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अनन्त चतुर्दशी और धन-धान्य, सुख

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अनन्त चतुर्दशी और धन-धान्य, सुख
यह गणित और दर्शन में एक सिद्धांत है जो ऐसी राशि को कहते हैं जिसकी कोई सीमा न हो या अन्त न हो। भारतीय पुरातन ग्रन्थों में अनन्त के बारे में भांति- भांति के अर्थ व विचार व्यक्त किये हैं। अनंत (अनन्त) शब्द का अर्थ असीम, बेहद, आपार, बहुत अधिक, असंख्य, अनेक, अविनाशी, नित्य,अनंत (संज्ञा पुल्लिंग) भी किया जाता है। विष्णु, शेषनाग, लक्ष्मण, बलराम,आकाश आदि भी अनन्त नाम से जाने जाते हैं हैं, जैनों के एक तीथँकर का नाम का नाम भी अनन्त है। anant chaturdashi Vrat 2021 सामान्य तौर पर अनन्त का अर्थ होता है जिसका कोई अंत न हो, जिसका पार न हो। यह गणित और दर्शन में एक सिद्धांत है जो ऐसी राशि को कहते हैं जिसकी कोई सीमा न हो या अन्त न हो। भारतीय पुरातन ग्रन्थों में अनन्त के बारे में भांति- भांति के अर्थ व विचार व्यक्त किये हैं। अनंत (अनन्त) शब्द का अर्थ असीम, बेहद, आपार, बहुत अधिक, असंख्य, अनेक, अविनाशी, नित्य,अनंत (संज्ञा पुल्लिंग) भी किया जाता है। विष्णु, शेषनाग, लक्ष्मण, बलराम,आकाश आदि भी अनन्त नाम से जाने जाते हैं हैं, जैनों के एक तीथँकर का नाम का नाम भी अनन्त है। अभ्रक (अबरक) के साथ ही एक प्रकार का गहना जो बाहु में पहना जाता है, को अनन्त नाम से जाना जाता है। एक सुत का गंड़ा जो चौदह सूत एकत्र कर उससें चौदह गांठ देकर बनाया जाता है । इसे भादो सुदी चतुर्दशी अर्थात अनंतव्रत के दिन पूजित कर बाहु में पहनने की परम्परा है । पौराणिक मान्यतानुसार अनंत चतुर्दशी का व्रत भी प्राचीन काल से प्रचलित है, जिसमे अनन्त भगवान का व्रत किया जाता है । रामानुजाचार्य के एक शिष्य का नाम का नाम अनन्त है। विष्णु का शंख, कुष्णा, शिव को भी अनन्त संज्ञा प्राप्त है। रुद्र,सीमाहीनता, अंतहीनता, नियत्व, मोक्ष, वासुकि, बादल, सिंदुवार,श्रवण नक्षत्र तथा ब्रह्मा भी अनन्त नाम से संज्ञायित हैं । इसमें कोई शक नहीं कि भारतीयों को अनन्त की संकल्पना वैदिक काल से ही थी, और वे अनन्त के मूलभूत गुणों से भली- भांति परिचित थे। यही कारण है कि पुरातन ग्रन्थों में इसके लिये अनन्त, पूर्णं , अदिति, असंख्यत आदि कई शब्दों का भी प्रयोग किया गया है। असंख्यत शब्द का उल्लेख यजुर्वेद में आया है। ईशोपनिषद में अंकित एक मन्त्र से भी अनन्त का अर्थ भेद पाया जा सकता है- ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते। पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते।। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः॥ अर्थात- ॐ वह (परब्रह्म) पूर्ण है और यह (कार्यब्रह्म) भी पूर्ण है, क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की ही उत्पत्ति होती है। तथा (प्रलयकाल मे) पूर्ण (कार्यब्रह्म)- का पूर्णत्व लेकर अर्थात अपने मे लीन करके पूर्ण (परब्रह्म) ही बच रहता है। त्रिविध ताप की शांति हो। anant chaturdashi Vrat 2021 anant chaturdashi Vrat 2021 Read also वैदिक-शिल्पी विश्वकर्मा यहाँ पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते - का अर्थ है,  अनन्त से अनन्त घटाने पर भी अनन्त ही शेष रहता है। वैदिक मतानुसार परमेश्वर का ही नाम अनन्त है। स्वामी दयानन्द सरस्वती ने सत्यार्थ प्रकाश के प्रथम समुल्लास में अनन्त शब्द को परमेश्वर का ही एक नाम घोषित करते हुए तैतिरीयोपनिषद के वचन को उद्धृत करते हुए कहा है - सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म । सन्तीति सन्तस्तेषु सत्सु साधु तत्सत्यम्। यज्जानाति चराऽचरं जगत्तज्ज्ञानम्। न विद्यतेऽन्तो– ऽवधिर्मर्यादा यस्य तदनन्तम्। सर्वेभ्यो बृहत्त्वाद् ब्रह्म। अर्थात - जो पदार्थ हों उनको सत कहते हैं, उनमें साधु होने से परमेश्वर का नाम सत्य है। जो जाननेवाला है, इससे परमेश्वर का नाम ज्ञान है। जिसका अन्त अवधि मर्यादा अर्थात् इतना लम्बा, चौड़ा, छोटा, बड़ा है, ऐसा परिमाण नहीं है, इसलिए परमेश्वर के नाम सत्य, ज्ञान और अनन्त हैं। उल्लेखनीय है कि वैदिक मतानुसार विष्णु , श्रीहरि को भी अनन्त की संज्ञा प्राप्त है। वर्तमान में भाद्रपद मास, शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी को अनन्त चतुर्दशी के व्रत में अनन्त के रूप में भगवान श्रीहरि विष्णु की पूजा- अर्चना किये जाने की पौराणिक परिपाटी प्रचलित है। इस व्रत में यमुना नदी, भगवान शेषनाग और भगवान श्री हरि की पूजा करने का विधान बताया जाता है। इस व्रत में चौदह गाँठों वाला अनंत सूत्र पुरुषों द्वारा दाहिने तथा स्त्रियों द्वारा बायें हाथ में बांधे जाने की परम्परा है। यह अनन्त सूत्र कपास या रेशम के धागे से बने होते हैं, जो कुंकमी रंग में रंगे जाते हैं। इस सूत्र में चौदह गाँठे होती हैं। इन्हीं धागों से अनन्त का निर्माण होता है। अनन्त की चौदह गांठे चौदह लोकों की प्रतीक मानी गई हैं। मान्यता है कि यह अनंत रक्षासूत्र का काम करता है। भगवान श्री हरि अनंत चतुर्दशी का उपवास करने वाले उपासक के दुखों को दूर करते हैं और उसके घर में धन धान्य से संपन्नता लाकर उसकी विपन्नता को समाप्त कर देते हैं। जैनियों के लिये भी इस दिन का खास महत्व होता है। जैन धर्म के दशलक्षण पर्व का समापन भी शोभायात्राएं निकालकर भगवान का जलाभिषेक कर इसी दिन किया जाता है। सत्यवादी राजा हरिश्चंद्र के दिन भी इस व्रत के पश्चात बहुरने की कथा भी प्रचलित है। विविध पुरानों व निबन्ध ग्रन्थों में अनन्त चतुर्दशी से सम्बन्धित विवरणी अंकित प्राप्य हैं ।