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विक्रम संवत के प्रवर्तक चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य

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विक्रम संवत के प्रवर्तक चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य
भयंकर युद्धों में विदेशी आक्रमणकारियों को परास्त कर, दुश्मनों को इस देश से निकाल बाहर कर भारत की रक्षा करते हुए अपने नाम से विक्रम संवत का प्रवर्तन अर्थात प्रारम्भण करने वाले चक्रवर्ती सम्राट विक्रमादित्य का नाम विक्रम सेन था। अपने ज्ञान, वीरता और उदारशीलता के लिए प्रसिद्ध विक्रमादित्य का जन्म कलि काल के 3000 वर्ष बीत जाने पर 101 ईसा पूर्व हुआ और उन्होंने 100 वर्ष तक राज किया। विक्रमादित्य भारत की प्राचीन नगरी उज्जयिनी के राजसिंहासन पर बैठने वाले चक्रवर्ती सम्राट थे । जिनके दरबार में उपस्थित रहने वाले नवरत्न आज भी प्रसिद्ध हैं । इनमें कालिदास भी थे। कहा जाता है कि विक्रमादित्य बड़े पराक्रमी थे और उन्होंने शकों को परास्त किया था। देश में सर्वाधिक प्रचलित विक्रम संवत को उज्जैन के राजा विक्रमादित्य द्वारा ही प्रवर्तित माना जाता है। 3068 कलि अर्थात 34 ईसा पूर्व में रचित ज्योतिर्विदाभरण ग्रंथ में इस संवत के विक्रमादित्य द्वारा प्रवर्तन किये जाने की पुष्टि करते हुए कहा गया है कि विक्रमादित्य ने 3044 कलि अर्थात 57 ईसा पूर्व विक्रम संवत चलाया। कुछ ग्रंथों के अनुसार इन्द्रप्रस्थ के राजा राजपाल (36 वर्ष) को सामंत महानपाल ने मारकर मात्र एक पीढ़ी में चौदह वर्ष तक राज्य किया। राजा महानपाल के राज्य पर राजा विक्रमादित्य ने अवन्तिका (उज्जैन) से लड़ाई करके महानपाल को मारकर एक पीढ़ी में 93 वर्ष तक राज्य किया। राजा विक्रमादित्य को मारकर शालिवाहन का उमराव समुद्रपाल योगी पैठणके ने मारकर वह और उसकी सोलह पीढ़ियों ने 372 वर्ष चार मास सताईस दिन तक राज्य किया। महाराजा विक्रमादित्य के सम्बन्ध में भविष्य पुराण और स्कंद पुराण में विस्तृत विवरण अंकित मिलता है। भविष्य पुराण के अनुसार, नाबोवाहन (नववाहन) के पुत्र राजा गंधर्वसेन भी चक्रवर्ती सम्राट थे। गंधर्वसेन के पुत्र विक्रमादित्य और भर्तृहरी थे। विक्रमादित्य ईसा मसीह के समकालीन थे और उस समय उनका शासन अरब तक फैला हुआ था और उन्होंने अरब देश में एक ही स्थान पर 360 मंदिरों का निर्माण करवाया था जिसके मध्य में मक्केश्वर महादेव विराजमान थे। विक्रमादित्य के बारे में प्राचीन अरब साहित्य में भी वर्णन मिलता है। दरअसल, विक्रमादित्य का शासन अरब और मिस्र तक फैला हुआ था और संपूर्ण विश्व उनके नाम से परिचित था। फिर भी विक्रमादित्य के इतिहास को अंग्रेजों ने जान-बूझकर तोड़ा और भ्रमित किया और उसे एक मिथ‍कीय चरित्र बनाने का हर सम्भव प्रयास किया, क्योंकि विक्रमादित्य उस काल में महान व्यक्तित्व और शक्ति के प्रतीक थे, जबकि अंग्रेजों को अपने आपको सर्वोपरि और फिर भारत को अनंत काल तक दासता की बेड़ी में जकड़े रहने के लिए यह सिद्ध करना जरूरी था कि ईसा मसीह के काल में दुनिया अज्ञानता में जी रही थी।  