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वेद मन्त्रों की ज्ञानमती ऋषिकाएं

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वेद मन्त्रों की ज्ञानमती ऋषिकाएं
वेद मन्त्रों को सरसरी तौर पर देखने मात्र से ही अकेले ऋग्वेद में 24 मन्त्र द्रष्ट (द्रष्टा) ऋषिकाओं का नाम मिल जाता है। अथर्ववेद में भी 5 मन्त्रद्रष्ट ऋषिकाओं का उल्लेख है। ऋग्वेद में इन 24 ऋषिकाओं द्वारा दृष्ट मन्त्र 224 हैं और अथर्ववेद में 5 ऋषिकाओं द्वारा दृष्ट मन्त्रों की संख्या 198 हैं। इस प्रकार इन दोनों वेदों में ऋषिकाओं द्वारा दृष्ट मन्त्रों की संख्या 422 हैं। ved mantron gyaanamatee rshikaen वैदिक मंत्र दृष्टा पुरुष ऋषियों की भांति ही मन्त्र दृष्टा स्त्री ऋषि अर्थात ऋषिकाएं भी हुई हैं, जिन्होंने वेद मन्त्रों के रहस्यों का उद्बोद्धन कर सूक्तों व मन्त्रों के रूप में सूत्रबद्ध करने अर्थात वर्तमान रूप में उनकी रचना करने में महत्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। वेदों में मन्त्रद्रष्ट ऋषि के रूप में उल्लेखित स्त्री नाम धारी ऐसी विदुषी एवं ज्ञानवती स्त्रियों ने अपनी तपश्चर्या द्वारा स्वयं वेद मन्त्रों के रहस्यों का साक्षात्कार करके लोकमंगल की भावना से दूसरों के लिए वेद मन्त्रों का व्याख्यान एवं प्रकाशन किया, और श्रुत ऋषि की संज्ञा से अभिभूत हुई। अपने पूर्व ऋषियों से वेद के रहस्यार्थ का बोध, सूक्तों एवं मन्त्रों के रूप में करने के कारण प्रसिद्ध हुई इन स्त्री ऋषियों को वेदों में वर्णित विषय अर्थात सूक्त अथवा मन्त्र के देवता के अनुरूप ही नाम प्रदान किया गया है, और इन्हें सूक्तनिबद्ध  प्रवक्ता के रूप में भी देखा जा सकता है। वेद मन्त्रों को सरसरी तौर पर देखने मात्र से ही अकेले ऋग्वेद में 24 मन्त्र द्रष्ट (द्रष्टा) ऋषिकाओं का नाम मिल जाता है। अथर्ववेद में भी 5 मन्त्रद्रष्ट ऋषिकाओं का उल्लेख है। ऋग्वेद में इन 24 ऋषिकाओं द्वारा दृष्ट मन्त्र 224 हैं और अथर्ववेद में 5 ऋषिकाओं द्वारा दृष्ट मन्त्रों की संख्या 198 हैं। इस प्रकार इन दोनों वेदों में ऋषिकाओं द्वारा दृष्ट मन्त्रों की संख्या 422 हैं। ऋग्वेद में आये 24 ऋषिकाओं के नाम, उनके द्वारा दृष्ट मन्त्रों की संख्या और सूक्त संख्या क्रमशः निम्नवत है-

