जीवन मंत्र

थायरॉइड (हाइपोथायरायडिज्म) से सामना कैसे?

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थायरॉइड (हाइपोथायरायडिज्म) से सामना कैसे?
थायरॉइड हमारे गले में तितली की तरह दिखने वाली एक ग्रन्थि है जो शरीर के लिये जरूरी हारमोन्स बनाती है, लेकिन आम लोगों में थायरॉइड शब्द का प्रयोग बीमारी के नाते ज्यादा होता है। थायरॉइड ग्रन्थि में आयी खराबी से होने वाली किसी भी बीमारी के लिये लोग कहने लगते हैं कि मुझे थायराइड हो गया है। जबकि थायरॉइड ग्रन्थि में खराबी आने से 6 अलग-अलग बीमारियां होती हैं- हाइपोथायरायडिज्म, हाइपरथायरायडिज्म, हाशीमोटो डिसीस, ग्रेव्स डिसीस, गोटियर और थायराइड नोड्यूल्स। इनमें सबसे आम है- हाइपोथायरायडिज्म। यह न केवल मरीज की शारीरिक व मानसिक स्थिति बिगाड़ती है बल्कि समय से इलाज न कराने पर आने वाली पीढ़ी को ऑटिज्म जैसे मानसिक विकार से ग्रस्त कर देती है। यह इतनी कॉमन है कि हमारे देश में 12 साल से ऊपर करीब 3 प्रतिशत लोग किसी न किसी रूप में इससे पीड़ित हैं। यह बड़ी उम्र के लोगों, विशेष रूप से महिलाओं में ज्यादा होती है। एक रिपोर्ट के अनुसार आज 60 वर्ष या इससे ऊपर की प्रत्येक पांच महिलाओं में से 1 इससे ग्रस्त है। थायरॉइड ग्रन्थि से बनने वाले हारमोन्स शरीर में ऊर्जा का इस्तेमाल रेगुलेट करते हैं, जिससे सभी अंगों को सुचारू रूप से काम करने के लिये ऊर्जा उपलब्ध रहती है। थायरॉइड ग्रन्थि द्वारा पर्याप्त मात्रा में हारमोन्स न बना पाने से हाइपोथायरायडिज्म नामक बीमारी होती है। थायरॉइड हारमोन्स की कमी से शरीर के नेचुरल फंक्शन धीमे होने से हृदयगति, मेटाबॉलिज्म और शरीर का तापमान गड़बड़ा जाता है। इससे शरीर के इंडोक्राइन सिस्टम, सरकुलेटरी व कार्डियोवैस्कुलर सिस्टम, नर्वस सिस्टम, रेस्पाइटरी सिस्टम, किडनी फंक्शन्स, डाइजेस्टिव सिस्टम और रिप्रोडक्टिव सिस्टम (फरटीलिटी) पर नकारात्मक असर पड़ता है। मेडिकल साइंस में इसे अंडरएक्टिव थायराइड भी कहते हैं। क्यों होती है ये बीमारी? इम्यून सिस्टम में गड़बड़ी: हमारा इम्यून सिस्टम बाहरी बैक्टीरिया या वायरस से हमारी रक्षा करता है और इनके शरीर में प्रवेश करते ही इन्हें नष्ट कर देता है। जब इम्यून सिस्टम में गड़बड़ी आती है तो यह अपने हेल्दी सेल्स को बाहरी समझकर उनपर हमला करता है। मेडिकल साइंस में इसे ऑटोइम्यून रिस्पांस कहते हैं। थायरॉइड ग्लैंड के सम्बन्ध में इस ऑटो-इम्यून रिस्पांस के कारण हाइपोथायरायडिज्म नामक बीमारी हो जाती है। इसमें हमारे अपने इम्यून सिस्टम द्वारा थायरॉइड ग्लैंड के हारमोन्स बनाने वाले सेल्स नष्ट करने से ग्लैंड सूज जाती है जिससे हारमोन्स बनना कम  या बंद हो जाता है। हाइपरथायराइडिज्म के इलाज से: हाइपोथायरायडिज्म