बेबाक विचार

बाबू बनाम विशेषज्ञ की बहस

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बाबू बनाम विशेषज्ञ की बहस
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सरकारी बाबू यानी अफसरशाही बनाम विशेषज्ञता की बहस छेड़ दी है। उन्होंने 11 फरवरी को संसद में भाषण देते हुए सरकारी बाबुओं की काबिलियत पर सवाल उठाए। प्रधानमंत्री ने सवालिया लहजे में कहा- सब कुछ बाबू ही करेंगे? आईएएस बन गया मतलब वह फर्टिलाइजर का कारखाना भी चलाएगा, केमिकल का कारखाना भी चलाएगा, आईएएस हो गया तो वह हवाई जहाज भी चलाएगा। यह कौन सी बड़ी ताकत बना कर रख दी है हमने? बाबुओं के हाथ में देश दे करके हम क्या करने वाले हैं? प्रधानमंत्री की यह बात बहुत मायने वाली है। हालांकि अफसरशाही के स्टील फ्रेम को लेकर ऐसा नहीं है कि पहली बार नरेंद्र मोदी ही बोले हैं। पहले भी इस पर बहस होती रही है और इस बात की वकालत होती रही है कि जब तक अंग्रेजों की बनाई ब्यूरोक्रेसी का स्टील फ्रेम नहीं टूटेगा, तब तक देश लंबी छलांग लगाने में कामयाब नहीं होगा। देश अगर ठहराव की स्थिति में है या मंथर गति से विकास कर रहा है तो उसका एक कारण यह भी है सब कुछ रूटीन में एक ढांचे में हो रहा है। अलग हट कर यानी आउट ऑफ द बॉक्स सोच की कमी है। साहसिक फैसले लेने में हिचक भी ठहराव का एक बड़ा कारण है। सबको पता है कि किसी करियर ब्यूरोक्रेट के लिए ऑउट ऑफ द बॉक्स सोचना मुश्किल है। हां, यह काम अगर राजनीतिक नेतृत्व करे और नई साहसिक नीतियां बनाए तो वे उस पर अमल कर सकते हैं। सो, राजनीतिक नेतृत्व की समझदारी और उसकी इच्छा शक्ति का मसला सबसे पहले आता  है। सिर्फ बाबू बनाम विशेषज्ञ की बहस से कोई नतीजा नहीं निकलेगा, अगर उसके साथ ही राजनीतिक नेतृत्व की समझदारी पर चर्चा न हो। ध्यान रहे पीवी नरसिंह राव और मनमोहन सिंह के नेतृत्व ने देश को मिश्रित अर्थव्यवस्था के ढांचे से बाहर निकालने की पहल की थी। आर्थिक उदारीकरण का फैसला आजाद भारत के इतिहास के सबसे साहसिक फैसलों में से एक था और वह राजनीतिक नेतृत्व की वजह से संभव हो पाया था। बहरहाल, प्रधानमंत्री मोदी ने सरकारी बाबुओं पर जो तंज किया उससे क्या नतीजा निकाला जाए? क्या यह माना जाए कि सरकार अब बाबुओं की बजाय विशेषज्ञों की सलाह से काम करेगी? क्या यह माना जाए कि राजनीतिक नेतृत्व अब विशेषज्ञों से सलाह लेगा और साहसिक फैसले करेगा? या इसका सिर्फ इतना मतलब है कि सरकार कुछ फैसले करने जा रही है, जिसकी तात्कालिकता को ध्यान में रख कर यह बयान दिया गया है? ध्यान रहे लैटरल एंट्री के जरिए निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को सरकार निदेशक और संयुक्त सचिव बना रही है। इसके अलावा सरकारी कंपनियों के निजीकरण की रफ्तार बढ़ाई जाने वाली है, जिसके लिए कहा जा रहा है कि सरकार निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की सलाह लेगी। इसका एक अर्थ तो यह निकल रहा है कि सरकारी बाबुओं की वजह से निजीकरण की रफ्तार धीमी है इसलिए प्रधानमंत्री ने उनसे नाराजगी जताई है और निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों में भरोसा दिखाया है। हालांकि कथित विशेषज्ञों की देख-रेख में चलने वाली निजी कंपनियां जितनी तेजी से दिवालिया हो रही हैं उससे उनकी काबिलियत पर बड़ा सवाल खड़ा होता है। एक सवाल यह भी है कि प्रधानमंत्री ने सरकारी बाबुओं को लेकर जो कहा उसको कितनी गंभीरता से लिया जाए? यह सवाल इसलिए है क्योंकि प्रधानमंत्री खुद अपने सारे काम बाबुओं के सहारे कर रहे हैं। उनको अगर सचमुच लग रहा है कि फर्टिलाइजर का कारखाना या हवाई जहाज चलाने का काम आईएएस को नहीं देना चाहिए तो उन्होंने एक रिटायर आईएफएस को नागरिक विमानन मंत्री क्यों बनाया हुआ है? हरदीप