nayaindiaऔर ध्वस्त बाबरी मस्जिद | babri masjid demolition | Naya India | बेबाक विचार
सर्वजन पेंशन योजना
पण्डित का ज़िंदगीनामा

और ध्वस्त बाबरी मस्जिद!

Share
babri masjid demolition

और मैं सन्न! रोंगटे खड़े हो गए। ग्राउंड खबर लेने के कौतुक की बजाय दिमाग सिर्फ यह सोचते हुए था, क्या गजब हुआ! तारों की जिस घेरेबंदी पर मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, केंद्र सरकार सब मानते थे कि चिड़िया भी विवादास्पद स्थल में नहीं घुस सकती उसमें कारसेवकों ने घुस कर, गुंबद पर चढ़ कर गुंबद ढहा दिए। हिंदू का यह रूप… यह शौर्य है या अपराध? इतिहास का बदला या भविष्य का घाव? …. हिंदू इतिहास में छह दिसंबर 1992 अकेली तारीख है जब इतिहासजन्य प्रतिहिंसा में हिंदू ने पहली बार हथौड़ा उठाया।

babri masjid demolition : इतिहास और मन की हूक का बदला कैसे होता है, करोड़ों-करोड़ लोगों की सामूहिक भावनाओं का उबाल क्या होता है, उनका ज्वालामुखी विस्फोट क्या होता है और कैसे रोंगटे हो जाते हैं खड़े, इस सबकी अनुभूति व अहसास का दिन था सन् 1992 के छह दिसंबर की तारीख। वह कालजयी-अमिट दिन। इसलिए क्योंकि मेरा मानना है कि भारतीय उपमहाद्वीप में हिंदू बनाम मुस्लिम धर्म का सभ्यतागत मनोविश्व कभी मिट नहीं सकता है। वह स्थायी और चिरंतन है। जैसे साढ़े चार सौ साल पहले 1528 की घड़ी में मंदिर ध्वंस-मस्जिद निर्माण को भुलाया नहीं जा सका तो छह दिसंबर 1992 को भी सभ्यतागत संघर्ष के इतिहास में बतौर मस्जिद ध्वंस-मंदिर निर्माण की याद्दाश्त अमिट रहेगी। उस दिन जो हुआ वह 15 अगस्त 1947 को आधी रात की आजादी से बड़ी घटना थी। एक तरह से 15 अगस्त 1947 और छह दिसंबर 1992 के दोनों दिन भारतीय उपमहाद्वीप में सुषुप्त इतिहास का ज्वालामुखी विस्फोट था। आखिर आजादी और विभाजन भी तो हिंदू-मुस्लिम के सभ्यतागत द्वंद्व से थे।

यह भी पढ़ें: वह दिन था अर्थ क्रांति का!

तभी छह दिसंबर 1992 का दिन आधुनिक इतिहास में विस्फोट का वह क्षण रूप है, जब हिंदू ज्वालामुखी फटा और वह विध्वंस हुआ जिसका लावा साढ़े चार सौ साल पहले 1528 में तब बनना शुरू हुआ था जब बाबर के सूबेदार ने मंदिर तोड़ मस्जिद बनवाई। इन बातों का अर्थ नहीं है कि वहां मंदिर कब था, किसने तोड़ा और कैसी जोर-जबरदस्ती में मस्जिद बनी। ऐसे ही छह दिसंबर 1992 से पहले की घटनाओं या बाद में मंदिर निर्माण के चरणों का विशेष मतलब नहीं है। इंसान के दिल-दिमाग में इतिहास की किलकारियां या घाव जो भी होते हैं वे क्षण विशेष में बनते-बिगड़ते हैं। उन्हीं से फिर सदियों सभ्यताएं सुलगी रहती हैं। जानवर और इंसान का यह भी फर्क है कि मनुष्य चेतना इतिहास को भूले-बिसरे ही सही, लगातार समेटे रहती है। सो, सन् 1528 में एक कौम को ध्वंस के घाव थे तो दूसरी कौम में विजेता का अहंकार। वक्त में भावनाएं भले शांत हुईं, लावा ठंडा हुआ लेकिन ज्वालामुखी सुलगा, सुषुप्त बना रहा। स्मृतियों के लावे में ही 1947 का विस्फोट विभाजन था तो 1992 में मस्जिद का ध्वंस।

