बेबाक विचार

2021, तुम तो जाओ, मेरा ख़ुदा हाफ़िज़

Byपंकज शर्मा,
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2021, तुम तो जाओ, मेरा ख़ुदा हाफ़िज़
पचास-साठ साल पहले कैफ़ी आज़मी ने लिखा था कि ‘‘ बहार आए तो मेरा सलाम कह देना; मुझे तो आज तलब कर लिया है सहरा ने’’। आप को नहीं लगता कि साढ़े सात बरस से अच्छे दिनों की अगवानी को आतुर बैठे हम-सब के पिछले दो साल जिस तरह बाप-बाप करते बीते हैं, वे हमारी ज़िंदगी में न आते तो हमारी उम्र बढ़ गई होती? 2020 और 2021 ने हमारे संसार को जितना उदास किया, उस की याद जब-जब हमें झिंझोड़ेगी, तब-तब हम हनुमत बलबीरा का सुमिरन करेंगे। इसलिए अब जब 2021 के साल का अपना अंतिम लेख मैं लिख रहा हूं, मुझे कैफ़ी की यह बात भुलाए नहीं भूल रही कि ‘‘जिस तरह हंस रहा हूं मैं पी-पी के गर्म अश्क; यूं दूसरा हंसे तो कलेजा निकल पड़े’’। कैफ़ी ने कब क्या किस मनोदशा में लिखा, वे जानते रहे होंगे। मगर अदब की गलियों से गुज़रते हुए जब हम उन का लिखा पढ़ते हैं तो सारे अर्थ हमारी मौजूदा मनोदशा का आकार ले लेते हैं। इसलिए मैं आप से पूछना चाहता हूं कि प्राणवायु के लिए तरस-तरस, जो इतने मोहताज हो गए थे कि चिता के लिए लकड़ियों का इंतजाम कर सकने की असमर्थता की वज़ह से उन्हें अंतिम संस्कार के लिए भी काशी की गंगा को अपनी गोद मुहैया करानी पड़ी थी, उस काशी की, उसी गंगा में, अपने प्रधानमंत्री नरेंद्र भाई मोदी को चंद रोज़ पहले कलश हाथ में सिर से ऊपर उठा कर डुबकी लगाते देख आप को कैसा लगा? मुझे तो अहमद फ़राज़ का लिखा याद आ गया कि ‘‘यूं ही मर-मर के जिएं वक़्त गुज़ारे जाएं; ज़िंदगी हम तिरे हाथों से न मारे जाएं’’। Read also झूठ का वायरस सबसे खतरनाक इस साल अप्रेल-मई के महीनों की रातें ही काली नहीं थीं, दिन भी काले थे। हम कुदरत के कहर से तो दो-चार हो ही रहे थे, अपनी ही चुनी हुकूमत की बेरुख़ी और नाकारापन से भी बेज़ार थे। मगर भारतवासी धन्य हैं! उन की सहनषीलता प्रणम्य है। फ़राज़ फिर याद आते हैं कि ‘‘हम दुख ओढ़ के ख़ल्वत में पड़े रहते हैं; हम ने बाज़ार में ज़ख़्मों की नुमाइश नहीं की’’। इसलिए हमारे हुक्मरान गफ़लत में हैं कि सब-कुछ ठीक-ठाक उन की वज़ह से रहा। इसलिए हमारे हुक्मरानों को ख़ामख़्याली है कि वे अब भी हरदिल अजीज़ हैं। उन्हें मालूम ही नहीं है कि काशी की गंगा में तब से कितना पानी बह गया है! वैसे तो जवाबदेहों में से किसी ने अवाम से पूछा ही नहीं कि मिजाज़ कैसे हैं? पूछते भी तो कौन किस से शरह-ऐ-हालात करता? फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ ने कहा तो है कि ‘‘दिल ठहरे तो दर्द सुनाएं, दर्द थमे तो बात करें’’। मालूम नहीं, बताने-सुनाने का वह समय अभी और कितनी दूर है? वैसे तो पांच साल में, लेकिन ख़ासकर इन दो साल में, देशवासियों ने बहुत सहा, पर चूं न की। आमतौर पर वे ख़ामोश रहे। हामी भरते रहे। ग़लत बातों को ख़ामोशी से सुन लेने और हामी भरते रहने में बहुत फ़ायदे हैं। मगर ऐसे लोग भी हमेशा मौजूद रहते हैं, जिन्हें यह सब करना अच्छा नहीं लगता। मैं अलविदाई ले रहे 2021 को पूरी तरह भूल जाना चाहता हूं। लेकिन मैं 2021 को उन सब लोगों की वज़ह से याद रखना चाहता हूं, जिन्हें ख़ामोश रहना और हामी भरना अच्छा नहीं लगा। 