क्यों यह माना जाने लगा कि वसिष्ठ जैसा महान व्यक्ति सामान्य मनुष्य नहीं, बल्कि कोई लोकोत्तर पुरुष होना चाहिए? वशिष्ठ ने गृहस्थाश्रम की पालना करते हुए ब्रह्माजी के मार्गदर्शन में उन्होंने सृष्टि वर्धन, रक्षा, यज्ञ आदि से संसार को दिशाबोध दिया। अपने विशिष्ट जनों को, महान नायकों को दैवी महत्व देने की भारतीय परम्परा में तुलसीदास को वाल्मीकि का अवतार तो विवेकानंद को शंकराचार्य की तरह शिव का रूप मान लिए जाने की भांति ही वशिष्ठ जैसे महा प्रतिभाशाली व्यक्ति को ब्रह्मा का मानस पुत्र मान लिया गया। pitru paksha 2021 shraaddh .
श्राद्ध पक्ष में पूर्वजों को नमन-1: दशरथ के कुलगुरू, श्रीराम, लक्ष्मण, भरत व शत्रुध्न को शिक्षा- दीक्षा प्रदान करने वाले ऋषि वशिष्ठ रामायण के सर्वाधिक प्रतिष्ठित ऋषियों में से एक हैं, जिन्होंने न केवल मुनि विश्वामित्र के श्रीराम लक्ष्मण को राक्षसों का बध करने के लिए अपने आश्रम ले जाये जाने के लिए आने पर दशरथ को समझा- बुझाकर ढाढस बंधाया कि उन्हें अपने दोनों पुत्रों को उनके साथ भेज देना चाहिए, बल्कि दशरथ के देहांत हो जाने पर राम के द्वारा वनगमन से वापस लौटने से मना कर दिए जाने और भरत के द्वारा राजतिलक करवाकर राजसिंहासन पर बैठने के बजाय श्रीराम की चरण पादुका को राजसिंहासन पर बैठाकर नन्दिग्राम से राजकाज चलाने की सिर्फ औपचारिकता पूर्ण किये जाने की स्थिति आने पर अयोध्या के शासन को सुचारुपूर्वक सम्हाला। वशिष्ठ और विश्वामित्र के मध्य के संघर्ष की कथाएं तो जगप्रसिद्ध हैं, जिनसे सम्बन्धित प्रसंग रामायण सहित पुराणों में भरे पड़े हैं।
कथा के अनुसार ऋषि वशिष्ठ के पास समस्त इच्छाओं को पूर्ण कर सकने वाली एक कामधेनु गाय थी, उसकी एक नन्दिनी नाम की वत्सा थी। कामधेनु तथा उसकी वत्सा नन्दिनी की अद्भुत विशेषताओं से विश्वामित्र इतने प्रभावित और आकर्षित हुए कि उन्होंने वसिष्ठ से कहा कि मुझे इनमें से एक गाय दे दो। वशिष्ठ के इंकार करने पर दोनों के मध्य भीषण संघर्ष हुआ, जिसमे वशिष्ठ के सौ पुत्रों के मारे जाने पर भी विश्वामित्र की इच्छा पूर्ति न हो सकी। वशिष्ठ ने ही हिमालय से अयोध्या आकर राजदंड के नियमन के लिए ब्रह्मदंड अर्थात बुद्धि बल की स्थापना भारत में की, तबसे ही राजाओं की उच्छृंखलता पर अंकुश लगाने के लिए विद्वानों द्वारा नियत की गई दंड की व्यवस्था की गई। पौराणिक ग्रन्थों में वशिष्ठ के द्वारा भारतीय सभ्यता- संस्कृति, विचार, ज्ञान- विद्या, मेधा के विकास के क्षेत्र में किये गए योगदान के वर्णनों से असंख्य पृष्ठ भरे पड़े हैं, ऐसे में अत्यंत ज्ञानी वशिष्ठ के द्वारा भारतीय सभ्यता- संस्कृति के विकास के क्षेत्र में किये गए योगदान अर्थात देश के इतिहास में उनके महत्वपूर्ण कार्यों को स्मरण, नमन करना श्राद्ध पक्ष में समीचीन जान पड़ता है।