मेरे लिए वह दिन अविस्मरणीय है। उस घटना से ‘जनसत्ता’ के संपादकीय विभाग में प्रभाष जोशी बनाम बनवारी, हरिशंकर व्यास में वैचारिक विभाजकता बनी। दिल्ली की राजनीति, हिंदी पत्रकारिता में तब ‘जनसत्ता’ का बहुत मतलब था। मैं ‘जनसत्ता’ के सभी संवाददाताओं-स्ट्रिंगरों को संभालते हुए जनसत्ता समाचार सेवा का संपादक था तो बनवारीजी समाजवादी-अनुभवी पत्रकारीय पृष्ठभूमि के कारण गहरी वैचारिक समझ वाले संपादक और प्रभाषजी हमारे सर्वोदयी मुखिया। हम तीनों ही संपादकीय लिखते थे। पाठकों को विचार देते थे। मैं उम्र में बहुत छोटा सिर्फ 35 साल का। लेकिन मैं तब भी बहुत लिक्खाड़ था। संपादकीय के अलावा लेख, रिपोर्टिंग और ‘गपशप’ कॉलम लिखता था। मैंने आडवाणी की मंदिर यात्रा से लेकर बाबरी मस्जिद के ध्वंस तक की हिंदू राजनीति बहुत कवर की। बहुत घूमा। उस वक्त के सभी पात्रों से मेरे विश्वासी रिश्ते थे। एक तरफ आडवाणी, अशोक सिंघल, भैरोसिंह शेखावत, उमा भारती, गोविंदाचार्य, कल्याण सिंह आदि सबसे अनौपचारिक सहज रिश्ते तो दूसरी और प्रधानमंत्री दफ्तर के मेरे बहुत करीबी भुवनेश चतुर्वेदी, पीएमओ के प्रेस सलाहाकार पीवी आरके प्रसाद, एमएल फोतेदार और खुद पीवी नरसिंह राव से भी निजी वाकफियत। उधर मैं, दिल्ली में रामबहादुर राय, लखनऊ में हेमंत शर्मा, फैजाबाद में त्रियुगनारायण आदि से लगातार रिपोर्टिंग करवाते हुए भी था।

यह भी पढ़ें: जात के कैक्टस से खलास किडनी!

छह दिसंबर के कारसेवा प्रोग्राम ने सरकार और सेकुलर जमात को भारी विचलित किया था। कारसेवा टलवाने की बहुत कोशिश हुई। कोशिशों में प्रभाषजी भी शेखावत, भाऊराव देवरस और शरद पवार, जितेंद्र प्रसाद आदि के यहां भागदौड़ करते हुए, बीच का रास्ता निकलवाने की जुगाड़ में थे। मैं उन कोशिशों को फालतू मानता था। मैं अयोध्या के मामले में राजीव गांधी-बूटासिंह-एनडी तिवारी आदि की शिलान्यास अनुमति और फिर आम चुनाव से ठीक पहले अयोध्या-फैजाबाद से ही राजीव गांधी की पहली जनसभा से दिमाग में ख्याल बना बैठा था कि जब पंड़ित नेहरू-गोविंद वल्लभ पंत अयोध्या की मस्जिद के बीच रामलला मूर्ति रखे जाने की हिंदू आस्था के आगे सरेंडर थे तो मस्जिद की जिद्द फालतू है। मेरा मानना था, है और रहेगा कि गांधी-नेहरू ने नासमझी दिखलाई जो मुसलमान के लिए पाकिस्तान माना लेकिन भारत के राष्ट्र मंदिर में हिंदू आस्था की वह प्राण प्रतिष्ठा नहीं करवाई जो हर कौम, सभ्यता की सहज मानवीय इच्छा होती है। जबकि नेहरू, पंत, डीएम नैयर ने भी लावारिस मस्जिद में मूर्ति रखे जाने के बाद आस्था के सत्य को माना था। तभी तो मूर्तियां रहने दीं। इन्होंने ने ही एक गुंबद को गर्भगृह बनने दिया और ताले में पूजा होने दी। 1949 के जिस दिन पूजा शुरू हुई थी असलियत में उसी दिन मंदिर बन गया था। उसकी अनदेखी, दबाने की जितनी कोशिशें हुईं, मुसलमानों ने जितना प्रतिवाद किया उतना ही सभ्यतागत संर्घष का सुषुप्त ज्वालामुखी अंदर ही अंदर भभका। नतीजतन एक दिन विस्फोट हुआ और छह दिसंबर की दोपहर कारसेवकों ने एक-एक करके तीनों गुंबद ढहा दिए।

Read also संसद में क्या मौतों को मिलेगी श्रद्धांजलि?

