विश्व में होने वाले निर्माण के कर्म को करने वाले देवताओं में ब्रह्मा और देवशिल्पी को विश्वकर्मा, ऋषियों में ब्रह्मर्षि अंगिरा, देवपुरोहित विश्वरूप, देवगुरू बृहस्पति, प्रभाष ऋषि, कश्यप ऋषि आदि को विश्वकर्मा की उपाधि प्राप्त हुई। विश्वकर्मा सिर्फ परब्रह्म , देवताओं और ऋषियों के नाम एवं उपाधियाँ ही नहीं है, बल्कि विश्वकर्मा एक कर्म है और विश्वकर्मा के वास्तु शिल्प कर्मो को धारण करने वाले सभी मनुष्य विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मण कहलाए। Vishwakarma Puja 2021 Date
-अशोक “प्रवृद्ध”
वैदिक मतानुसार विश्वकर्मा शब्द से ईश्वर, सूर्य, वायु, अग्नि, आदि का ग्रहण होता है। वेदों में अंकित विश्वकर्मा शब्द का व्यापक अर्थ है। विश्वकर्मा गुणवाचक शब्द है, व्यक्तिवाचक नहीं। इसलिए विश्वकर्मा शब्द से किसी निश्चित विश्वकर्मा का ज्ञान न होकर अनेक विश्वकर्माओं का ज्ञान होता है। वेद व सृष्टि की रचना का अद्भुत सामर्थ्य सिर्फ परमेश्वर में ही है। इसलिए सर्वप्रथम विश्वकर्मा वही है। परमेश्वर के अनन्त गुण, कर्म स्वभाव होने से उसके विश्वकर्मा नाम की भांति सच्चिदानन्द निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु व सृष्टिकर्ता आदि अनन्त नाम हैं, किन्तु उसका मुख्य नाम ओ३म है। विश्वकर्मा परमेश्वर ने जगत में अनेक पदार्थ रचे हैं। उन पदार्थों में परमेश्वर ने जितने-जितने दिव्यगुण स्थापित किये हैं उतने-उतने ही दिव्यगुण हैं, न उससे अधिक और न न्यून। उन दिव्यगुणों के द्वारा विश्व में अपना-अपना कर्म करने से अग्नि, सूर्य, वायु आदि जड़ पदार्थ भी विश्वकर्मा कहलाते हैं। वेदादि भारतीय पुरातन ग्रन्थों के अध्ययन से इस सत्य का सत्यापन होता है कि सृष्टि रचयिता परमपिता परमात्मा, शिल्पशास्त्र के आविष्कारक व सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता ऐतिहासिक महापुरुष विश्वकर्मा तथा सूर्य, वायु, अग्नि, पृथ्वी व वाणी आदि जड़ चेतन रूप से अनेक विश्वकर्मा हैं। शिल्पशास्त्र के ज्ञाता विश्वकर्मा ईश्वरंनाम्नी वैदिक विश्वकर्मा से भिन्न हैं, परन्तु वैदिक ज्ञान से दूर विभिन्न देवी- देवताओं के पूजा में लीन अंधबिश्वासी जन वैदिक विश्वकर्मा और शिल्प शास्त्र के ज्ञाता ऐतिहासिक विश्वकर्मा तथा जड़- चेतन रूप सभी विश्वकर्माओं को एक समझ बैठे हैं। निरूक्तकार यास्क विश्वकर्मा शब्द का यौगिक अर्थ करते हुए कहते हैं-
विश्वानि कर्माणि येन यस्य वा स विश्वकर्मा अथवा विश्वेशु कर्म यस्य वा स विश्वकर्मा , विश्वकर्मा सर्वस्य कर्ता ।।
- निरुक्त शास्त्र 10/25
अर्थात- विश्व अर्थात सृष्टि जगत के सम्पूर्ण कर्म जिसके द्वारा सम्पन्न होते हैं अथवा सम्पूर्ण विश्व अर्थात सम्पूर्ण सृष्टि जगत में जिसका कर्म है, वह सब जगत का कर्ता विश्वकर्मा है।
