राहुल गांधी और कांग्रेस के प्रवक्ताओं को छोड़ दें तो ज्यादातर नेता अदानी मसले पर चुप हो गए हैं। कांग्रेस के बड़े नेता संसद के बजट सत्र में भले संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी बनाने की मांग करते हुए हंगामा करते रहे और अदानी मसले पर संसद की कार्यवाही ठप्प करते रहे लेकिन उसके बाद वे इस मसले पर बयान देने से बच रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष और राज्यसभा में नेता विपक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे संसद में अदानी विरोध का केंद्र थे लेकिन कर्नाटक के चुनाव प्रचार में उन्होंने इस बारे में कुछ नहीं कहा है। राहुल गांधी ने भी अपनी एक-दो शुरुआती सभाओं में अदानी को निशाना बनाया लेकिन बाद में वे भी इस पुरानी बात पर लौटे कि भाजपा दो-तीन अरबपतियों के लिए काम करती है। कर्नाटक में कांग्रेस को चुनाव लड़वा रहे दोनों बड़े नेता सिद्धरमैया और डीके शिवकुमार अदानी पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। प्रियंका गांधी वाड्रा ने अपने दो दिन के चुनाव प्रचार में एक बार भी अदानी का नाम नहीं लिया।
कांग्रेस के तीन मुख्यमंत्री हैं और तीनों इस पर चुप हैं। हिमाचल प्रदेश में मुख्यमंत्री सुखविंदर सिंह सुक्खू ने बहुत प्रयास करके ट्रांसपोर्ट एसोसिएशन के साथ चल रहा अदानी समूह का झगड़ा निपटाया, जिसके बाद ट्रांसपोर्टर्स ने अपनी हड़ताल खत्म की थी। राजस्थान में गौतम अदानी ने 50 हजार करोड़ रुपए के निवेश का ऐलान किया है। सो, अदानी समूह पर हमला करना अशोक गहलोत के लिए भी राजनीतिक रूप से मुफीद नहीं होगा। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस सरकार ने तमाम विरोध के बावजूद हसदेव जंगल के पेड़ काटने की मंजूरी दी। हसदेव अरण्य में अदानी समूह की कोयले की खदानें हैं, जहां से कोयला निकालने के लिए जंगल काटना जरूरी थी। जंगल को बचाने के लिए देश भर के सामाजिक संगठन और आदिवासी समूह विरोध कर रहे थे लेकिन अंततः जंगल काटने की मंजूरी दी गई। वहां अदानी समूह के साथ सरकार और कांग्रेस के कई नेताओं के नजदीकी संबंध हैं। सो, तीनों मुख्यमंत्रियों के लिए अदानी पर बोलना मुश्किल है।
कमलनाथ मध्य प्रदेश के अध्यक्ष हैं और मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। वे शुरू से कॉरपोरेट समर्थक माने जाते हैं इसलिए उनसे उम्मीद नहीं की जा सकती है कि वे अदानी के खिलाफ बोलेंगे। लेकिन यह सिर्फ कांग्रेस नेताओं या कांग्रेस के मुख्यमंत्रियों की दुविधा या मुश्किल नहीं है, बल्कि दूसरी विपक्षी पार्टियां भी एक एक करके अदानी और हिंडनबर्ग रिपोर्ट के मामले से दूर होती जा रही हैं। अगर किसी पार्टी के कुछ नेता या प्रवक्ता बयान दे भी रहे हैं तो बड़े नेता खासतौर से मुख्यमंत्री आदि इस पर कुछ नहीं बोल रहे हैं। ममता बनर्जी से लेकर नीतीश कुमार तक अदानी का नाम लेने से बचते रहे हैं।
एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने एक कदम आगे बढ़ कर अदानी को क्लीन चिट दे दी है। उन्होंने एक इंटरव्यू में अदानी और अंबानी की तुलना टाटा और बिड़ला से कर दी और अदानी का बचाव करते हुए कहा कि हिंडनबर्ग की साख के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है और ऐसा लग रहा है कि एक औद्योगिक समूह को जान बूझकर निशाना बनाया गया। इसके बाद गौतम अदानी मुंबई में उनसे मिलने उनके घर गए, जहां दोनों के बीच दो घंटे तक गोपनीय बैठक हुई। इस मुलाकात ने रही सही कसर पूरी कर दी है। महाराष्ट्र में कांग्रेस की दोनों सहयोगी पार्टियां- एनसीपी और शिव सेना के उद्धव ठाकरे गुट को अदानी से दिक्कत नहीं है। गुजरात की प्रदेश कांग्रेस ईकाई को पहले से कोई दिक्कत नहीं है। डीएमके, बीआरएस वगैरह के लिए यह पहले भी कभी मुद्दा नहीं था। असल में हर राज्य में अदानी का कारोबार है, निवेश है और लोगों की नौकरियां हैं। इसलिए कोई भी पार्टी उसे निशाना नहीं बनाना चाहती है।