2021 ने हमें मरने की नया सलीक़ा सिखा दिया है। साहिर लुधियानवी ने मुझे मेरे बचपन में ही बता दिया था कि ‘‘मरने का सलीक़ा आते ही, जीने का शुऊआत आ जाता है’’। इस बरस के आठ हज़ार सात सौ साठ घंटों ने हमें यह भी समझा दिया कि सत्रह सौ साठ आए-गए, सत्रह सौ साठ और आएंगे-जाएंगे। इसलिए यह दिल छोटा करने का नहीं, साहिर की इन पंक्तियों को गुनगुनाने का वक़्त है कि ‘‘ग़म और ख़ुशी में फ़र्क़ न महसूस हो जहां, मैं दिल को उस मक़ाम पे लाता चला गया’’। मगर दिल को इस मक़ाम पर लाते जाने की कोशिशों के बावजूद मैं साहिर की लिखी इस बात से इत्तफ़ाक नहीं रखता कि चूंकि ‘‘ बर्बादियों का सोग मनाना फुज़ूल था, बर्बादयों का जश्न मनाता चला गया’’। मैं तो उस दिन का इंतज़ार करूंगा, जब बर्बादियों का जश्न मनाने वाले यौम अल-क़ियामा की कतार में खड़े होंगे। अपनी बर्बादियों का शोक मनाते रहना इसलिए ज़रूरी है कि एक दिन आए कि हमारी बर्बादियों का जश्न मनाने वालों से जवाब तलब हो। Read also सन् 21 की घुन और भारत! जिस दिन यह जवाब तलब हो जाएगा, उस दिन हम दिल खोल कर रो लेंगे। और, जब भी दिल खोल कर रो लेंगे तो फिर उस के बाद आराम से सो लेंगे। तब तक आंखों में नींद कहां? तब तक भीतर से चैन कहां? इसलिए जवाब-तलबी के नंगे-पर्बत की दुरूह चढ़ाई पूरी कर लेने तक छालों की परवाह नहीं करनी है। पैरों में लाख जंज़ीरें हों, मगर ‘‘आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो’’। ताकि जो वापस आ कर देखें, वो देखें कि जिसे छोड़ कर वो गए थे, वो कोई और था। अब वो कोई और है। यह जज़्बा ही बीस-इक्कीस को मुस्तकिल रुख़सत देगा। वरना हम गोल-गोल घूम कर फिर उन्हीं रास्तों पर चल रहे होंगे। इसलिए ज़रूरी है कि हम अपने हवाले हो जाएं। बहुत वक़्त से हम पता नहीं किस-किस के हवाले हैं। क़तील शिफ़ाई को मैं अपने खेलने-कूदने के दिनों से पढ़ रहा हूं। उनका कहना है कि ‘‘सूरज-सी इक चीज़ तो हम सब देख चुके, सचमुच की अब कोई सहर दे या अल्लाह!’’ क़तील ने ही हमें अपनी जवानी में यह सवाल पूछने की सिफ़त दी थी कि तमाम शहर में क्या एक भी मंसूर नहीं? और, उन्होंने ही बताया था कि हमें गवाह बनाया है वक़्त ने अपना। तो सोचना तो हमें है कि अपनी गवाही में हम सच बोलेंगे या नहीं? तय तो हमें करना है कि हमारी नज़र आईना-बरदार है या नहीं? सो, यह परदा उठाने का समय है, परदा गिराने का नहीं। यह लौ बचाने का समय है, उसे हथेली से गिराने का नहीं। अभी तो जुस्तजू को बगूला बन कर फिर झमझमा कर उठना है। इस बार जब पहाड़ों की बर्फ़ पिघलेगी और वादियों से कोहरा छंटेगा तो नए बीज अंगड़ाई ले कर जागेंगे। एक बार जब पांव घर से निकल पड़ेंगे तो कौन जानता है कि किस नगर जा कर ठहरेंगे? लेकिन इतना मैं ज़रूर जानता हूं कि इस बार वे किसी अंधेर नगरी में जा कर नहीं ठहरेंगे। इस बार वे वहां जा कर ठहरेंगे, जहां से दूर-दूर तक चौपट राजा दिखाई न देता हो। सो, अपने एकांत में पड़े-पड़े रूमानियत का लिहाफ़ ओढ़ कर यह सोचते रहने से काम नहीं चलेगा कि ‘‘ अब तक किस तमन्ना के सहारे जी लिया मैं ने!’’ जिस तमन्ना के सहारे अब तक जी लिए हैं, उसे सामूहिक चौपाल पर लाने का दौर आ रहा है। अब तक के हमारे ईमान का ख़ुदा हाफ़िज़ है। जब-जब हैवानी सल्तनतें उखड़ी हैं, इसी ईमान के बूते उखड़ी हैं। इसलिए 2022 की बलैयां लेने की गोधूलि वेला में, अलविदाई ले रहे 2021 के मरीचि से, मैं कहना चाहता हूं कि तुम तो जाओ, मेरा ख़ुदा हाफ़िज़! लेखक न्यूज़-व्यूज़ इंडिया के संपादक और कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय पदाधिकारी हैं।
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