मुझे पहले गुंबद को तोड़ने की शुरुआत की खबर शंभूनाथ शुक्ला ने दी। उन दिनों मोबाइल फोन नहीं थे। अयोध्या-फैजाबाद की फोन नेटवर्किंग जाम कर दी गई थी। मैंने पीएमओ के मंत्री भुवनेश चतुर्वेदी से कंर्फम किया तो गोलमोल जवाब था, हां गड़बड़ होती लगती है।

और मैं सन्न! रोंगटे खड़े हो गए। ग्राउंड खबर लेने के कौतुक के बजाय दिमाग सिर्फ यह सोचते हुए था, क्या गजब हुआ! तारों की जिस घेरेबंदी पर मुलायम सिंह यादव, कल्याण सिंह, केंद्र सरकार सब मानते थे कि चिड़िया भी विवादास्पद स्थल, याकि मस्जिद में नहीं घुस सकती उसमें कारसेवकों ने घुस कर, गुंबद पर चढ़ कर गुबंद ढहा दिए। हिंदू का यह रूप……. यह शौर्य है या अपराध? इतिहास का बदला या भविष्य का घाव? हिंदुओं में और  मुसलमानों की भावनाएं कैसे उद्वेलित होंगी? जब क्रिकेट की हार-जीत में अलग-अलग रिएक्शन मिलते हैं तो मस्जिद का यह ध्वंस आगे दोनों कौमों की मनोदशा को कैसे पकाएगा?

मेरा सोचना था और आज भी मानना है कि हिंदू इतिहास में छह दिसंबर 1992 अकेली तारीख है जब इतिहासजन्य प्रतिहिंसा में हिंदू ने पहली बार हथौड़ा उठाया। न संविधान की चिंता की। न नेतृत्व को माना और न लोकलाज की परवाह की। जो हुआ जो था वह स्वंयस्फूर्त था। सदियों से सुलगते आ रहे लावे का विस्फोट था।… उस दिन पूरा भारत, भारतीय उपमहाद्वीप रिक्टर स्केल में आठ प्वाइंट के भूकंप झटके से सन्न था। दुनिया ने पहली बार जाना कि हिंदू ऐसा भी हो सकता है!

Read also ब्लू स्टार: भिंडरावाले की किंवदंती

सो, स्वाभाविक था जो प्रभाषजी ने संपादकीय टीम अर्थात बनवारीजी और मुझे बुला कर अगले दिन के अंक के लिए संपादकीय, खबरों, विश्लेषण की तैयारी बैठक बुलाई। उनके कमरे में तीनों की मीटिंग शुरू हुई तो हम तीनों अपने-अपने विचारों में भभके हुए थे। प्रभाषजी बहुत उद्वेलित और मानो घायल। उन्होंने जिस अंदाज में धोखा होने, साजिश और सत्यानाश होने के जो विचार उद्गार और भावाभिव्यक्ति की तो पता नहीं मैं पहले बोला या बनवारीजी कि हम तीनों पहली बार उस दिन बिखर गए। शायद उससे पहले वे शरद पवार के घर मस्जिद ढहाने का वह वीडियो देख कर आए थे, जिसकी सरकार ने चुपचाप रिकॉर्डिंग कराई थी। तभी प्रभाषजी का विश्वास बना था कि सब कुछ सुविचारित साजिश में हुआ है। वे मन ही मन व्यथित थे कि वे दोनों पक्षों के बीच बीच-बचाव में कारसेवा शांति से होने के भरोसे में थे लेकिन यह तो धोखा जो कारसेवकों ने मस्जिद ढहा दी।

मुझे याद नहीं कि बनवारीजी के तब क्या तर्क थे लेकिन मैं क्योंकि पहले से राय बनाए हुए था, पूरे दिन घटना के इतिहासजन्य मायने पर सोचते हुए था तो मैंने कहा था आपको ऐसे एक्सट्रिम में नहीं सोचना चाहिए। फालतू बात है साजिश की। लगातार खौलते हुए गुस्से में हुआ यह वह विस्फोट है, जिसे मौका मिलते ही फटना था। न कल्याण सिंह सरकार रोक सकती थी और न केंद्र सरकार या आरएसएस-भाजपा के नेता।

उस दिन बहुत झांय-झांय हुई। पर यह मेरा अहोभाग्य है जो मैं इंडियन एक्सप्रेस संस्थान के ऐसे परिवेश में था, जहां प्रभाषजी की कप्तानी में उनकी, बनवारीजी और मेरी विचार स्वतंत्रता में बेबाकी, बेधड़की संभव थी। हम मजे से परस्पर असहमति के साथ लिख सकते थे। और तथ्य है कि अगले दिन के अंक और उसके बाद के सप्ताह भर में मेरी रिपोर्टिंग, लेख, ‘गपशप’ कॉलम अलग सुर लिए हुए थे तो बनवारीजी का अलग अंदाज और प्रभाषजी दूसरी दिशा में।