अग्नि पुराण 192/7-10 में अनन्त का वर्णन करते हुए कहा गया है कि चतुर्दशी को दर्भ से बनी श्रीहरि की प्रतिमा, जो कलश के जल में रखी होती है, की पूजा होती है। व्रती को धान के एक प्रस्थ (प्रसर) आटे से रोटियाँ (पूड़ी) बनानी होती हैं, जिनकी आधी वह ब्राह्मण को दे देता है और शेष अर्धांश स्वयं प्रयोग में लाता है। पुराणों के अनुसार अनन्त चतुर्दशी का व्रत नदी-तट पर किया जाना चाहिए और वहाँ हरि की कथाएँ सुननी चाहिए। अग्नि पुराण 192-9 के अनुसार अनन्त चतुर्दशी व्रत करने वालों को श्रीहरि वासुदेव से इस अनन्त संसार रूपी महासमुद्र में डूबे हुए लोगों की रक्षा करने तथा उन्हें अनन्त के रूप का ध्यान में संलग्न करने की याचना करते हुए अनन्त रूप वाले परमात्मा को नमस्कार करना चाहिए। मन्त्र से हरि की पूजा करके तथा अपने हाथ के ऊपरी भाग में या गले में धागा बाँधकर या लटका कर व्रती अनन्त व्रत करता है तथा प्रसन्न होता है। ganesh chaturthi celebrated 2021 anant chaturdashi Vrat 2021 Read also महान दानी, त्यागी महर्षि दधीचि यदि हरि अनन्त हैं तो 14 गाँठें हरि द्वारा उत्पन्न 14 लोकों की द्योतक हैं। हेमाद्रि ग्रन्थ  व्रत, भाग 2, पृ. 26-36 में अनन्त व्रत का विवरण विशद रूप से अंकित है । उसमें भगवान श्रीकृष्ण द्वारा युधिष्ठिर से कही गयी कौण्डिन्य एवं उसकी स्त्री शीला की गाथा भी आयी है। हेमाद्रि ग्रन्थ के अनुसार कृष्ण का कथन है कि अनन्त उनके अर्थात परमेश्वर के रूपों का एक रूप है और वे काल हैं, जिसे अनन्त कहा जाता है। अनन्त व्रत चन्दन, धूप, पुष्प, नैवेद्य के उपचारों के साथ किया जाता है। वर्षकिया कौमुदी , तिथितत्त्व , कालनिर्णय, वतार्क आदि ग्रन्थों के अनुसार यदि यह व्रत 14 वर्षों तक किया जाय तो व्रती विष्णु लोक की प्राप्ति कर सकता है। हेमाद्रि, व्रत, भाग 2 में इस व्रत के उपयुक्त एवं तिथि के विषय में कई मत विस्तृत रूप से अंकित हैं। माधव कालनिर्णय 279 के अनुसार इस व्रत में मध्याह्न कर्मकाल नहीं है, किन्तु वह तिथि, जो सूर्योदय के समय तीन मुहर्तों तक अवस्थित रहती है, अनन्त व्रत के लिए सर्वोत्तम है। किन्तु निर्णयसिन्धु में इस मत का खण्डन किया है। आज कल अनन्त चतुर्दशी व्रत किया तो जाता है, किन्तु व्रतियों की संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है। इसका एक प्रधान कारण इस व्रत का सामूहिक अर्थात सार्वजनिक पूजन न होकर व्यक्तिपूजन होना है अर्थात व्रत का सार्वजनिक आयोजन नहीं होना है । इस व्रत के सम्बन्ध में एक पौराणिक कथा प्रचलित है। अनंत चतुर्दशी के महत्व की कथा कौरवों के छल से जुए में राज्य हार बैठे युधिष्ठिर से संबंधित है। कथा के अनुसार राजसूय यज्ञ में द्रौपदी के हाथों हुई अपनी उपहास का बदला लेने के लिए दुर्योधन ने पाण्डवों को द्यूत-क्रीड़ा में हराकर उस अपमान का बदला लेने की सोची। उसने पाण्डवों को जुए में पराजित कर दिया। पराजित होने पर प्रतिज्ञानुसार पाण्डवों को बारह वर्ष के लिए वनवास भोगना पड़ा। वन में रहते हुए पाण्डव अनेक कष्ट सहते रहे। एक दिन भगवान श्रीकृष्ण के मिलने आने पर युधिष्ठिर ने उनसे अपना दु:ख