तभी सवाल है कि जब कांग्रेस के दूसरे बड़े नेता और विपक्ष के नेता चुप रहेंगे तो राहुल गांधी इस मसले पर आगे क्या करेंगे? क्या वे अकेले अदानी का मुद्दा उठाते रहेंगे? ध्यान रहे अदानी समूह पर आई हिंडनबर्ग की रिपोर्ट विपक्ष के लिए बोफोर्स जैसा मुद्दा थी। इसमें वह सब कुछ था, जिसके आधार पर सरकार को कठघरे में खड़ा किया जाए। विपक्ष ने इस मुद्दे पर उसी अंदाज में राजनीति भी की। संसद का पूरा बजट सत्र इस मसले पर जाया हुआ। लेकिन जब चुनावी राजनीति में इस मुद्दे के इस्तेमाल की बात आई है तो यह मुद्दा नहीं चल पाया। कर्नाटक में हो सकता है कि कांग्रेस चुनाव जीत जाए लेकिन उसमें अदानी और हिंडनबर्ग की रिपोर्ट का कोई हाथ नहीं होगा। कर्नाटक सरकार के ऊपर पहले से भ्रष्टाचार के आरोप हैं और राहुल गांधी व प्रियंका गांधी वाड्रा से लेकर कांग्रेस के तमाम नेता उसे 40 फीसदी कमीशन वाली सरकार बता कर प्रचार कर रहे हैं।
यह भी संभव है कि रणनीतिक रूप से कर्नाटक में कांग्रेस ने अदानी का मुद्दा छोड़ा हो क्योंकि प्रदेश के नेता चाहते हैं कि विधानसभा का चुनाव राज्य के स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाए। अगर उसमें राष्ट्रीय मुद्दे लाए जाते हैं तो नरेंद्र मोदी का चेहरा आएगा और उनके ऊपर हमला करना होगा, जो कि कांग्रेस के लिए ठीक नहीं होगा। प्रदेश के नेताओं पर हमला करके भाजपा को हराया जा सकता है लेकिन अगर फोकस नरेंद्र मोदी के ऊपर होगा तो भाजपा को नुकसान की बजाय फायदा हो सकता है। हो सकता है कि इस वजह से कर्नाटक चुनाव में अदानी का मुद्दा नहीं बनाया गया हो। लेकिन कर्नाटक के बाहर भी अब यह कोई मुद्दा नहीं है और अगर कांग्रेस कर्नाटक में जीत जाती है तो यह तय मानना चाहिए कि तेलंगाना, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में इस साल होने वाले विधानसभा चुनाव में भी अदानी का मुद्दा नहीं होगा। फिर उसके बाद इस बात की कितनी संभावना रह जाएगी कि विपक्ष 2024 के लोकसभा चुनाव में इसका मुद्दा बनाएगा?
अगले लोकसभा चुनाव से पहले अदानी समूह और हिंडनबर्ग पर सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी की रिपोर्ट आ जाएगी। अगर सुप्रीम कोर्ट की बनाई विशेषज्ञ समिति ने कोई गंभीर गड़बड़ी नहीं बताई और सेबी की जांच में क्लीन चिट मिली तो विपक्ष का मुद्दा टांय टांय फिस्स हो जाएगा। ध्यान रहे पेगासस पर भी सुप्रीम कोर्ट ने तकनीकी विशेषज्ञों की कमेटी बनाई थी और उसने कोई गड़बड़ी नहीं पकड़ी। किसान मामले में भी सुप्रीम कोर्ट की विशेषज्ञ कमेटी कैसी थी और उसने क्या किया वह सबने देखा। इसलिए अदानी मसले पर भी विशेषज्ञ कमेटी से कोई खास उम्मीद नहीं की जा सकती है।
सवाल है कि ऐसा क्यों हुआ कि जिस रिपोर्ट ने अदानी समूह की बुनियाद हिला दी, जिस रिपोर्ट की वजह से अदानी दुनिया के दूसरे सबसे अमीर व्यक्ति से 33वें स्थान पर पहुंच गए, जिस रिपोर्ट से अदानी समूह की 10 लाख करोड़ रुपए की पूंजी डूब गई, उस रिपोर्ट का कोई बड़ा राजनीतिक मुद्दा नहीं बन पाया? इसमें संदेह नहीं है कि इस विवाद ने आम लोगों तक यह बात पहुंचाई है कि कोई उद्योगपति है अदानी, जो प्रधानमंत्री का बहुत करीबी है। यह बात अपने आप में प्रधानमंत्री की छवि को नुकसान पहुंचाने के लिए पर्याप्त है। हो सकता है कि लोगों के मन में कोई धारणा बनी हो, जिसका प्रकटीकरण राष्ट्रीय चुनाव में हो लेकिन कम से कम अभी यह दिख रहा है कि एक राजनीतिक मुद्दे के तौर पर यह विपक्ष का सबसे बड़ा हथियार नहीं रह गया है।