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आखिर क्या कारण है कि वशिष्ठ को भारत राष्ट्र का विराट अथवा विशिष्ट पुरुष माना जाता है? भारतीय चेतना में जन के मध्य क्रमशः उनकी प्रतिष्ठा मानव से बढ़कर देवपुरुष के रूप में कैसे होने लगी? देश के इतिहास में वशिष्ठ के द्वारा ऐसा क्या कार्य किया गया है, जिसमें उनके द्वारा निष्पादित महनीय भूमिका के कारण वशिष्ठ आज भी स्मृत, पूजित, नमित किये जाते हैं? और आखिर क्यों यह माना जाने लगा कि वसिष्ठ जैसा महान व्यक्ति सामान्य मनुष्य नहीं, बल्कि कोई लोकोत्तर पुरुष होना चाहिए? उल्लेखनीय है कि वशिष्ठ ब्रह्मा के मानस पुत्र माने जाते हैं, और उनका विवाह दक्ष नामक प्रजापति की पुत्री ऊर्जा से बताया गया, जिससे उन्हें एक पुत्री और सात पुत्र पैदा हुए। वैवस्वत मन्वंतर में हुए वशिष्ठ ऋषि को ब्रह्मर्षि की उपाधि प्राप्त हुई थी। वशिष्ठ ने गृहस्थाश्रम की पालना करते हुए ब्रह्माजी के मार्गदर्शन में उन्होंने सृष्टि वर्धन, रक्षा, यज्ञ आदि से संसार को दिशाबोध दिया। अपने विशिष्ट जनों को, महान नायकों को दैवी महत्व देने की भारतीय परम्परा में तुलसीदास को वाल्मीकि का अवतार तो विवेकानंद को शंकराचार्य की तरह शिव का रूप मान लिए जाने की भांति ही वशिष्ठ जैसे महा प्रतिभाशाली व्यक्ति को ब्रह्मा का मानस पुत्र मान लिया गया।
ध्यातव्य है कि ब्रह्मा का परिवार नहीं है, उनके सिर्फ मानस पुत्र होने की बात ही भारतीय पुरातन ग्रन्थों में आई है। वशिष्ठ के सम्बन्ध में अनेकानेक वर्णन भारतीय पुरातन ग्रन्थों में अंकित प्राप्य हैं, जिनमें अंकित भांति- भांति की कथाएं, खट्टी- मीठी विवरणियां और रंग- विरंगे जीवन के प्रसंगों के समीचीन अध्ययन से स्पष्ट होता है कि वे सभी एक वसिष्ठ के नहीं, बल्कि अलग-अलग वसिष्ठों के हैं, अर्थात वसिष्ठ वंश में पैदा हुए अलग-अलग मुनि-वसिष्ठों के हैं। वसिष्ठ एक जातिवाची नाम है, और वर्तमान में भी जैसे कोई जातिवादी नाम पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्तियों के साथ जुड़ा रहकर चलता रहता है, वैसी ही वशिष्ठ की परम्परा भी प्राचीन काल काल से चलती आ रही है।
पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि दशरथ से ऋष्यश्रृंग की देख-रेख में पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराने वाले, राम आदि का नामकरण करने वाले, उनकी शिक्षा-दीक्षा का प्रबंध करने वाले और राम-लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेजने के लिए दशरथ का मन बनाने वाले वशिष्ठ एक ही थे। इनका तो कोई पृथक नाम नहीं मिलता. परन्तु अन्य कई वशिष्ठ हुए हैं, जिनका अलग नाम भी मिलता है। उदाहरणार्थ, जिस वसिष्ठ के साथ विश्वामित्र का भयानक संघर्ष हुआ, वे शक्ति वसिष्ठ थे। विश्वामित्र को ब्रह्मर्षि मानने से इंकार करने वाले वशिष्ठ का नाम देवराज वसिष्ठ था। ये सब वसिष्ठ अलग-अलग पीढ़ियों के हैं। लेकिन प्रश्न उत्पन्न होता है कि वसिष्ठ नाम आखिर कैसे पड़ा?