लेकिन ऐतिहासिक ग्रन्थों के अध्ययन से ठीक इसके विपरीत इस सत्य का सत्यापन होता है कि कश्मीर के एक राजा मेघवाहन हुए हैं , जिन्होंने भारत में बाहर वर्षीय कुम्भों के समारोह की प्रथा आरम्भ की थी। मेघवाहन का पुत्र प्रवरसेम था और उसके दो पुत्र थे- हिरण्य और तोरमाण। दोनों भाई प्रेमपूर्वक राज्य कार्य बांटकर चलाते रहे। तोरमाण राज्य की अर्थ- व्यवस्था देखता था। उस काल में मुद्राएँ साहूकार चलाते थे। तोरमाण की पत्नी काशिराज की पुत्री होने से अपने पिता के राज्य की प्रथा चलाने की प्रेरणा अपने पति को देने लगी और राज्य की ओर से निश्चित भार की दीनार नाम की मुद्रा प्रचलित कर दी गई। मुद्रा पर नाम तोरमाण का नाम मुद्रित किया गया। बड़े भाई हिरण्य को उसकी पत्नी ने भड़काया और कहा कि अपने नाम से मुद्रा चलाकर छोटा भाई स्वयं राजा बनना चाहता है। बड़े भाई हिरण्य को जब इस पर संदेह हुआ तो उसने छोटे भाई को बन्दीगृह में डाल दिया। उसकी पत्नी अंजना उसके साथ ही बन्दीगृह में रहने लगी। वहाँ उसके गर्भ ठहरा तो वह बन्दीगृह से निकल आलोप हो गयी। सुदूर पूर्व में राज्य के भीतर ही एक गाँव में एक कुम्हार के घर में छुपे रहकर उसने पुत्र को जन्म दिया और पुत्र का नाम उसके बाबा के नाम पर प्रवरसेन रख दिया। माँ को भय था कि हिरण्य अपनी पत्नी के सिखाने पर उसके पुत्र को कहीं न मरवा दे, इस कारण वह गुप्त स्थान पर एक कुम्हार के परिवार में रहती हुई पुत्र प्रवरसेन का गाँव में ही पालन-पोषण करती रही। कुछ काल के उपरांत बन्दीगृह में तोरमाण का देहान्त हो गया और कुछ ही समय उपरान्त हिरण्य भी नि:संतान मर गया। इस प्रकार राज्यविहीन हो गया। तब मन्त्रिगण मंत्री-सभा बना राज्य चलाने लगे। कई वर्ष तक मन्त्रिमण्डल राज्य चलाता रहा। इस काल में मन्त्रियों में कोई प्रमुख नहीं था। इस कारण सब लूट-खसोट करने लगे और राज्य में अराजकता बढ़ने लगी तो मन्त्रियों ने यह उचित समझा कि भारत-सम्राट विक्रमादित्य से कहा जाये कि कोई अपने आधीन राजा वहाँ शासन करने के लिए भेज दें। विक्रमादित्य ने अपनी सभा के कवि मातृगुप्त को वहाँ भेज दिया। इस विक्रमादित्य के विषय में राजतरंगगिणी में कहा गया है कि वह शकों को देश से बाहर करने वाला था। इससे यह भास मिलता है कि वह विक्रमादित्य गुप्त परिवार का शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय था। इससे यह अनुमान भी ठीक प्रतीत होता है कि मातृगुप्त विख्यात कवि कालिदास ही था। एक बात और भी इस कल्पना का समर्थन करती है। वह यह कि कालिदास के माता- पिता का ज्ञान नहीं। ध्यातव्य हो कि कुछ इतिहासकार इस विक्रमादित्य को गुप्त परिवार का नहीं मानते और न ही मातृगुप्त को रघुवंश का रचियता मानते हैं। कुछ इतिहासकारों का विचार है कि चंद्रगुप्त द्वितीय को उसके पिता समुद्रगुप्त ने तब ही विक्रमादित्य की उपाधि से विभूषित कर दिया था, जब वह अभी राजकुमार ही था। वह उस समय भी शकों से युद्ध में बहुत शौर्य प्रकट कर चुका था। इस अनुमान में एक प्रमाण यह भी है कि विक्रमादित्य नाम का चक्रवर्ती राजा, जिससे किसी राज्य के लिए शासक माँगा गया; वह इतिहास में चंद्रगुप्त द्वितीय ही हो सकता है। इतिहास में इसके अतिरिक्त किसी अन्य