के विपरीत हाइपरथायरायडिज्म में थायरॉइड ग्लैंड द्वारा जरूरत से ज्यादा हारमोन्स बनने से स्वास्थ्य सम्बन्धी अनेक समस्यायें हो जाती हैं। थायराइड हारमोन्स के अतिरिक्त उत्पादन को सामान्य करने के लिये होने वाले ट्रीटमेंट के कारण शरीर में हारमोन का स्तर ज्यादा घटने से व्यक्ति हाइपोथायरायडिज्म से ग्रस्त हो जाता है। आमतौर पर ऐसा तब होता है जब ट्रीटमेंट में रेडियोएक्टिव आयोडीन का प्रयोग हुआ हो। थायरॉइड ग्रन्थि का सर्जिकल रिमूवल: ट्यूमर इत्यादि की वजह से थायराइड ग्लैंड को सर्जरी करके रिमूव करने से व्यक्ति हाइपोथायरायडिज्म का शिकार हो जाता है। यदि सर्जरी से थायरॉइड ग्लैंड का केवल एक भाग ही रिमूव हुआ है तो ये शरीर के लिये जरूरी हारमोन बनाती रहती है, लेकिन इसमें समय-समय पर ब्लड टेस्ट से हारमोन का स्तर जांचना जरूरी होता है। रेडियेशन थेरेपी: सिर और गले में लिम्फोमा या ल्यूकेमिया कैंसर होने की स्थिति में इलाज के लिये रेडियेशन थेरेपी के प्रयोग से थायरॉइड ग्लैंड द्वारा हारमोन्स कम बनने या बंद होने से व्यक्ति हाइपोथायरायडिज्म से ग्रस्त हो जाता है। मेडीकेशन: कभी-कभी किसी अन्य बीमारी के इलाज में प्रयोग दवाइयों के साइड इफेक्ट से थायरॉइड ग्लैंड की कार्य-क्षमता घटने पर हारमोन्स बनना कम होने से हाइपोथायरायडिज्म जाता है। क्या लक्षण उभरते हैं इसमें? इसके लक्षण बीमारी की गम्भीरता पर निर्भर हैं और प्रत्येक व्यक्ति के सम्बन्ध में अलग-अलग नजर आते हैं, शुरूआती स्टेज में अलग और देर से डायग्नोज होने पर अलग। जैसे-जैसे रोग पुराना होता है लक्षण बढ़ते हैं। आमतौर पर इससे थकान, डिप्रेशन, कब्ज, धीमी हृदय गति, ठंड लगना, रूखी त्वचा, वजन बढ़ना, मासिक धर्म में बदलाव, प्रजनन सम्बन्धी समस्यायें (प्रेगनेन्ट होने में दिक्कत), आवाज बैठना, मांसपेशियों में कमजोरी, कम पसीना आना, कोलोस्ट्रॉल में बढ़ोत्तरी, जोड़ों में दर्द व अकड़न, सूखे व पतले बाल, याददाश्त में कमजोरी और चेहरे पर पफीनेस जैसे लक्षण उभरते हैं। कैसे पुष्टि होती है थायराइड की? हाइपोथायरायडिज्म की पुष्टि मेडिकल जांच और ब्लड टेस्ट से होती है। मरीज की फिजिकल जांच,  मेडिकल हिस्ट्री और फैमिली हिस्ट्री मालूम करने के बाद डाक्टर हाइपोथायरोडिज्म के लक्षणों को देखते हैं जैसेकि सूखी त्वचा, सूजन, धीमी हृदय गति और रिफ्लेक्सेज में धीमापन। इनके अलावा डाक्टर, मरीज से थकान, डिप्रेशन, कब्ज और ठंड लगने जैसे लक्षणों के बारे में भी पूछते हैं। मेडिकल जांच के बाद टीएसएच (थायराइड सिमुलेटिंग हारमोन) नामक ब्लड टेस्ट से पता किया जाता है कि पिट्यूटरी ग्लैंड कितनी मात्रा में टीएसएच क्रियेट कर रही है- - थायराइड ग्रन्थि के पर्याप्त मात्रा में हारमोन न बनाने पर पिट्यूटरी