दावा किया, वो तो फोटोशॉप्ड थीं। बावजूद इसके हम उसे झूठ मानने से इंकार करते हैं क्योंकि वह बता कहीं न कहीं हमारे बने बनाए विचारों का समर्थन करती है। कोई हमारे सामने झूठ बोल रहा है फिर भी हम सच मान लेते है। उसके झूठ को पकड़ नहीं पाते।

क्या ये भी हमारे विकास का हिस्सा है

वैसे जानकार मानते हैं कि झूठ बोलने की आदत, हमारी विकास का वैसा ही हिस्सा है जैसे कि चलना, फिरना, बोलना. हालांकि झूठ बोलने को ही कहीं न कहीं मासूमियत खोने की शुरूआत माना जाता है।जॉर्ज लैकऑफ, कैलिफोर्निया यूनविर्सिटी, बर्कले में भाषाविद् हैं। वो कहते हैं कि अगर कोई तथ्य सामने रखे. वो आपकी सोच में फिट न हो, तो या तो आप उसे अनदेखा करेंगे या फिर उसे बकवास बताने लगेंगे। मनोवैज्ञानिक तो यह भी कहते हैं कि बच्चे का झूठ बोलना इस बात का संकेत है कि उसका ज्ञान संबंधी विकास पटरी पर है। उम्र के साथ बच्चे बेहतर तरीके से झूठ बोल पाते हैं। झूठ बोलना सिखाया नहीं जाता है अपने आप सिखा जाता है। झूठ बोलने के दौरान दूसरे पक्ष के दिमाग, उसकी सोच को समझने के तरीके को थ्योरी ऑफ माइंड कहा गया है। बच्चों के झूठ में धीरे धीरे इस थ्योरी का असर दिखाई देने लगता है।जब वह यह सोचकर झूठ बोलते हैं कि ऐसा बोलने पर मम्मी क्या सोचेंगी और इसलिए इसे किसी दूसरे तरीके से कहा जाए तो बेहतर होगा। इसके अलावा यह बताने की जरूरत तो है नहीं कि झूठ बोलने के लिए कितनी योजना और आत्म संयम की जरूरत पड़ती है।
Published

और पढ़ें