वसिष्ठ में वस शब्द है जिसका अर्थ रहना होता है, और निवास, प्रवास, वासी आदि शब्दों में वास का अर्थ इसी आधार पर निकलता है। वरिष्ठ, गरिष्ठ, ज्येष्ठ आदि में जिस ष्ठ का प्रयोग है, उसका अर्थ है सबसे ज्यादा अथवा सर्वाधिक बड़ा। वसिष्ठ अर्थात सर्वाधिक पुराना निवासी। स्मृति परम्परा के अनुसार जो वसिष्ठ, जो आद्य वसिष्ठ, जो सबसे पुराने वसिष्ठ हिमालय से आकर कोशल देश की राजधानी अयोध्या में रहने लगे थे, अर्थात बस गए थे, वे वशिष्ठ कहलाये। वशिष्ठ से सम्बन्धित इससे पूर्व का विवरण अप्राप्य होने के कारण इन्हें श्रद्धावश ब्रह्मा का मानस पुत्र माने जाने की पौराणिक कथाएं पढने को मिल जाती हैं, वहीं ऋग्वेद में भी आधुनिक विद्वानों द्वारा मानव इतिहास ढूंढकर गढ़े गए वरुण- उर्वशी के सन्तान बन जाने की कथा भी प्राप्य हैं।
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प्रश्न उत्पन्न होता है कि वसिष्ठ, आद्यवशिष्ठ हिमालय से नीचे उतर अयोध्या में आकर क्यों रहने लगे? इस सम्बन्ध में भारतीय पुरातन ग्रन्थों में उपलब्ध कथा के अनुसार सतयुग और त्रेतायुग के संधिकाल में हुए महा जल प्लावन के पश्चात बचे संसार के आरम्भिक काल में सामाजिक अव्यवस्था से त्राण पाने के लिए जन समाज ने मनु को अपना पहला राजा बनाया और मनु ने ही समाज और शासन के व्यवस्थित संचालन के लिए नियमों की व्यवस्था देते हुए संसार का सबसे पहला स्मृति ग्रन्थ मनुस्मृति की रचना की। जलप्लावन के बाद मानव इतिहास में यह एक सर्वथा नवीन प्रयोग था, जिसमें पूरे समाज के द्वारा अपनी सारी शक्तियां, अपना पूरा वर्तमान और अपने सभी सपने एक राजा के हाथ में सौंप दिया गया था। स्वाभाविक रूप से इसके बाद राजा अतिशक्तिशाली बन गया था। समाज के लिए यह बिल्कुल एक नई बात थी, और एक व्यक्ति पूरे समाज के वर्तमान और भाग्य का विधाता बन गया था। हिमालय निवासी आद्य वसिष्ठ को यह व्यवस्था, यह बात खटकी और इससे उन्हें खतरा महसूस हुआ कि इतना शक्तिशाली और ऐश्वर्य सम्पन्न राजा उन्मत्त भी तो हो सकता है? उनका विचार था कि राजदंड के उन्मत्त और आक्रामक स्थिति प्राप्त करने पर अथवा आवश्यक होने पर राजदंड पर नियंत्रण करने के लिए कोई बड़ा राजदंड काम नहीं आ सकता था, बल्कि ज्ञान का, त्याग का, अपरिग्रह का, वैराग्य का, अंहकार हीनता का ब्रह्मदण्ड ही राजदंड को नियमित और नियंत्रित कर सकता था।
उन्हें यह भी पत्ता था कि उस समय उनके अतिरिक्त यह काम और किसी के वश का नहीं था, इसलिए यह विचार मन में आते ही हिमालय से उतरकर वसिष्ठ अयोध्या आ गए, उस समय वहां मनु के पुत्र इक्ष्वाकु राज्य कर रहे थे। उनके आगमन पर इक्ष्वाकु ने उन्हें सत्कारपूर्वक बैठाया और उनकी बात सुनकर उन्हें अपना कुलगुरू बनाया और तब से राज्यबल का नियमन ब्रह्मबल अर्थात बुद्धि बल से होने की एक नई परम्परा की शुरुआत भारत में हुई, और शासन व्यवस्था में ही नहीं वरन समाज में भी एक शानदार तालमेल और संतुलन का सूत्रपात भी हुआ। और तब से ही रथ पर जा रहे