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इस प्रकार विविध कला कौशल के आविष्कार के आधार पर अनेक विश्वकर्मा सिद्ध हो सकते हैं, लेकिन सर्वाधार सर्वकर्ता परमपिता परमात्मा ही सर्व प्रथम विश्वकर्मा है। ऐतरेय ब्राह्मण के मतानुसार प्रजापति (परमेश्वर) प्रजा को उत्पन्न करने से सर्वप्रथम विश्वकर्मा है। वेदों में परमेश्वर के विश्वकर्तृत्व के अद्भुत व मनोरम चित्रण उसे विश्वकर्मा की संज्ञा से अभिहित करते हुए अनेक स्थानों पर की गई है। सृष्टि का मुख्य निर्माण कर्त्ता, कारण परमात्मा ही है। वही सब सृष्टि को प्रकृति के उपादान कारण से बनाता है। इस कारण सर्वप्रथम विश्वकर्मा परमेश्वर है। परमेश्वर ने जगत को बनाने की निर्माण सामग्री प्रकृति से सृष्टि की रचना की है। इसलिए एकमात्र वही उपासनीय है। तथा जो शिल्पविद्या के विद्वान विश्वकर्मा हुए हैं, उनमें ऋषि प्रभास के पुत्र को आदि विश्वकर्मा माना जाता है। इसके साथ ही ऋषि भुवन के पुत्र विश्वकर्मा, ऋषि त्वष्टा के पुत्र विश्वकर्मा आदि अनेक विश्वकर्मा हुए हैं। वर्तमान में शिल्प विद्या से सम्बंधित समाज को विश्वकर्मा समाज माना जाता है।
इस प्रकार यह स्पष्ट है कि समस्त संसार की उत्पत्ति से लेकर समस्त कर्म करने की योग्यता रखने वाले एकमात्र ब्रह्म परमेश्वर को विश्वकर्मा कहा जाता है। इससे जुड़े निर्माण के कर्म को धारण करने वाले शिल्पियों को विश्वकर्मा वैदिक शिल्पी ब्राह्मण कहते हैं। सर्वप्रथम विश्वकर्मा की उपाधि परब्रह्म विराट पुरुष को प्राप्त हुई, इसी कारण उन्हें विश्वकर्मा की संज्ञा से अभिहित किया गया। उस ब्रह्म अर्थात परब्रह्म की सृष्टि की सबसे शाश्वत ध्वनि अर्थात नाद को ओ३म कहा जाता है। उनके अंतहीन स्वरूप को विराट कहा गया। विराट को प्रजा के प्रथम पालक के स्वरूप के कारण प्रजापति कहा गया। जिनके पुरुषार्थ से इस सृष्टि का सृजन होता है, इसलिए उस परब्रह्म को पुरुष की भी उपाधि मिली। वह एक मात्र परमेश्वर सभी जीवों में समान रूप से व्याप्त होने के कारण विष्णु कहलाते हैं। औऱ वे ही जीवों का कल्याण करने के कारण शिव कहलाते है। ये सब नाम एवं उपाधियाँ उसी ब्रह्म अर्थात परब्रह्म की है। वेदों में उस विश्वकर्मा को सर्वदृष्टा, सर्वपालक, सर्वश्रेष्ठ औऱ सर्वस्तुत्य पिता कहा गया है। वे विश्वकर्मा परमात्मा ही संपूर्ण विश्व के पति अर्थात विश्वपति या विश्व के रूप अर्थात विश्वरूप, नियामक, पालक, सभी यज्ञों के भोक्ता, स्वामी तथा धाता -विधाता कहे गए हैं। ऋग्वेद में जगसृष्टा विश्वकर्मा के सम्बन्ध में कहा गया है-
ॐ विश्वकर्मा विमना आदिह्राया धाता विधाता परमोत संदृक्।
तेषामिष्टनि समिया मदन्ति यत्रा सप्त पर एकमाहुः ।।
– ऋग्वेद 10/ 82/ 9