शास्त्रीः सादगी का संत प्रधानमंत्री

hypocrisy name of religion ved mantron gyaanamatee rshikaen अदिति-10-4/18, 10/72, देवजामि( देवजामयः)-5-10/153 , सूर्या सावित्री - 47-10/85, घोषा कक्षीवती -28-10/39-40, सिकता निवावरी –20 -9/86, सर्पराज्ञी (सार्पराज्ञी)- 3 -10/189, दक्षिणा प्राजापत्य -11-10/107, इंद्राणी-17-10/ 86, 145, सचि (पौलोमी शचि)- 6-10/159, यमी वैवस्वत-11-10/10,154, वाक् आम्भृणी -8-10/125, अपाला आत्रेयी -7-8/91, जुहू ब्रह्मजाया-7-10/109, अगस्त्यस्वसा -6-10/60, विश्ववारा आत्रेयी-6 -5/28, उर्वशी -6-10/95, सरमा देवशुनी-6-10/108, शिखण्डिन्यौ अप्सरसौ- 6-9/104, श्रद्धा कामायनी -5-10/151, नदी-4- 3/33, गोधा-1 -10/134, शाश्वती (शश्वती आंगिरसी)-1-8/1, वसुक्रपत्नी-1-10/28,रोमशा ब्रह्मवादिनी -1-1/126 हैं। वेदों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि वेद मन्त्रों को सूत्रबद्ध करने के कार्य अर्थात मन्त्र दृष्ट कार्य में वैदिक मन्त्र द्रष्टा सप्तर्षियों के समान ही इन ऋषिकाओं का भी अद्भुत योगदान है, और इनके द्वारा दृष्ट एवं प्रकाशित सूक्त एवं मन्त्रों में निहित जीव जगत एवं ब्रह्म विषयक गूढ़ ज्ञान के अध्ययन, मनन से भारतीय मन व मस्तिष्क श्रद्धावत इनके चरणों में नतमस्तक हो जाता है। भारतीय सभ्यता -संस्कृति के संरक्षण, संवर्द्धन और विकास में, विचारों के प्रवाह में, बौद्धिक योगदान में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के कारण इन मन्त्र द्रष्टी स्त्री ऋषि अथवा ऋषिकाओं के प्रति भारतीयों के हृदय में प्राचीन काल से ही अपार सम्मान और अगाध श्रद्धा रही ऐसी ख्यातिनाम वेद मन्त्र द्रष्ट ऋषिकाओं के भारतीय सभ्यता- संस्कृति में योगदान को स्मरण, उनको नमन, उनके प्रति श्रद्धा प्रदर्शन, उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित कर ही नवरात्र काल की सार्थकता को सिद्ध करने की उम्मीद की जा सकती है। उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद में उल्लिखित इन 24 में से 18 ऋषिकाएं ऋग्वेद के दशम मंडल के विभिन्न सूक्तों की ऋषि हैं। विश्ववारा आत्रेयी पंचम मंडल के सूक्त 5/28 के ऋषि हैं। ऋग्वेद से संबंधित ये सभी ऋषियां किसी न किसी वैदिक ऋषि परिवार से संबंधित बताई गई हैं। ये सभी ऋषियां किसी न किसी ऋषि की पुत्री, पत्नी व बहन आदि हैं। इनमें से कुछ स्त्रियां देवताओं और ऋषियों की माताएं भी हैं। इन वैदिक स्त्री नामों से सम्बन्धित उल्लेखों के समीचीन अध्ययन से स्पष्ट होता है कि ये नाम प्रायः देवता अर्थात प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप ही रखे गए हैं। ऋग्वेद के दशम मंडल के 151वें सूक्त  की ऋषि श्रद्धा है, और इसकी देवता भी श्रद्धा है। इसमें श्रद्धा की महत्ता का चित्रण है। यह सर्वविदित है कि सत्य को श्रद्धा कहते हैं, और सत्य के धारण करने वाली दृढ़ इच्छाशक्ति अथवा धारणा शक्ति का नाम श्रद्धा है- श्रत् सत्यं दधातिती श्रद्धा। सत्य पर ही समाज, राष्ट्र एवं विश्व प्रतिष्ठित है। ऐसे सत्य को हृदय में धारण करने वाली दिव्य शक्ति श्रद्धा सत्य ही वंदनीय है, पूजनीय है, और श्रद्धा की महत्ता का वर्णन करने वाले ऋषि का नाम भी श्रद्धामय अथवा साक्षात श्रद्धा स्वरूप होना नितांत समीचीन एवं युक्तियुक्त ही है। श्रद्धा को श्रद्धा कामायनी भी कहा गया है, और यह ऋग्वेद के 5 मन्त्रों की द्रष्टी मानी गई है। श्रद्धा के महत्व का चित्रण स्वयं श्रद्धा ऋषि अपने द्वारा दृष्ट मन्त्र दशम मंडल के 151 वें सूक्त में करना देवता अर्थात प्रतिपाद्य विषय के अनुरूप ही नाम रखे जाने का सूचक है। pakistani hindu ved mantron gyaanamatee rshikaen

