बेबाक विचार

गांधी होते तो कांग्रेस को नया सांख्य-शास्त्र देते

Share
गांधी होते तो कांग्रेस को नया सांख्य-शास्त्र देते
महात्मा गांधी आज होते तो, उन्हीं की सलाह पर विसर्जित हुई, कांग्रेस को फिर ज़िंदा करने को कहते।... गांधी जी कहते कि एक और उपनिवेशवाद से मुक्ति का संग्राम कांग्रेस को लड़ना है। वे कहते कि वर्तमान लोकतंत्र की व्यवस्थाओं में धन की ताक़त के घातक इस्तेमाल से लड़ना अभी बाकी है। संवादहीन और केंद्रीयकृत लोकतंत्र की व्यवस्था से लड़ना अभी बाकी है। भीड़तंत्र के ज़रिए एकाधिकार हासिल करने वालों से लड़ना अभी बाकी है।  और, गांधी जी कहते कि यह लड़ाई तो कांग्रेस ही लड़ सकती है। 2 october gandhi jayant 152 साल पहले जन्मे महात्मा गांधी आज होते और उनका वश चलता तो आज की कांग्रेस कैसी होती? यह अलग बात है कि आज़ादी मिलने के बाद गांधी जी ने कहा था कि चूंकि अब कांग्रेस के गठन का लक्ष्य पूरा हो गया है, कांग्रेस को विसर्जित कर देना चाहिए; लेकिन जब संघ-गिरोह प्रचारित करता है कि आज के कांग्रेसी गांधी जी का वह सपना पूरा कर रहे हैं तो इसके पीछे का काइयांपन किस को समझ में नहीं आता है? गांधी जी के कहने का भावार्थ यह नहीं था कि कांग्रेस अप्रासंगिक हो गई है, इसलिए भू-समाधि ले ले। उनके कहने का अर्थ यह था कि स्वाधीनता प्राप्त करने के मक़सद से बना संगठन लक्ष्य-प्राप्ति के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को स्वयं तिरोहित करे और राज-काज चलाने के लिए एक नए राजनीतिक ढांचे का निर्माण हो। गांधी जी कांग्रेस की लक्ष्य-आधारित पवित्रता को अक्षुण्ण रखने के हिमायती थे। वे जानते थे कि स्वाधीनता आंदोलन के मूल्यों का अक्षरशः पालन राज्य-व्यवस्था के संचालन में करना मुश्क़िल होगा। सो, उन्हें लगता होगा कि एक पवित्र उद्देश्य से बना संगठन आगामी क्षरण की संभावनाओं का मस्सा उगाने के लिए अपना गुलाबी गाल पेश क्यों करे? इसलिए गांधी जी चाहते थे कि कांग्रेस समाधि ले और उसकी भस्मी से एक नई-नकोर राजनीतिक संरचना जन्म ले। वे जानते थे कि अंग्रेजों के उपनिवेशवाद से मुक्ति का संघर्ष तो कांग्रेस अपने उच्च नैतिक मानदंडों के बूते जीत गई है, लेकिन आगे चल कर जब स्थानीय उपनिवेशों के आलमबरदार अपनी-अपनी लाठियां लेकर राज-काज में हिस्सेदारी कब्जाने घरों से निकलेंगे तो कांग्रेस की नैतिक-गोटियां उसूलों की सांप-सीढ़ी पर टप्पे खाने लगेंगी। वे सही थे। गांधी जी की दैहिक अनुपस्थिति के 73 बरस बीतते-बीतते अब हम कांग्रेस के गंदले अंतःवस्त्र सियासत के चौराहे पर धुलते देख ही रहे हैं। सो, जब लोग कहते हैं कि यह कांग्रेस स्वाधीनता आंदोलन की वह कांग्रेस नहीं है तो कुछ ग़लत नहीं कहते। गांधी जी की बात मान कर अगर वह कांग्रेस अपने पंचतत्वों में ख़ुद ही