विक्रमादित्य सम्राट् का उल्लेख नहीं मिलता। विद्वानों का अनुमान है कि यही विक्रमादित्य अर्थात् चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य द्वितीय हीत का प्रवर्तक हुआ है। जो तिथि- काल विदेशीय इतिहासज्ञों ने गुप्तकाल के लिए निश्चय किया है, वह अशुद्ध है। पुराणों के अनुसार चन्द्रगुप्त द्वितीय का जन्म ईसा पूर्व होना ही सिद्ध होता है । कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार भी 14 ईस्वी के आसपास कश्मीर में अंध्र युधिष्ठिर वंश के राजा हिरण्य के नि:संतान मर जाने पर अराजकता फैल गई थी। जिसको देखकर वहां के मंत्रियों की सलाह से उज्जैन के राजा विक्रमादित्य ने मातृगुप्त (कालिदास) को कश्मीर का राज्य संभालने के लिए भेजा था। कालिदास को कालिदास इसलिए कहते थे, क्योंकि वे माँ काली के भक्त और प्रसिद्ध कवि थे। नेपाली राजवंशावली अनुसार ईसा पूर्व पहली शताब्दी में नेपाल के राजा अंशुवर्मन के समय में उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के नेपाल आने का उल्लेख मिलता है। विक्रमादित्य के समय ज्योतिषाचार्य मिहिर, महान कवि कालिदास थे। सम्राट विक्रमादित्य का भारत की संस्कृत, प्राकृत, अर्द्धमागधी, हिन्दी, गुजराती, मराठी, बंगला आदि भाषाओं के ग्रंथों में विस्तृत विवरण अंकित मिलता है। उनकी वीरता, उदारता, दया, क्षमा आदि गुणों की अनेक कथाएँ पुराण व संस्कृत के अन्यान्य भारतीय साहित्य में विशाल मात्रा में प्राप्य हैं। दरअसल विक्रम सम्बत के प्रवर्तक विक्रमादित्य के सम्बन्ध में विभ्रम की स्थिति बने रहने का कारण यह है कि भारत में कई ऐसे अन्य सम्राट हुए हैं, जिनके नाम के आगे विक्रमादित्य लगा हुआ है। जिनमें श्रीहर्ष, शूद्रक, हल, चंद्रगुप्त द्वितीय, शिलादित्य, यशोवर्धन आदि प्रमुख हैं । इस विभ्रम पर अनुसंधान कर भ्रम को समाप्त किये जाने की नितान्त आवश्यकता है। यह सर्वविदित तथ्य है कि भारतीय पुरातन ग्रंथों में आदित्य शब्द देवताओं के लिए प्रयुक्त हुआ है। बाद में विक्रमादित्य की प्रसिद्धि के बाद राजाओं को विक्रमादित्य की उपाधि दी जाने लगी। वर्तमान युगीन इतिहासकारों के अनुसार विक्रमादित्य के पहले और बाद में कई और ‍भी विक्रमादित्य हुए हैं जिसके चलते भ्रम की स्थिति उत्पन्न होती है। पुरातन ग्रंथों के अनुसार चन्द्रगुप्त द्वितीय का होना ईसा पूर्व  होना सिद्ध होता है परन्तु वर्तमान इतिहास में पढाया जाता है कि उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य के बाद 300 ईस्वी में समुद्रगुप्त के पुत्र चन्द्रगुप्त द्वितीय अथवा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य हुए। वर्तमान इतिहास के अनुसार एक विक्रमादित्य द्वितीय सातवीं सदी में हुए, ‍जो विजयादित्य (विक्रमादित्य प्रथम) के पुत्र थे। विक्रमादित्य द्वितीय ने भी अपने समय में चालुक्य साम्राज्य की शक्ति को अक्षुण्ण बनाए रखा। विक्रमादित्य द्वितीय के काल में ही लाट देश (दक्षिणी गुजरात) पर अरबों ने आक्रमण किया। विक्रमादित्य द्वितीय के शौर्य के कारण अरबों को अपने प्रयत्न में सफलता नहीं मिली और यह प्रतापी चालुक्य राजा अरब आक्रमण से अपने साम्राज्य की रक्षा करने में समर्थ रहा। पल्‍लव राजा ने पुलकेसन को परास्‍त कर मार डाला। उसका पुत्र विक्रमादित्‍य, जो कि अपने पिता के समान महान शासक था, गद्दी पर बैठा। उसने दक्षिण के अपने शत्रुओं के विरुद्ध पुन: संघर्ष प्रारंभ किया। उसने चालुक्‍यों के पुराने वैभव को काफी हद तक पुन: प्राप्‍त किया। यहाँ तक कि उसका परपोता विक्रमादित्‍य द्वितीय भी महान योद्धा था। 