कृषि को ब्रह्म कर्म बनाने वाले ऋषि गृत्समद

मानव सृष्टि के प्रारम्भिक आदि सनातन काल में स्वरक्षा और परमात्मा प्रदत्त वेदज्ञान को संरक्षण हेतु सूत्रबद्ध करने का कार्य अर्थात विचारों की पदों की रचना का काम अत्यंत महत्व का था। इस महत्वपूर्ण मन्त्र द्रष्ट कार्य में महती योगदान देने के कारण इस कार्य में संलग्न पुरुष व स्त्रियों को क्रमशः ऋषि व ऋषिका कहा जाता था। ऋषिकाओं की संख्या केवल ऋग्वेद में ही दो दर्जन से कम नहीं है, बल्कि ध्यान से देखने से कई और ऋषिका नाम्नी शब्द मिल जायेंगी, और इन प्रयुक्त नामों में से कई के अन्य नाम भी प्रचलित हैं, अथवा उनसे सम्बन्धित ऋषियों के नाम उनके साथ जुड़े हुए हैं। इसलिए नामों में विविधता है, परंतु इनसे संबंधित विवरणियों को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि इनमें से अधिकांश को मानुषी नहीं कहा जा सकता है। अर्थात अधिकांश मानवेतर प्राणी सिद्ध होती हैं, केवल घोषा और विश्ववारा को ही ऐतिहासिक ऋषि माना जा सकता है। ऋषिकाओं के नाम से संग्रहित ऋग्वेद की ऋचाओं के अध्ययन से इन ऋषिकाओं के उच्च विचारों का, तत्कालीन समय में स्त्रियों को प्राप्त अधिकारों का और उनके जीवन के बारे में महत्वपूर्ण बातों का पता चलता है। ऋग्वेद के दशम मंडल का 72 वां सूक्त बृहस्पति अथवा अदिति का बताया जाता है। इस सूक्त में अदिति का नाम 10/ 72 में आने के कारण इसे अदिति सूक्त का नाम दिया गया है। इस सूक्त में अदिति द्यौ अर्थात दक्ष की पुत्री कही गई है, और दक्ष अर्थात सूर्य को भी अदिति का पुत्र बताया गया है। ऋग्वेद 10/72/4 के अनुसार उत्तानपाद वृक्ष से भूमि उत्पन्न हुई भूमि से दिशाएं उत्पन्न हुई। अदिति से दक्ष, दक्ष से अदिति उत्पन्न हुई। इसके अगले मन्त्र के अनुसार, दक्ष की  दुहिता अदिति ने देवों को जन्म दिया। उसके पीछे महान अमृत बंधु अर्थात अमरदेव उत्पन्न हुए । ऋग्वेद 10/72/8 के अनुसार शरीर से अदिति के जो 8 पुत्र उत्पन्न हुए उनमें से सात के साथ वह देवताओं के पास गई, परन्तु मार्तंड को परे स्थापित कर दिया। इस वर्णन के अध्ययन से ऐसा स्पष्ट होता है कि इसमें सप्त सिंधु की ऋषि का नहीं, बल्कि दिव्य अदिति दिशाओं का वर्णन है। Hindu