विलीन हो जाती तो आज के ठीकरे कांग्रेस के माथे पर इसलिए नहीं फूट रहे होते कि मौजूदा हमाम के नंगे कांग्रेस के अंगवस़्त्रम पर क्या मुंह ले कर ग़ौर करते? कांग्रेस से सिद्धांतों के धवल रेशमी वस्त्र धारण किए रखने की अपेक्षा आख़िर इसीलिए तो की जाती है कि वह स्वाधीनता आंदोलन से जन्मी है। जो राजनीतिक दल या कथित सांस्कृतिक संगठन आज़ादी की लड़ाई के दिनों में अंग्रेजों का पालना झूल रहे थे, उनसे कहां कोई पूछता है कि कलाई पर चमेली के गजरे का चुग्गा लपेट कर और गले में व्यभिचार की नीयत वाला लाल रूमाल बांध कर पूरे संसदीय लोकतंत्र का सरेआम शीलभंग क्यों करते फिर रहे हो? 2 october gandhi jayant 2 october gandhi jayant Read also भारत जी-हुजूरों का लोकतंत्र ? महात्मा गांधी आज होते तो, उन्हीं की सलाह पर विसर्जित हुई, कांग्रेस को फिर ज़िंदा करने को कहते। वे सकारात्मक राजनीति के हेलिओपोलिस में रखी कांग्रेस की भस्म का कलश स्वयं अपने हाथों में लेकर पांव-पांव आते और उसके फ़ीनिक्स को पुनर्जीवन देने का हवन करते। गांधी जी कहते कि एक और उपनिवेशवाद से मुक्ति का संग्राम कांग्रेस को लड़ना है। वे कहते कि वर्तमान लोकतंत्र की व्यवस्थाओं में धन की ताक़त के घातक इस्तेमाल से लड़ना अभी बाकी है। संवादहीन और केंद्रीयकृत लोकतंत्र की व्यवस्था से लड़ना अभी बाकी है। षड्यंत्रों और मिथ्या प्रचार के ज़रिए लोकतांत्रिक व्यवस्था को अपनी गठरी में बांध लेने वाली घरेलू औपनिवेशिक शक्तियों से लड़ना अभी बाकी है। भीड़तंत्र के ज़रिए एकाधिकार हासिल करने वालों से लड़ना अभी बाकी है। और, गांधी जी कहते कि यह लड़ाई तो कांग्रेस ही लड़ सकती है। वे कहते कि समय-काल की गंगा में प्रवाहित कर दी गई कांग्रेस के पंचमहाभूत फिर सजीव होने ज़रूरी हैं। वे कहते कि कांग्रेस का आकाश लौटा कर लाइए। उसे उसकी वायु वापस दीजिए। उसकी अग्नि फिर प्रज्वलित कीजिए। उसका जल फिर वैसे ही निर्बाध बहने दीजिए। उसकी पृथ्वी को दोबारा ठोस बनाइए। गांधी जी आज की कांग्रेस को उसका नया सांख्य-शास्त्र देते। गांधी का तन-बदन आज चूंकि हमारे बीच नहीं है, इसलिए यह काम उन्हें करना है, जिनके सिर पर गांधी की पगड़ी है। पगड़ी की अपनी ज़िम्मेदारियां होती हैं। गांधी की पगड़ी देश ने जिनके सिर बांधी है, वे अपने कर्तव्यबोध से कैसे मुकर सकते हैं? लेकिन अपने फ़र्ज़ का यह अहसास तब पूरा होगा, जब महात्मा गांधी की बुनियादी सोच का दीया आंखों से कभी ओझल नहीं होगा। भारत लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं के निर्माण की सक्रिय प्रयोगशाला रहा है। गांधी जी की सोच के केंद्र में समाज और गांव प्रमुख थे। राष्ट्रीय-स्वभाव और राष्ट्रीय-चरित्र का निर्माण प्रमुख थे। वे लोकतंत्र के निर्जीव मुहावरे को एक जीवंत व्याकरण