ग्लैंड टीएसएच बूस्ट करके थायराइड हारमोन का उत्पादन बढ़ाने का प्रयास करती है जिससे हाइपोथायरायडिज्म से ग्रस्त व्यक्ति में टीएसएच लेवल बढ़ जाता है। इसके विपरीत हाइपरथायरायडिज्म के मरीज में टीएसएच लेवल घट जाता है क्योंकि इस कंडीशन में शरीर थायरॉइड हारमोन का उत्पादन घटाने का प्रयास करता है। - हाइपोथायरायडिज्म का पता लगाने के लिये टी-4 (थायरोक्सीन लेवल) टेस्ट भी किया जाता है। टी-4 उन हारमोन्स में से एक है जिसका निर्माण डायरेक्ट थायराइड ग्लैंड द्वारा होता है। यही कारण है कि डाक्टर, थायरॉइड ग्लैंड की सही कार्य क्षमता पता करने के लिये टीएसएच और टी-4 दोनों टेस्ट कराते हैं। ब्लड में टी-4 कम और टीएसएच ज्यादा होने से हाइपोथायरायडिज्म की पुष्टि होती है। इन दोनों टेस्टों के अलावा थायरॉइड से सम्बन्धित बीमारियों को अच्छी तरह से डायग्नोज करने के लिये कुछ और टेस्ट भी किये जा सकते हैं। हाइपोथायरायडिज्म बनाम हाइपरथायरायडिज्म जब थायरॉइड ग्रन्थि जरूरत से ज्यादा हारमोन्स (टी-4 व टी-3) बनाने लगती है तो हाइपरथायरायडिज्म की कंडीशन बनती है। ऐसा उस स्थिति में होता है जब व्यक्ति ज्यादा मात्रा में आयोडीन का सेवन करने लगे, उसे थायरोडाइटिस हो, ओवरी या अंडकोषों में ट्यूमर, थायराइड या पिट्यूटरी ग्रन्थि में बिनाइन (कैंसर रहित) ट्यूमर या उसने बहुत अधिक मात्रा में डायटरी सप्लीमेंट या दवा के रूप में टेट्राआयोडोथाइरोनिन का सेवन किया हो। इस बीमारी के मुख्य लक्षण हैं- ज्यादा भूख लगना, नर्वसनेस, बेचैनी, ध्यान केन्द्रित करने में कठिनाई, दुर्बलता, थायराइड ग्लैंड का बढ़ना, वजन गिरना, सोने में कठिनाई, खुजली, बाल झड़ना, मतली व उल्टी, पुरूषों में स्तन विकास, तेज और अनियमित हृदय गति व सांस लेने में कठिनाई। हाइपोथायरायडिज्म का प्रेगनेन्सी पर असर प्रेगनेन्सी के दौरान अनियन्त्रित हाइपोथायरायडिज्म से एनीमिया, गर्भपात, प्रिक्लेपसिया, स्टिलबर्थ, अंडर वेट बेबी और ऑटिज्म जैसी समस्यायें हो जाती हैं। हाइपोथायराइडिज्म से ग्रस्त महिला को पूरी तरह से स्वस्थ गर्भधारण करने में कठिनाई होती है। ऐसी समस्याओं से बचने के लिये इन बातों का ध्यान रखना जरूरी है- - डाक्टर द्वारा प्रिस्क्राइब दवायें समय पर लें और समय-समय पर ब्लड टेस्ट करायें जिससे शरीर में थायरॉइड हारमोन्स का स्तर पता चलता रहे और दवा को प्रेगनेन्सी की प्रोग्रेस के मुताबिक एडजस्ट किया जा सके। - प्रेगनेन्ट महिलाओं को अपनी डाइट का विशेष ध्यान रखना चाहिये। डाक्टर की सलाह के अनुसार पोषक तत्वों से भरपूर (जिसमें विटामिन, मिनरल्स और माइक्रोन्यूट्रियेन्टस हो) डाइट लें। इससे बच्चे पर हाइपोथायरायडिज्म का नकारात्मक असर कम होगा। - वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन की एक रिपोर्ट के अनुसार 1000 प्रेगनेन्ट महिलाओं में 3 से 5 को हाइपोथायरायडिज्म की समस्या प्रेगनेन्ट होने पर होती है। ऐसे में प्रेगनेन्सी के दौरान थायरॉइड हारमोन का स्तर समय-समय पर चैक करते रहें जिससे शरीर में हारमोन की कमी होने पर इसका इलाज किया जा सके। - कुछ महिलाओं को हाइपोथायरायडिज्म की समस्या बच्चे पैदा होने के बाद होती है इसे प्रसवोत्तर थायराइडिटिस कहते हैं। लगभग 80 प्रतिशत महिलाओं में यह समस्या एक साल बाद बिना दवा के खुद ठीक हो जाती है लेकिन जिन 20 प्रतिशत में यह अपने आप ठीक नहीं होती उन्हें लम्बे समय तक या जीवनभर दवा खानी पड़ती है। हाइपोथायरायडिज्म में वेट मैनेजमेंट शरीर में थायरॉइड हारमोन का स्तर कम होने से अधिकतर लोगों का वजन 5 से 10 पाउंड बढ़ जाता है। ऐसे में बहुत से लोग वजन घटाने के लिये दवाओं का सहारा लेते हैं जो ठीक नहीं है। दवाइयों के बजाय डाइट कंट्रोल और व्यायाम में बढ़ोत्तरी करके वजन कम करें, जब शरीर में थायरॉइड हारमोन का स्तर बहाल हो जायेगा तो शरीर की वजन मैनेजमेंट क्षमता सामान्य हो जायेगी। इस सम्बन्ध में अपने डाक्टर या रजिस्टर्ड डायटीशियन की मदद लें जो वजन घटाने के लिये एक हेल्दी डाइट और एक्सरराइज प्लान बनाये। हाइपोथायरायडिज्म, डिप्रेशन और चिंता इस बीमारी में शरीर के नेचुरल फंक्शन धीमे होने से थकान, मोटापा, डिप्रेशन और मूड स्विंग जैसी समस्यायें होती हैं। एक स्टडी के अनुसार सामान्य डिप्रेशन और हाइपोथायरायडिज्म से हुए डिप्रेशन के कई लक्षण एक समान होते हैं, जैसेकि ध्यान केन्द्रित करने में कठिनाई, वजन बढ़ना, थकान, उदास मन, इच्छाओं और संतुष्टि में कमी व नींद कम आना। ऐसे में डाक्टर यह पता लगाने के लिये कि व्यक्ति को नार्मल डिप्रेशन है या उसे हाइपोथायरायडिज्म से डिप्रेशन हुआ है तो वे अन्य लक्षणों जैसेकि सूखी त्वचा, कब्ज, हाई कोलोस्ट्रोल और बालों का झड़ना इत्यादि पर ध्यान देते हैं। नार्मल डिप्रेशन में ये लक्षण नजर नहीं आते। नार्मल डिप्रेशन और हाइपोथायरायडिज्म से होने वाले डिप्रेशन की पुष्टि की प्रक्रिया में बुनियादी अन्तर यह है कि नार्मल डिप्रेशन की पुष्टि उसके लक्षणों और मेडिकल हिस्ट्री से होती है वहीं हाइपोथायरायडिज्म से होने वाले डिप्रेशन की पुष्टि भौतिक जांच और ब्लड टेस्ट से होती है। यदि डिप्रेशन का कारण हाइपोथायरायडिज्म है तो इलाज के लिये किसी मनोचिकित्सक की जरूरत नहीं होती, जैसे ही हाइपोथायरायडिज्म का इलाज शुरू होगा डिप्रेशन के लक्षण घटने लगेंगे। यदि डिप्रेशन किसी मानसिक बीमारी से है तो इसका इलाज मनोचिकित्सक ही कर सकता है। यदि मरीज को डिप्रेशन और हाइपोथायरायडिज्म दोनों हैं तो मनोचिकित्सक अलग और फिजिशियन अलग इलाज करेगा। नये