अर्थात- वह महान विश्वकर्मा जिसका समस्त जग को निर्माण करने का कार्य है और जो अनेक प्रकार के विज्ञान से युक्त, समस्त पदार्थों में व्याप्त, सबका धारण पोषण करने एवं रचने वाला, सबको एक समान देखने वाला, सबसे उत्तम है और जो परमात्मा अद्वितीय है वैसा कोई और नहीं है। विद्वान लोग कहते हैं वह सप्तऋषियों से भी ऊंचे स्थान पर स्थापित है औऱ उनकी अभिलाषाओ को हव्यान्न द्वारा पूर्ण करते हैं।
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परम पुरुष विश्वकर्मा के गुणों का वर्णन करते हुए यजुर्वेद पुरुषसूक्त 31/17 कहता है- परमपुरुष विश्वकर्मा ने सर्वप्रथम जल को उत्पन्न किया। तत्पश्चात पृथ्वी को उसी जल के रस से उत्पन्न किया। त्वष्टा रूपी विश्वकर्मा संसार को विभिन्न रूप धारण कराते हैं तथा मनुष्यों को देवत्व औऱ अमरता प्रदान करते हैं। पुराणों में भी परमपुरुष विश्वकर्मा के इस रूप का वर्णन प्राप्य है। ब्रह्म पुराण अध्याय 2 में सृष्टि की उत्पत्ति से पूर्व का रहस्य बताते हुए कहा गया है कि उस समय पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और मन, बुद्धि, घ्राण आदि इन्द्रियाँ कुछ भी नहीं थी, ब्रह्मा, विष्णु, शिव या अन्य कोई देवता भी नहीं थे, उस सर्व शून्य प्रलय में समस्त ब्रह्मांड को अपने में ही आवृत अर्थात समाये हुए सबका पूज्य केवल एक ही विश्वकर्मा परमेश्वर परब्रह्म विद्यमान थे।
विराट विश्वकर्मा परब्रह्म के स्वरूप का वर्णन वशिष्ठ पुराण के काण्ड 3, अध्याय-6, श्लोक 11 में करते हुए कहा गया है कि परब्रह्म श्री विश्वकर्मा सम्पूर्ण जगत के मूल आधार हैं। उनके पाँचों मुखों से पंचब्रह्माओं- मनुब्रह्मा अर्थात शिवशंकर, मयबह्मा अर्थात विष्णु, त्वस्टाब्रह्मा अर्थात ब्रह्मा, शिल्पीब्रह्मा अर्थात इन्द्र, दैवज्ञब्रह्मा अर्थात-सूर्य की उत्पत्ति हुई है। इन्हीं पंचब्रह्माओं से ही पंचऋषि गोत्र - सानग, सनातन, अहभून, प्रयत्न और दैवज्ञ ऋषियों का भी उदय होता है। ये पंचऋषि वेद शास्त्रों के साथ ही ज्ञान- विज्ञान, तंत्र- मंत्र और यंत्र के ज्ञाता थे। इसके माध्यम से सृष्टि के निर्माण को अपने सर्वोच्च आयाम पर स्थापित किया। सामवेद अध्याय 33 के मंत्र 22 में परब्रह्म विराट विश्वकर्मा की स्तुति में कहा गया है कि हे ब्रह्म ! तुम अपने सभी शत्रुओं को हरा देने वाला इंद्र है, सूर्य को चमकाने वाला सर्वोच्च प्रकाश है, सभी कर्मों का स्वामी विश्वकर्मा है और सभी देवताओं में श्रेष्ठ विश्वदेव, महादेव अर्थात महान परमात्मा है। ऋग्वेद 10/81/3 भी विश्वकर्मा परब्रह्म को सृष्टि के अनंत स्वरूप विश्व के रूप में सम्बोधित करता है-
विश्वतक्षोरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरत विश्वतस्पात।
संवाहुभ्यां धमति सं पतत्रैर्द्यावा भूमि जनयन देव एक:।।
– ऋग्वेद मंडल -10, सूक्त – 81 मंत्र – 3