में तब्दील करने के हिमायती थे। वे जानते थे कि जब लोकतंत्र केंद्रीयकृत होता है तो वह प्राणहीन हो जाता है। सब-कुछ अपनी मुट्ठी में करने के लिए जनतंत्र के प्राण हरने ज़रूरी होते हैं। राजनीतिक संगठनों के भीतर हो या शासन व्यवस्थाओं के बरामदों में, लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की राह जब-जब बाधित होगी, राष्ट्र-राज्य का शरीर तब-तब नीला पड़ेगा। 2 october gandhi jayant ‘हिंद स्वराज’ में गांधी जी ने एक सवाल खड़ा किया। उन्होंने लिखा कि ‘अंग्रेजों को निकाल बाहर करना चाहिए? लेकिन उन्हें क्यों निकालना चाहिए, इसका कोई ठीक ख़्याल किया गया हो, ऐसा नहीं लगता। मान लीजिए कि हम मांगते हैं, उतना सब अंग्रेज हमें दे देते हैं तो फिर उन्हें यहां से निकाल देने की क्या ज़रूरत आप समझते हैं? मुझे लगता है कि उनके चले जाने के बाद भी उनका बनाया विधान हम चालू रखेंगे और राज का कोरोबार चलाएंगे। वास्तव में हमें अंग्रेजी राज्य तो चाहिए, पर अंग्रेजी शासक नहीं चाहिए। कहा जाता है कि अंग्रेजों की संसद संसदों की माता है, लेकिन मुझे नहीं लगता कि उस संसद ने एक भी अच्छा काम किया हो। जब तक उस पर कोई दबाव न हो, वह कुछ काम नहीं करती है।’ गांधी जी का कहना था कि केंद्रीयकृत लोकतंत्र से किसी एक व्यक्ति या चंद व्यक्तियों का समूह ताक़तवर बनता है और ऐसे लोकतंत्र के कोई मायने नहीं हैं। आज़ादी के सात दशक बाद भी क्या हम यह नहीं देख पा रहे हैं कि सरकारें और राजनीतिक दल लोकतांत्रिक व्यवस्था को गांधी-मार्ग से हटा कर किस मोदी-मार्ग पर ले जा रहे हैं? कांग्रेस अप्रासंगिक नहीं हुई है। मुझे तो लगता है कि वह आज और ज़्यादा प्रासंगिक हो गई है। अप्रासंगिक तो वह उस दिन होगी, जब वह बाहर-भीतर की दीवारों पर चस्पा यथास्थिति की बर्छियों के सामने आत्मसमर्पण कर देगी। मैं मानता हूं कि आज के गांधियों में वह दम है कि वे कांग्रेस को आभासी खाई के मुहाने से लौटा लाएं। अपने को महाकाय दिखा रहे छुटभैयों को परे धकेल कर, छुटुर-पुटुर दुराग्रहों से मुक्त हो कर और अपने हठयोग को सार्थक दिशा में मोड़ कर चुटकियों में गांधी-पथ का पथिक बना जा सकता है। आज हमारे वर्तमान गांधी अगर राजघाट से ऐसा करने का संकल्प ले कर लौटे तो समझ लीजिए कि आ रही नवरात्रि में कांग्रेस का वह सूर्योदय आरंभ होगा, जिसकी लालिमा से सियासती आसमान दूर-दूर तक सिंदूरी दिखाई देने लगेगा। किसी को दिख रहे हों, न दिख रहे हों, मुझे तो परस्पर सम्मान, परस्पर विश्वास और परस्पर स्नेह के एक नए अध्याय के पन्ने फड़फड़ाते दिखाई दे रहे हैं। ईश्वर करे, उन पर किसी की नज़र न लगे! (लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और काग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।)  
Published

और पढ़ें