शोधों से पता चला है कि हाइपोथायरायडिज्म डिप्रेशन के अलावा एंग्जॉयटी के लिये भी जिम्मेदार है। हार्वर्ड विश्वविद्यालय में इस बीमारी से ग्रस्त 18 से 45 वर्ष के 100 लोगों पर हुए एक शोध से पता चला कि उनमें से 60 प्रतिशत लोग एंग्जायटी से ग्रस्त थे। क्या है सही इलाज? हाइपोथायरायडिज्म के इलाज में लीवोथाइरॉक्सीन (लीवोथायराइड, लीवोक्सिल) नामक दवा को सबसे उपयुक्त माना जाता है। यह टी-4 हारमोन का सिंथेटिक संस्करण है जो शरीर को सामान्य रूप से थायरॉइड हारमोन बनाने में मदद करता है। इसे विशेष रूप से रक्त में थायरॉइड का सही स्तर लौटाने के लिये डिजाइन किया गया है। जब इस दवा से हारमोन का सही स्तर बहाल हो जाता है तो हाइपोथायरायडिज्म के लक्षण कम होने लगते हैं। इसका असर दिखाई देने में कई सप्ताह लग सकते हैं। दवा का शरीर पर असर जानने के लिये बार-बार  ब्लड टेस्ट कराना पड़ता है जिससे दवा की सही खुराक (डोज) तय हो सके। चूंकि हाइपोथायरायडिज्म की दवा जीवनभर या लम्बे समय तक खानी पड़ती है इसलिये ब्लड में थायराइड हारमोन का स्तर जानने के लिये साल में कम से कम एक बार ब्लड टेस्ट जरूर कराना चाहिये। थायरॉइड हारमोन का स्तर गड़बड़ाने पर दवा की डोज पुन: सेट करनी पड़ती है। आज बाजार में हाइपोथायरायडिज्म की अनेक दवायें उपलब्ध हैं जिनमें टी-4 और टी-3 (ट्रियोडॉथायरोनाइन) मौजूद होता है। जानवरों, विशेष रूप से सुअर (पिग) से इन हारमोन्स को बनाया जाता है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि ये ज्यादा भरोसेमंद नहीं हैं और अभी तक कोई ऐसी स्टडी भी नहीं है जिससे यह पता चले कि इस तरह की दवायें लीवोथाइरोक्सीन से बेहतर हैं। विशेषज्ञों का कहना है कि मरीज को लीवोथाइरोक्सीन में केवल टी-4 हारमोन दिया जाता है और जब शरीर को सिंथेटिक टी-4 मिलता है तो वह अपने आप टी-3 हारमोन बनाने लगता है। खानपान और प्राकृतिक उपचार इस बीमारी में आयोडीन युक्त बैलेंस डाइट लेनी चाहिये। आयोडीन वह तत्व है जो शरीर को थायरॉइड हारमोन बनाने में मदद करता है। जिन लोगों में आयोडीन की कमी होती है उन्हें हमेशा हाइपोथायराइडिज्म का रिस्क रहता है। आयोडीन की कमी पूरी करने के लिये आयोडीन युक्त नमक, साबुत अनाज, दालें, प्रोटीन, फल और सब्जियां लें। इसके लिये आयोडीन सप्लीमेंट लेना जरूरी नहीं है। सोया से बने खाद्य पदार्थों (सोया मिल्क, टोफू, सोयाबीन व सोया सॉस ) कम खायें क्योंकि ये थायरॉइड हारमोन्स के अवशोषण (एब्जॉर्ब्शन) में बाधक हैं। यदि ऐसा करने में असमर्थ हैं तो दवा लेने से दो घंटे पहले या बाद सोया आधारित खाद्य पदार्थ खाने या पीने से बचें। सोया की तरह से फाइबर भी थायराइड हारमोन के अवशोषण में हस्तक्षेप करता है इसलिये बहुत अधिक मात्रा