सिंह पुरी को विमानन क्षेत्र का कोई अनुभव नहीं है और उनकी आखिरी नियुक्ति संयुक्त राष्ट्र संघ में थी फिर भी वे मोदी सरकार में विमानन मंत्री हैं। इसी तरह रिटायर आईएएस और देश के गृह मंत्री रहे आरके सिंह भी मोदी सरकार में मंत्री हैं और ऊर्जा मंत्रालय संभाल रहे हैं। सवाल है कि कोई आईएएस फर्टिलाइजर का कारखाना नहीं संभाल सकता है तो कोई रिटायर आईएएस समूचा ऊर्जा मंत्रालय कैसे संभाल सकता है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योजना आयोग का नाम बदल कर नीति आयोग रखा है। इसमें नीति का पूरा नाम नेशनल इंस्टीच्यूट फॉर ट्रांसफॉर्मिंग इंडिया है। इस संस्थान के सीईओ भी रिटायर आईएएस अमिताभ कांत हैं। उनका कार्यकाल पूरा हो गया था तो उनको सेवा विस्तार भी दिया गया। आईएएस फर्टिलाइजर का कारखाना या हवाई जहाज का विभाग नहीं देख सकता है पर पूरे देश को बदलने वाली नीतियों का निर्माण कर सकता है? ऐसे ही रघुराम राजन और उर्जित पटेल जैसे विशेषज्ञों के बाद प्रधानमंत्री ने रिटायर आईएएस अधिकारी शक्तिकांत दास को रिजर्व बैंक का गवर्नर बनाया है। यानी देश की मौद्रिक नीति बनाने में भी प्रधानमंत्री का भरोसा आईएएस अधिकारी पर ही है। केंद्रीय सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त के पद पर विदेश सेवा के रिटायर अधिकारी यशवर्धन कुमार सिन्हा को बैठाया गया है। देश के खजाने से होने वाले खर्च का हिसाब-किताब यानी सीएजी का काम भी प्रधानमंत्री के भरोसे के आईएएस गिरीश चंद्र मुर्मु देख रहे हैं। वहां भी अगर एकाउंट्स सर्विस के किसी वरिष्ठ अधिकारी को बैठाया गया रहता तो सरोकार समझ में आता। बहरहाल, मंत्री से लेकर सरकार के सारे महत्वपूर्ण पदों पर प्रधानमंत्री ने खुद ही आईएएस या रिटायर आईएएस अधिकारियों को बैठा रखा है और संसद में उन्होंने कहा कि आईएएस हो गया तो क्या फर्टिलाइजर का कारखाना भी चलाएगा और हवाई जहाज भी उड़ाएगा! इस तरह की बातें मजमा लगाने या ताली बजवाने के लिए तो ठीक हैं पर गंभीर विमर्श में इनका कोई मतलब नहीं होता है। अगर सचमुच प्रधानमंत्री को ऐसा लग रहा है कि सरकारी बाबू हर काम करने में सक्षम नहीं हैं और विषय के विशेषज्ञों से काम करना ज्यादा बेहतर होगा तो उन्हें इस बात को अमल में लाना होगा। उन्हें विशेषज्ञता वाले पदों मसलन रिजर्व बैंक के गवर्नर, सूचना आयोग के प्रमुख, नीति आयोग के सीईओ जैसे पदों पर विशेषज्ञों को बैठाना चाहिए और उन पर भरोसा करते हुए उन्हें काम करने की आजादी देनी चाहिए। साथ ही उन्हें खुद इस बात पर आत्ममंथन करना चाहिए कि जाने-माने विशेषज्ञ उनकी सरकार के साथ काम क्यों नहीं करना चाहते? क्यों रिजर्व बैंक के दो गवर्नर रघुराम राजन और उर्जित पटेल इस्तीफा देकर चले गए? क्यों नीति आयोग के पहले उपाध्यक्ष अरविंद पनगढ़िया और मोदी सरकार के पहले मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम ने आगे सरकार के साथ काम नहीं किया? क्यों उन्होंने अमेरिका में अध्यापन के काम को भारत सरकार में काम करने से बेहतर माना? क्या भारत का राजनीतिक सिस्टम विशेषज्ञों को काम नहीं करने देता है या सरकारी बाबुओं का तंत्र निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों को विफल करने के लिए काम करता है? भारत में दोनों ही स्थितियां हैं। सत्ता के शिखर पर बैठे व्यक्ति को लगता है कि वह सर्वज्ञ है तो दूसरी ओर संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा पास करके आईएएस बनने वाले अधिकारी भी अपने को सर्वज्ञ मानते हैं। जब तक ये दोनों अपने को सर्वज्ञ मानना नहीं छोड़ेंगे तब तक कोई भी विशेषज्ञ अपनी पूरी क्षमता और योग्यता के साथ भारत में काम नहीं कर पाएगा।
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