अर्थात – जगतकर्ता विश्वकर्मा प्रभु की सम्पूर्ण विश्व ही उनकी आँखें है अर्थात सब जगह उनकी आँखें है ,सम्पूर्ण विश्व ही उनके मुख है अर्थात सब जगह उनका मुख है, सम्पूर्ण विश्व ही उनकी भुजाएं हैं अर्थात सब जगह उनकी भुजाएं हैं और सम्पूर्ण विश्व ही उनके पग हैं अर्थात सब जगह उनके पैर हैं। सूर्यलोक तथा पृथ्वी लोक को उत्पन्न करता हुआ वह एक देव अर्थात विश्वकर्मा परमेश्वर अपनी भुजाओं और पैरों से हमें सम्यक प्रकार से युक्त कर देता है।
इस मन्त्र से यह स्पष्ट है कि विश्व और उसमें व्याप्त वस्तुएं परब्रह्म के अंग अर्थात अंश है जिसका एक संयुक्त विराट रूप परब्रह्म विश्वकर्मा है। परन्तु कालान्तर में वेद के माध्यम से ही इस लोक में प्रश्रुत विश्वकर्मा शब्द का उपयोग एक उपाधि के रूप में करने की प्रथा चल पड़ी और नवीन शिल्पविद्याओं के आविष्कारक महान विद्वान विशेष दक्ष लोग विश्वकर्मा पदवी को धारण करते चले गए। इसलिए देवताओं के शिल्पी एवं आचार्य को देवशिल्पी प्रजापति विश्वकर्मा कहा गया है। अद्भुत कला कौशल्य के व्यवस्थापक विश्वकर्मा सतयुग में राजा इक्ष्वाकु के समय में हुए थे, जिन्होंने इधर- उधर भ्रमण के लिए विमान की युक्ति निकाली। मानव जाति के पूज्य शिल्प प्रजापति विश्वकर्मा शिल्पशास्त्र के अविष्कर्ता व ज्ञाता थे। भारतीय वास्तुकला के ज्ञाता, शिल्पकला के विद्वान, पण्डित, अभियंता आदि उन्हें अपना आदर्श व शिल्प विद्याजगत में अपना आदि पुरुष मानते हैं। वे विमान आदि की युक्ति निकाल कर शिल्पविद्या के प्रथम आविष्कारक बने।
वराह पुराण अध्याय-56/ 42 में विराट परब्रह्म विश्वकर्मा के द्वारा देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा के उत्पन्न होने तथा उसके कर्मो का वर्णन करते हुए कहा गया है कि विश्व-ब्रह्माण्ड की सृष्टि में सर्वलोकों के हित के लिए अग्निहोत्रादि यज्ञ-हवन तथा शिल्पसाध्य विज्ञानादि बड़े-बड़े यज्ञों के करने -कराने तथा सभी वर्णों के प्राणियों को स्थिर रखने हेतु पाषाण अर्थात शिला, काष्ठ आदि की प्रतिमाओं के निर्माणार्थ, सर्वलोकों के उपकारार्थ ब्रह्म परमेश्वर विराट विश्वकर्मा ने बुद्धि से विचार कर शिल्पी प्रजापति विश्वकर्मा को पृथ्वी पर उत्पन्न किया। वह महान पुरुष प्रजापति विश्वकर्मा भवन तथा यंत्रादि समस्त संसार के शिल्पी पदार्थों की रचना एवं निर्माण करने वाला, यज्ञ-हवन में तथा विवाहादि समस्त धार्मिक शुभ कार्यो के मध्य पूज्य ब्राह्मणों के आचार्य अर्थात गुरु कहलाए और साथ ही देवों के शिल्पी आचार्य भी कहलाए। पुराणों में मनुष्य विश्वकर्मा के सम्बन्ध में भी स्पष्ट वर्णन अंकित है। मनुष्य विश्वकर्मा के कर्मो द्वारा निर्मित शिल्प से नित्य अपने जीवन के प्रारंभ से मरणोपरांत तक उपभोग करता हुआ उपजीविका करता है। पद्मपुराण -भूखंड अध्याय 25, श्लोक 15 के अनुसार जिन्होंने इस पृथ्वी पर नाना प्रकार के चमत्कारी पदार्थो के रूपों को उत्पन्न किया है और उनकी ब्रह्म शिल्प विद्या से समस्त संसार के मानव उपजिविका अर्थात अपना जीवन निर्वाह करते हैं ऐसे विश्वरूप श्रीमद विश्वकर्मा को हमारा नमस्कार है।