में फाइबर से भरपूर पदार्थों के सेवन से बचें। चूंकि फाइबर शरीर के लिये जरूरी तत्व है इसलिये इसे पूरी तरह से बंद नहीं किया जा सकता, इसलिये दवा लेने से दो घंटे पहले या बाद हाइ फाइबर वाले खाद्य पदार्थ न लें। कभी भी किसी सप्लीमेंट के साथ थॉयराइड की दवा न लें। सप्लीमेंट को अलग और कम से कम एक घंटे पहले या बाद में लें। ज्यादातर मामलों में डाक्टर थॉयराइड की दवा को खाली पेट लेने की सलाह देते हैं। प्राकृतिक उपचार से उन कारणों का इलाज किया जाता है जिनसे हाइपोथायरायडिज्म होने की सम्भावना होती है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का कहना है कि कुछ मामलों में यह खराब डाइट, स्ट्रेस और शरीर में पोषक तत्वों की कमी से होती है, इसलिये डाइट में हर्बल सप्लीमेंट शामिल करके थायरॉइड के लक्षणों को कम कर सकते हैं। हाइपोथायरायडिज्म के उन मरीजों के लिये प्राकृतिक उपचार को विकल्प के तौर पर प्रयोग किया जाता है जब सामान्य दवाएं असर नहीं करतीं।
  1. हासीमोटो थायरोडाइटिस में इम्यून सिस्टम के थायरॉइड ग्लैंड पर अटैक करने से शरीर में सेलेनियम की सप्लाई घट जाती है। ऐसे में सेलेनियम से भरपूर खाद्य पदार्थों को अपने भोजन में शामिल करें, इससे मेटाबॉलिज्म को ठीक रखने में मदद मिलती है। यह दूध, दही, पनीर, साबुत अनाज, मछली, चिकन और अंडे में पाया जाता है।
  2. सेलेनियम की तरह जिंक भी थायरॉइड ग्लैंड को एक्टीवेट करने में सहायक है। इस सम्बन्ध में हुई एक स्टडी में पाया गया कि जिंक शरीर में टीएसएच को रेगुलेट करने में मदद करता है। जिंक की कमी पूरी करने के लिये चिकन, अंडा, टोफू, हेम्प सीड, दालें, कम वसा वाला दही, ओटमील, मशरूम को अपनी डाइट में शामिल करें।
  3. हमेशा शुगर फ्री व अनप्रोसेस्ड खाना खायें क्योंकि शुगर और प्रोसेस्ड फूड से शरीर में सूजन बढ़ती है। सूजन से शरीर में टी-4 नामक थायरॉइड हारमोन के टी-3 (ट्रिओडाथाइरोनाइन) में परिवर्तित होने की प्रक्रिया धीमी हो जाती है जिससे थायरॉइड से जुड़ी बीमारियां ज्यादा बदतर हो जाती हैं। शुगर खाना बंद करने से स्ट्रेस लेवल घटता है और स्किन सम्बन्धी समस्यायें कम होती हैं। वैसे भी शुगर शरीर में थोड़ी देर के लिये इनर्जी लेवल बढ़ाती है इसलिये खाने से शुगर को ड्रॉप करें ताकि पौष्टिक भोजन से शरीर में इनर्जी लेवल सही ढंग से रेगुलेट हो।
  4. शरीर में थायरॉइड हारमोन की कमी से विटामिन-बी-12 का स्तर कम होता है। इसलिये डाक्टर की सलाह से विटामिन बी-12 सप्लीमेंट का नियमित सेवन करें। इससे हाइपोथायराइडिज्म से हुए डैमेज को रिपेयर करने में मदद मिलती है। थायरॉइड डिसीस से होने वाली थकान दूर करने में विटामिन बी-12 बहुत मददगार है। डाइट में मटर, सेम, तिल के बीज, मछली, दूध, पनीर और अंडे शामिल करके विटामिन बी-12 की कमी पूरी की जा सकती है।