राजा के समक्ष स्नातक अथवा विद्वान के आ जाने की स्थिति में राजा को अपने रथ से उतर प्रणाम कर और आगे बढ़ने की प्रवृति प्रवृद्ध होकर भारत में सामाजिक आदर्श बन गई। पुरातन ग्रन्थों में अंकित वशिष्ठ से सम्बन्धित विवरणियों से स्पष्ट होता है कि हिमालय से आकर अयोध्या में बसने और राजदंड पर ब्रह्मदंड अर्थात बुद्धिबल के नियमन किये जाने की इस छोटी सामान्य सी घटना में ही वसिष्ठ का वह अमूल्य योगदान छिपा पड़ा है, जिसने इस देश की विचारधारा को एक नया मोड़ दे दिया। एक बड़े विचार अथवा आदर्श की स्थापना से कहीं ज्यादा मुश्किल उस पर आचरण करना होता है, लेकिन वशिष्ठों ने विभिन्न कष्टों के मध्य अपने आदर्श आचरण के पालन से से यह सिद्ध कर दिया कि इसमें वे श्रेष्ठ हैं।
यही कारण है कि वसिष्ठों को विशेष सम्मान भारतीय संस्कृति परम्परा में प्रदान किया गया है, जो कि ऐतिहासिक रूप से भारतीय पुरातन ग्रन्थों में भी अंकित प्राप्य है। अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशीय एक राजा सत्यव्रत त्रिशंकु के द्वारा अपने मरणशील शरीर के साथ ही स्वर्ग जाने की पागल जिद्द पकड़ लेने और अपने कुलगुरु देवराज वसिष्ठ से तत्सम्बन्धी यज्ञ करने के लिए कहे जाने पर वसिष्ठ ने स्पष्ट इन्कार कर दिया। भले ही उन्हें बाद में अपने पद से हाथ धोना पड़ा। परन्तु जब इसी वसिष्ठ ने एक बार यज्ञ में नरबलि का कर्मकाण्ड करना चाहा तो फिर विश्वामित्र ने उसे रोका और देवराज की काफी भर्त्सना अर्थात फजीहत हुई। इसके बाद जब वसिष्ठों को वापस हिमालय वापस जाने को मजबूर होना पड़ा, तो हैहय राजा कार्तवीर्य अर्जुन ने उनका आश्रम तक जला डाला। पुनः वापस लौटे वसिष्ठों में दशरथ और श्रीराम के कुलगुरू वसिष्ठ इतने बड़े ज्ञानी, शांतशील और तपोनिष्ठ सिद्ध हुए कि उन्होंने परम्परा से उनसे शत्रुता कर रहे विश्वामित्रों पर अखंड विश्वास कर अपने परम शिष्य दशरथ पुत्र श्रीराम और लक्ष्मण को उनके साथ वन तक भेज दिया। वशिष्ठों की इसी परम्परा में एक मैत्रावरूण वसिष्ठ हुए जिनके 97 सूक्त ऋग्वेद में अंकित प्राप्य हैं, जो ऋग्वेद का लगभग दसवां हिस्सा है। विराट बौद्धिक योगदान के लिए प्रसिद्ध इस कुल में एक अन्य शक्ति वसिष्ठ हुए, जिनके पास कामधेनु थी जिसका दुरूपयोग कर अहंकार पालने का अवसर उन्होंने कभी भी किसी को नहीं दिया। अहंकारी, घमंडी विश्वामित्रों को ऐसी गाय न मिले, इसके लिए अपने पुत्रों का बलिदान देकर भी उन्होंने एक भयानक संघर्ष विश्वामित्रों के साथ किया, और उन्हें कामधेनु हाथ लगने नहीं दी। ऐसे में यह हम भारतीयों का ही कर्तव्य है कि भारतीय सभ्यता- संस्कृति, ज्ञान- विज्ञान, मेधा- विचार के क्षेत्र में वशिष्ठों के महती योगदान और फिर भारतीय शासन व्यवस्था में राजदंड के ऊपर ब्रह्मदंड का संयम रखने का आचरणीय विचार देश को देने वाले वशिष्ठ को सत्य हृदय से नमन कर उन्हें श्राद्ध पक्ष में श्रद्धांजलि देना सुनिश्चित करें ।
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