बतलाते हुए दु:ख दूर करने का उपाय पूछा। यह सुन श्रीकृष्ण ने कहा- विधिपूर्वक अनन्त भगवान का व्रत करने से आपका सारा संकट दूर हो जाएगा और आपका खोया राज्य पुन: प्राप्त हो जाएगा। इस संदर्भ में श्रीकृष्ण ने युद्धिष्ठिर को एक कथा भी सुनाई। कथा के अनुसार प्राचीन काल में सुमन्त नामक एक नेक तपस्वी ब्राह्मण अपनी पत्नी महर्षि भृगु पुत्री दीक्षा के साथ निवास करता था। उसके एक सुशीला नाम की परम सुंदरी धर्मपरायण तथा ज्योतिर्मयी कन्या थी । सुशीला के बड़ी होने तक उसकी माता दीक्षा की मृत्यु हो गई। पत्नी के मरने के बाद ब्राह्मण सुमन्त ने कर्कशा नामक स्त्री से दूसरा विवाह कर लिया और अपनी पुत्री सुशीला का विवाह कौडिन्य ऋषि के साथ कर दिया। पुत्री की विदाई में कुछ देने की बात पर कर्कशा ने दामाद को कुछ ईंटें और पत्थरों के टुकड़े बांधकर दे दिए। कौडिन्य ऋषि दु:खी हो अपनी पत्नी को लेकर अपने आश्रम की ओर चल दिए, परन्तु उन्हें रास्ते में ही रात हो गई। वे नदी तट पर सन्ध्या करने लगे। सुशीला ने देखा वहाँ पर बहुत-सी स्त्रियाँ सुंदर वस्त्र धारण कर किसी देवता की पूजा कर रही थीं। सुशीला के उनके पास जा पूछने पर उन महिलाओं ने उसे विधिपूर्वक अनन्त व्रत की महत्ता बताई। सुशीला ने वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चौदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांधकर ऋषि कौडिन्य के निकट आ गई। बांह में बंधे डोरे को देख कौडिन्य ने सुशीला से डोरे के बारे में पूछा तो उसने सारी बात बता दी। यह सुन कौडिन्य ने डोरे को तोड़कर अग्नि में डाल दिया इससे भगवान अनन्त जी का अपमान हुआ। परिणामस्वरूप ऋषि कौडिन्य का जीवन दुखों से भर गया, उनकी सारी सम्पत्ति नष्ट हो गई। इस दरिद्रता का कारण जब उन्होंने अपनी पत्नी से पूछा तो सुशीला ने अनन्त भगवान का डोरा जलाने की याद उन्हें दिलाते हुए कहा कि यह सब उनकी ही कोपवश हो रहा है । यह जान पश्चाताप करते हुए ऋषि कौडिन्य अनन्त डोरे की प्राप्ति के लिए वन में चले गए। सघन वन में कई दिनों तक भटकते-भटकते निराश होकर एक दिन भूमि पर गिर पड़े। तब अनन्त भगवान प्रकट होकर कौडिन्य से बोले- तुमने मेरा तिरस्कार किया था, उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा और तुम्हें दुखित होकर वन- वन भटकने को विवश होना पड़ा । अब तुमने पश्चाताप किया है, इससे मैं तुमसे प्रसन्न हूँ। अब तुम घर जाकर भाद्रपद शुक्ल चतुर्दशी की तिथि को विधिपूर्वक अनन्त व्रत करो। चौदह वर्ष पर्यन्त व्रत करने से तुम्हारा दु:ख दूर हो जाएगा। तुम धन-धान्य से सम्पन्न हो जाओगे। कौडिन्य ने वैसा ही किया और उन्हें सारे क्लेशों से मुक्ति मिल गई। श्रीकृष्ण की आज्ञा से युधिष्ठिर ने भी अनन्त भगवान का व्रत किया, जिसके प्रभाव से पाण्डव महाभारत के युद्ध में विजयी हुए तथा चिरकाल तक राज्य करते रहे।  
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