बावजूद इसके उस दिन से मेरा मन उचटने लगा। और नौकरी छोड़ अपने बूते, अपना खुद कुछ करने का विचार शक्ल लेने लगा। दो साल में ‘जनसत्ता’ छूट भी गया। तब एक संगीत की चैनल एटीएन (शायद भारत की पहली सेटेलाइट चैनल) हुआ करती थी उसके मालिक सिद्धार्थ श्रीवास्तव, सीईओ प्रदीप दीक्षित मुझे बहुत मानते थे उनके लिए प्रोग्राम बनवाने और अपनी संवाद परिक्रमा कंपनी से दूरदर्शन की मेट्रो चैनल पर ‘कारोबारनामा’ बनाने व ‘गपशप’ कॉलम को ‘पंजाब केसरी’ में ट्रांसफर करके निज स्वतंत्र सफर शुरू किया तो अभी तक जैसे-तैसे तमाम विपरीत स्थितियों, घोर सेकुलर से लेकर घोर हिंदुवादी मोदी-शाह सरकारों के खट्टे-मीठे अनुभवों में लगातार चल ही रहा है।

Read also ब्लू स्टारः कालजयी घाव!

मैंने अयोध्या पर बहुत लिखा हैं। बेइंतहा। और मेरा अयोध्या सत्य यह है कि नरसिंह राव ने जैसे सोचा उससे अधिक सोचते हुए मैंने तभी लिख दिया था कि जो होना था हो गया। अब वहां मस्जिद नहीं बन सकती। सेकुलर मंदिर या ‘नया इंडिया’ में सालों से लिखते आ रहे डॉ. वैदिक का इंसानियत का मंदिर, परिसर जैसी लफ्फाजी का मतलब नहीं है। पीवी नरसिंह राव ने 6-7-8-9-10 दिसंबर के पांच दिनों में जिस स्थितप्रज्ञता से ध्वंस के बीच कच्चा मंदिर बनने दिया और फोतेदार, अर्जुन सिंह, नारायण दत्त तिवारी, शरद पवार से लेकर तमाम तरह के सेकुलरवादियों के दबाव के बावजूद वे बिना धैर्य खोए जैसे गद्दी पर बैठे रहे उसकी याद रोंगटे खड़े करने वाली है। सवाल है यदि तब नरसिंह राव प्रधानमंत्री नहीं होते और अर्जुन सिंह या एनडी तिवारी या गांधी परिवार की तरफ से डॉ. मनमोहन सिंह जैसा कोई प्रधानमंत्री होता तो क्या छह दिसंबर के दिन मस्जिद ढहने के बाद वहां कच्चा मंदिर बनता? हां। क्योंकि ये सब भी उसी तरह सोचते हुए होते जैसे 1949 में मूर्ति रखे जाने के बाद मुख्यमंत्री जीबी पंत, पीएम पंडित नेहरू और डीएम नैयर ने सोचा था।

By हरिशंकर व्यास

मौलिक चिंतक-बेबाक लेखक और पत्रकार। नया इंडिया समाचारपत्र के संस्थापक-संपादक। सन् 1976 से लगातार सक्रिय और बहुप्रयोगी संपादक। ‘जनसत्ता’ में संपादन-लेखन के वक्त 1983 में शुरू किया राजनैतिक खुलासे का ‘गपशप’ कॉलम ‘जनसत्ता’, ‘पंजाब केसरी’, ‘द पॉयनियर’ आदि से ‘नया इंडिया’ तक का सफर करते हुए अब चालीस वर्षों से अधिक का है। नई सदी के पहले दशक में ईटीवी चैनल पर ‘सेंट्रल हॉल’ प्रोग्राम की प्रस्तुति। सप्ताह में पांच दिन नियमित प्रसारित। प्रोग्राम कोई नौ वर्ष चला! आजाद भारत के 14 में से 11 प्रधानमंत्रियों की सरकारों की बारीकी-बेबाकी से पडताल व विश्लेषण में वह सिद्धहस्तता जो देश की अन्य भाषाओं के पत्रकारों सुधी अंग्रेजीदा संपादकों-विचारकों में भी लोकप्रिय और पठनीय। जैसे कि लेखक-संपादक अरूण शौरी की अंग्रेजी में हरिशंकर व्यास के लेखन पर जाहिर यह भावाव्यक्ति -

Leave a comment

Your email address will not be published. Required fields are marked *

eighteen + fourteen =

और पढ़ें

Naya India स्क्रॉल करें