वस्तुतः विश्वकर्मा कर्म के अनुसार दी जाने वाली एक उपाधि है, जो आज एक उपनाम भी बन गई है। विश्वकर्मा एक प्रकार का कर्म है और इसी कर्म की विशेषता के कारण यह विशेषण कहलाता है। इन्हीं सब विश्व के निर्माण के कर्म को करने के कारण परब्रह्म को वेदों में सर्वप्रथम विश्वकर्मा कहा गया है। कालांतर में देवता से लेकर ऋषि -मुनि, मनुष्य को भी उनके द्वारा किये गए ज्ञान -विज्ञान और निर्माण से सम्बन्धित महत्वपूर्ण कार्यों के कारण विश्वकर्मा उपाधि से विभूषित किया गया और ये उपाधियाँ आज एक उपनाम बनकर रह गई है। विश्व में होने वाले निर्माण के कर्म को करने वाले देवताओं में ब्रह्मा और देवशिल्पी को विश्वकर्मा, ऋषियों में ब्रह्मर्षि अंगिरा, देवपुरोहित विश्वरूप, देवगुरू बृहस्पति, प्रभाष ऋषि, कश्यप ऋषि आदि को विश्वकर्मा की उपाधि प्राप्त हुई। विश्वकर्मा सिर्फ परब्रह्म , देवताओं और ऋषियों के नाम एवं उपाधियाँ ही नहीं है, बल्कि विश्वकर्मा एक कर्म है और विश्वकर्मा के वास्तु शिल्प कर्मो को धारण करने वाले सभी मनुष्य विश्वकर्मा शिल्पी ब्राह्मण कहलाए। सप्तऋषि सहित सभी वैदिक ऋषियों ने ज्ञान के साथ ही विश्वकर्मा के विज्ञान के शिल्पकर्म को निष्पादित किया है। और सम्पूर्ण मानव जाति इन्हीं सब ऋषियों के वंशज हैं।
प्राचीन काल में सब ज्ञानी विज्ञानी थे और विश्वकर्मा के कर्म के कारण विश्वकर्मा ऋषि ही कहलाते थे। शिल्प एवं वास्तुकला से ही यज्ञवेदी, यज्ञशाला, यज्ञ पात्र आदि निर्माण होता है। जो ब्राह्मण वास्तु एवं शिल्प नही जानता उसे यज्ञ करने का अधिकार नही है। क्योंकि वेदांग कल्प के शुल्व सूत्र से शिल्पकर्म औऱ वेदांग ज्योतिष की संहिता स्कंद से वास्तुकला की उत्पत्ति हुई है। वेदांग के अन्तर्गत शिल्पकर्म औऱ वास्तुकला के साथ सभी कर्मकांड को जानने वाला ब्राह्मण ही पूर्ण ब्राह्मण कहलाता है। इसीलिए यजुर्वेद के अध्याय 4 /9 में ऋग्वेद तथा सामवेद के ज्ञाता देवताओं (शिल्पी ब्राह्मण) के चातुर्य को सीखने की आज्ञा दी गई है। इससे यह स्पष्ट है कि प्राचीन काल में सभी ब्राह्मणों के लिये शिल्पकर्म अनिवार्य था। उस समय ब्राह्मणों में कोई भेद भी नहीं था सभी ब्राह्मण शिल्पी भी कहलाते थे। वैदिक कर्मकाण्ड के साथ शिल्पकर्म अर्थात चातुर्य औऱ वास्तुकला का भी ज्ञान देने वाले 18 उपदेशक ऋषियों का नाम मत्स्य पुराण में अंकित करते हुए कहा गया है कि मत्स्य रुपी श्री विष्णु भगवान ने मनु को शिल्प पढाया है और अठारह शिल्प संहिता के रचने वाले मुनि श्रेष्ठ देव हैं -भृगु, अत्रि, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, वग्नजित, विशालाक्ष, इन्द्र, ब्रह्मदेव, कार्तिक स्वामी, वन्दी, शौनक, गर्ग मुनि, श्री कृष्ण भगवान्, अनिरुद्ध, शुक्राचार्य, बृहस्पति। Vishwakarma Puja 2021 Date
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