753 ईस्वी में विक्रमादित्‍य व उसके पुत्र का दंती दुर्गा नाम के एक सरदार ने तख्‍ता पलट दिया। उसने महाराष्‍ट्र व कर्नाटक में एक और महान साम्राज्‍य की स्‍थापना की, जो राष्‍ट्र कूट कहलाया। विक्रमादित्य द्वितीय के बाद पन्द्रहवीं सदी में सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य हेमू हुए। सम्राट हेमचंद्र विक्रमादित्य के बाद विक्रमादित्य पंचम सत्याश्रय के बाद कल्याणी के राजसिंहासन पर आरूढ़ हुए। उन्होंने लगभग 1008 ई. में चालुक्य राज्य की गद्दी को संभाला। भोपाल के राजा भोज के काल में यही विक्रमादित्य थे। विक्रमादित्य पंचम ने अपने पूर्वजों की नीतियों का अनुसरण करते हुए कई युद्ध लड़े। उसके समय में मालवा के परमारों के साथ चालुक्यों का पुनः संघर्ष हुआ और वाकपतिराज मुञ्ज की पराजय व हत्या का प्रतिशोध करने के लिए परमार राजा भोज ने चालुक्य राज्य पर आक्रमण कर उसे परास्त किया, लेकिन एक युद्ध में विक्रमादित्य पंचम ने राजा भोज को भी हरा दिया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि उज्जैन के विक्रमादित्य के समय ही विक्रम संवत चलाया गया था। इतिहासकारों के अनुसार उज्जैन के सम्राट विक्रमादित्य का राज्य भारतीय उपमहाद्वीप के अलावा ईरान, इराक और अरब में भी था। सम्राट  विक्रमादित्य की अरब विजय का वर्णन अरबी कवि जरहाम किनतोई ने अपनी पुस्तक सायर-उल-ओकुल में किया है। तुर्की के इस्ताम्बुल शहर की प्रसिद्ध लायब्रेरी मकतब-ए-सुल्तानिया में उपलब्ध एक ऐतिहासिक ग्रंथ सायर-उल-ओकुल में राजा विक्रमादित्य से संबंधित एक शिलालेख का उल्लेख है। हजरत मोहम्मद सा. के जन्म के 165 वर्ष पूर्व के इस शिलालेख में कहा गया है कि वे लोग भाग्यशाली हैं, जो उस समय जन्मे और राजा विक्रम के राज्य में जीवन व्यतीत किया। वह बहुत ही दयालु, उदार और कर्तव्यनिष्ठ शासक था, जो हरेक व्यक्ति के कल्याण के बारे में सोचता था। उसने अपने पवित्र धर्म को हमारे बीच फैलाया, अपने देश के सूर्य से भी तेज विद्वानों को इस देश में भेजा ताकि शिक्षा का उजाला फैल सके। इन विद्वानों और ज्ञाताओं ने हमें भगवान की उपस्थिति और सत्य के सही मार्ग के बारे में बताकर एक परोपकार किया है। ये तमाम विद्वान राजा विक्रमादित्य के निर्देश पर अपने धर्म की शिक्षा देने यहां आये । इतिहासकारों के अनुसार यह शिलालेख हजरत मोहम्मद सा. के जन्म के 165 वर्ष पूर्व का है। पुराणों और अन्य ऐतिहासिक ग्रंथों के अध्ययन से भी यह स्पष्ट होता है कि अरब और मिस्र भी विक्रमादित्य के अधीन थे और उन्होंने अरब देश में एक ही स्थान पर 360 मंदिरों का निर्माण करवाया था जिसके मध्य में मक्केश्वर महादेव विराजमान थे ।
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