शिक्षा, तप, स्वाध्याय वाले ऋषि वामदेव

संसार के सर्वप्रथम ग्रन्थ ऋग्वेद में नारी का प्राचीनतम रूप का अत्यंत उच्चतर वर्णन मिलता है। उस काल में स्त्रियों की स्थिति अत्यंत श्रेष्ठ थी। कन्याओं का बालकों की भांति ही उपनयन संस्कार होते थे, और वे संध्या पूजन की विधि भी पूरे विधान के साथ करने के लिए स्वतंत्र थी। बाल विवाह की प्रथा न होने के कारण यौवनावस्था में पदार्पण करने के पूर्व उनको शिक्षा प्राप्ति का पूर्ण अवसर प्राप्त होता था। ब्रह्मवादिनी घोशा ने ऋग्वेद के दशम मंडल के 39वें एवं 40 वें सूक्तों का साक्षात्कार किया और इंद्र देव की पत्नी इंद्राणी ने ऋग्वेद के दशम मंडल के 86 वें सूक्त की रचना की थी। उस काल में नारी अपने शिक्षा के द्वारा प्राप्त विद्या से पर्यावरण एवं समाज को पूर्ण लाभ प्रदान करती थी। इसलिए उन्हें समाज में अत्यधिक सम्मान प्राप्त था और उन्हें पारिवारिक संगठन में भी पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त थी। उस काल में स्त्रियां सभाओं में भाषण दिया करती थी। कृषि कार्यों में भी सहयोग करती थी। अपाला आत्रेयी, जो ऋग्वेद के अष्टम मंडल के 91वें सूक्त के 7 मन्त्रों की द्रष्टी है, अपने पिता के खेतों में अच्छी फसल की प्राप्ति हेतु इंद्र की याचना करते हुए चित्रित की गई है। वे दों  में नारियों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हुए  नारी को कहीं पुत्री, तो कहीं भगिनी कहा गया है, तो कहीं अन्यत्र पत्नी एवं माता के रूप में चित्रित किया गया है। वेद के पठन- पाठन में रत रहने और मन्त्र द्रष्ट कार्यों में संलग्न रहने से ऋषिका के गौरव पद को प्रतिष्ठित करती दृष्टिगोचर होती है। ऋग्वेद में पुत्री अपने पिता के दीर्घायु का कारण मानी गई है। ऋग्वेद के अष्टम मंडल में मनु वैवस्वत के द्वारा किये गए उदगार –  पुत्रिणा ता कुमारिणा विश्वमा युव्य श्रुतः उभाहिरण्य पेक्षता।  और गृहिणी गृह मुच्यते – से उस काल  में नारियों का गृहस्थी में अत्यंत महत्व और उच्च स्थान प्राप्त होने का पता चलता है। जाया को ही गृहिणी ग्रह की संज्ञा प्रदान किये जाने से भी वैदिक कालीन नारियों के उच्चतर शैक्षणिक स्थिति का भी पता चलता है। कक्षिवान की पत्नी योद्धा ने अपनी तपस्या से ऋग्वेद के दशम मंडल के दो सूक्तों 39 एवं 40 के दर्शन किए, जो अतिदीर्घ एवं आध्यात्मिक दृष्टि से उच्चतर स्थिति प्राप्त होने का परिचय देते हैं। स्त्री शब्द नारी के लिए वैदिक युग से लेकर आज तक सर्वाधिक प्रचलित रहा है। स्त्री शब्द - स्त्यै धातु से बना है, और यास्काचार्य के अनुसार स्त्यै शब्द का अर्थ लज्जा से सिकुड़ना है। स्त्री को स्त्री, उसके लज्जाने के कारण ही कहा जाता है- लज्जार्थस्य लज्जन्ते पि हि ताः । अर्थात नारी की स्त्री संज्ञा उसके लज्जा शील प्रकृति के कारण है। पाणिनि ने धातु पाठ के आधार पर अष्टाध्यायी के स्त्रियाम सूक्त में स्त्री शब्द के विभिन्न अर्थों पर विचार किया है। अधिकांश विद्वानों ने लोक में शारीरिक संरचना के आधार पर- स्त्यायती अस्याम गर्भ इति स्त्री। अर्थात- गर्भ की स्थिति अर्थात पिंड उसके भीतर होने के कारण वह स्त्री है। - अर्थ की उपेक्षा कर स्त्यै धातु को ही आधार मानकर स्त्री का अर्थ किया है। पतंजलि ने स्त्री शब्द की एक दूसरी व्युत्पत्ति देते हुए कहा है- शब्द स्पर्श रूप रस गंधानाम गुणानाम सत्यानाम स्त्री। वेदों में स्त्री को ब्रह्मा भी कहा गया है। ऋग्वेद में स्त्री को जाया भी कहा गया है- तज्याया जाया भवति यदस्याम जायते पुनः । अर्थात- वह जाया इसलिए है क्योंकि पुरुष स्वयं उसमें पुत्र रूप में जन्म लेता है। पुत्र -पुत्री रूप में संसार के दर्शन कराने वाली स्त्री रुपी जाया को नवरात्र काल में दिनानुदिन
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