मानव और खासकर हिंदू इतिहास ‘एक्ट ऑफ फ्रॉड’ से भरा पड़ा है। फ्रॉड छोटा-मोटा नहीं। सीधे अपने आपको भगवान घोषित करने या बनने-बनाने का। सचमुच भेड़-बकरी जीवन वाले अंधविश्वासी समाज को एक तरफ करके जरा सोचें 21वीं सदी के चेतन हिंदू लोगों के अनुभवों पर। वे कितनी तरह के, कैसे-कैसे ‘एक्ट ऑफ फ्रॉड’ में जिंदगी जी रहे हैं। सर्वप्रथम राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ उर्फ आरएसएस को ही देखें। इसके साथ कैसा ‘एक्ट ऑफ फ्रॉड’ हुआ है जो न तो उनका हिंदू राष्ट्र बना, न अखिल भारतीय गोहत्या पाबंदी कानून बना, न स्वदेशी-आत्मनिर्भर भारत बना, न विदेशी बाहर निकाले गए, न कॉमन सिविल कोड बना और न कश्मीर घाटी में हिंदुओं का रहना संभव हो पाया। बावजूद इसके मोदीजी की आरती उतारते रहने को मजबूर। नरेंद्र मोदी ने हर तरह से संघ का टेकओवर किया हुआ है। न मोहन भागवत जैसों की कोई हैसियत है और न उनके स्वंयसेवक नितिन गडकरी की या किसी भी एक्सवाईजेड स्वयंसेवक मुख्यमंत्री की! यदि नरेंद्र मोदी की ईश्वरीय सत्ता 2029 तक बनी रहे तो संघ अपना सौंवा साल मोदी स्वंयसेवक संघ के रूप में मनाता हुआ होगा।
मतलब आठ वर्षों में संस्था, संस्कार, चरित्र, सेवा, समाज, संस्कृति सब खत्म और हर हिंदू, हर स्वंयसेवक दिन-प्रतिदिन झूठ, नेताओं की खरीद-फरोख्त की मंडियों के सौदे देखते हुए, डर-खौफ व वैश्विक इंडेक्सों से देश को रसातल में जाते हुए देख रहा है मगर भगवानजी के आगे कुछ भी करने की हिम्मत नहीं। हिसाब से यह वैश्विक रिपोर्ट बहुत हिला देने वाली है कि यूनेस्को ने भारत की शिक्षा को अफगानिस्तान के लेवल वाला बूझा है। भारत में शिक्षा श्रीलंका, भूटान और पाकिस्तान से भी पिछड़ गई है।
क्या यह सब ‘एक्ट ऑफ फ्रॉड’ के कारण नहीं है? इस ‘एक्ट ऑफ फ्रॉड’ का सर्वाधिक शिकार कौन है वे ही जो मोदीजी को बतौर भगवान पूजा करते हैं और जिनकी बदौलत वोट लेने का उनका जादू है।
हां, हर पैमाने में, हर कसौटी और हर क्षेत्र में वैश्विक इंडेक्स भारत की साल-दर-साल गिरती दशा का सत्य उद्घाटित कर रहे हैं तो ऐसा उन अज्ञानी, अंधविश्वासी व फ्री की रोटी व नमक की नमकहलाली में जीने वाली आबादी से है, जिसमें समझ नहीं है कि असल शिक्षा, असल चिकित्सा, असल रोजगार और असल इंसानी आजादी तथा गरिमा में जीना क्या है। क्या है भेड़-बकरी जीवन बनाम इंसानी जीवन का फर्क?
संदेह नहीं पहले से ही ‘एक्ट ऑफ फ्रॉड’ से भारत में दो तरह के जीवन चले आ रहे हैं। शासक और शासित के। भगवान और भक्त के। लेकिन सन् 2014 के बाद अडानी-अंबानी बनाम गरीब-गुरबे के फर्क की विचित्रता यह है कि अवतारी भगवान से बनते खरबपति अडानी-अंबानी की कहानियों में अब गरीब-गुरबे अपनी खुशहाली बूझ रहे हैं। गरीब की रेवड़ में पांच किलो फ्री राशन भगवानजी का प्रसाद और खुशहाली का प्रमाण!
भारत में आम जीवन की तमाम दरिद्रताओं (भूख, शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार, हादसों, बीमारियों आदि) पर ‘एक्ट ऑफ फ्रॉड’ से नियति का जो ठप्पा लगा है उसने इस समझदारी को खत्म किया है कि सरकारी शिक्षा, सरकारी चिकित्सा, सरकारी सेवाओं बनाम फाइव स्टार शिक्षा, चिकित्सा और सर्विसेज का अंतर बहुसंख्यक आबादी के जीवन से धोखा है। उनकी आगे की पीढ़ियों का नरक बनना है। पर देश की कोई 100 करोड़ आबादी उस नैरेटिव, उस प्रोपेगेंडा, उस सोशल मीडिया में अंधी है जो कलियुग की भी अति है।
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