  5. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हैल्थ (अमेरिका) में हुए एक शोध में हाइपोथायराइडिज्म और छोटी आंत में होने वाली समस्यायों के बीच लिंक का अध्ययन किया गया और पता चला कि इस बीमारी से सीबो (एसआईबीओ) अर्थात स्माल इंटस्टाइन बैक्टीरियल ओवरग्रोथ होने से क्रोनिक जीआई सिम्पटम पैदा होते हैं जिससे मरीज को डाइरिया हो जाता है। ऐसे में प्रोबॉयोटिक का सेवन लाभदायक है। प्रोबॉयोटिक को दवा के रूप में लेने के अलावा इसे फरमेन्टेड भोजन, दही और चीज के रूप में लिया जा सकता है।
  6. हाइपोथायरायडिज्म के मरीजों के लिये ग्लूटेन फ्री डाइट ज्यादा अच्छी है। इस क्षेत्र के विशेषज्ञों का मानना है कि हाइपोथायरायडिज्म के ज्यादातर मरीज सेलियक डिसीस से भी ग्रस्त होते हैं। सेलियक डिसीस एक डाइजेस्टिव डिस्आर्डर है जो खाने में ग्लूटेन की मात्रा ज्यादा होने से ट्रिगर होता है और स्माल इन्टस्टाइन (छोटी आंत) के इम्यून रिस्पांस को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है। इस सम्बन्ध में हुए शोध से पता चला कि हाइपोथायरायडिज्म और हाशीमोटो के मरीजों ने जब अपने खाने से गेहूं और ग्लूटेन युक्त खाद्य पदार्थों को हटा दिया तो उन्हें बहुत राहत महसूस हुई।
इन्हें खाने से परहेज करें: हाइपोथायरायडिज्म के मरीजों को मूंगफली, शकरकंद, स्ट्राबेरी, ज्वार, बाजरा, सोयाबीन, गोभी, ब्रोकली, पत्तागोभी, सोयाबीन, पीयर्स (नाशपाती), आड़ू और पालक के सेवन से बचना चाहिये, क्योंकि इनमें मौजूद गोईट्रोजन नामक कम्पाउंड थायरॉइड ग्लैंड के नार्मल फंक्शन को बाधित करता है जिससे हारमोन बनना कम हो जाता है। पेय पदार्थों में कॉफी, ग्रीन टी और शराब के सेवन से बचें क्योंकि ये थायरॉइड हारमोन्स बनने की गति धीमी करते हैं। हाइपोथायरायडिज्म के साथ जीवन यह जीवनभर या लम्बे समय तक चलने वाली बीमारी है इसके साथ सामान्य जीवन जीने के लिये लाइफ स्टाइल में बदलाव जरूरी है। जैसेकि अच्छी नींद लेना, डाइट में फल और सब्जियों की बढ़ोत्तरी और नियमित व्यायाम, मेडीटेशन और योगा। बीमारी का स्ट्रेस घटाने के लिये अपने दोस्तों और परिवार वालों से अपनी भावनायें और अनुभव शेयर करें व ऐसे लोगों से मिलेजुलें जो इसी बीमारी से पीड़ित हैं। कई बार हाइपोथायरायडिज्म की कंडीशन सेलियक डिसीस, डॉयबिटीज, रूमेटाइड अर्थराइटिस, लूपस, एड्रेनल ग्लैंड डिस्आर्डर, पिट्यूटरी ग्लैंड डिस्आर्डर और ऑब्सट्रक्टिव स्लीप एपनिया जैसी बीमारियों से भी बन जाती है ऐसे में इन बीमारियों का जल्द से जल्द ट्रीटमेंट शुरू करें जिससे थायरॉइड के लक्षणों में कमी आये।
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