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शिक्षण संस्थाएं खोले, सही समय!

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शिक्षण संस्थाएं खोले, सही समय!
open schools colleges : पुरानी कहावत है कि किसी भी काम को शुरू करने का सबसे सही समय आज का होता है। सो, अगर कहा जाए कि कोरोना वायरस की महामारी की वजह से बंद पड़े शिक्षण संस्थानों को खोलने का सही समय क्या होगा तो उसका जवाब है कि आज! केंद्र और राज्य सरकारों को प्राथमिकता के आधार पर स्कूल, कॉलेज, शोध व तकनीकी शिक्षा देने वाले संस्थान और कोचिंग इंस्टीच्यूट आदि को खोलने की पहल करनी चाहिए। शिक्षा से जुड़े तमाम हितधारकों के बीच आम सहमति बना कर शिक्षण संस्थानों को जितनी जल्दी हो उतनी जल्दी खोलने का फैसला किया जाए। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने एक अक्टूबर से उच्च शिक्षण संस्थानों को खोलने की इजाजत दे दी है, लेकिन यह पर्याप्त नहीं है। Read also:  Navjot Singh Sidhu बने पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष कोरोना वायरस की पहली लहर कमजोर पड़ने के बाद भी विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने कॉलेज खोलने की इजाजत दी थी लेकिन वह इजाजत वैकल्पिक थी। यह संस्थानों की मर्जी पर था कि वे कैंपस में शैक्षणिक गतिविधियां शुरू कराते हैं या नहीं। अभी इस तरह के आधे-अधूरे पहल की जरूरत नहीं है। इसकी बजाय कोरोना प्रोटोकॉल के तहत सारे शिक्षण संस्थानों को खोलने की अनिवार्यता बनानी चाहिए। स्कूल-कॉलेज बंद रखने और परीक्षाएं टालते जाने से बच्चों का भला नहीं होने वाला है और न समाज का भला होना है। उलटे लाखों-करोड़ों बच्चों का जीवन बरबाद हो जाएगा। कोरोना ने जितना नुकसान किया उससे ज्यादा नुकसान शिक्षण संस्थानों को बंद रखने से हो रहा है। Lockdown Restrictions Unlock Read also: मोदी-योगी के काम का प्रचार open schools colleges बारहवीं की परीक्षा टालने के लिए सोशल मीडिया में भले प्रायोजित तरीके से प्रधानमंत्री को धन्यवाद दिलवाया गया हो लेकिन यह धन्यवाद के लायक काम नहीं है। यह लाखों बच्चों का जीवन अधर में लटकाने वाला फैसला है। 12वीं की परीक्षा को सिर्फ भारत में नहीं पूरी दुनिया में उच्च शिक्षा का प्रवेश द्वार माना जाता है। यह परीक्षा टालने से जो बच्चे खुश हुए हैं, वे ऐसे बच्चे हैं, जिनका पढ़ाई-लिखाई से कोई खास सरोकार नहीं है। पढ़ने-लिखने और करियर को गंभीरता से लेने वाले ज्यादातर छात्र इससे दुखी हुए हैं। ऊपर से अंक देने का जो तरीका बना है वह बेहद अवैज्ञानिक है। एक तरफ सरकार जेईई जैसी दाखिले के लिए होने वाली परीक्षा दो बार करा रही ताकि पहली बार में अच्छा नहीं करने वाला बच्चा दूसरी बार में बेहतर करे और दूसरी ओर 12वीं की परीक्षा में 10वीं, 11वीं के अंक के आधार पर मार्किंग की जा रही है! उन बच्चों के बारे में सोचें, जिन्होंने बोर्ड की परीक्षा से पहले अपने के बेहतर करने के लिए जी-तोड़ मेहनत की होगी! यह पूरी प्रक्रिया असल में मूढ़ता को प्रोत्साहित करने वाली है। सबको औसत विद्यार्थी बना देने वाली! Read also: तालिबान का यह कौन सा इस्लाम? बहरहाल, लगातार डेढ़ साल से स्कूल-कॉलेज बंद रहने का शिक्षा से इतर भी बड़ा असर पड़ रहा है। देश के ज्यादातर स्कूलों में मिड डे मील की सुविधा है। बच्चे सिर्फ पढ़ने नहीं, बल्कि पोषण के लिए भी स्कूल जाते हैं। स्कूल बंद रहने से ऐसे बच्चों को खाना नहीं मिल रहा है, जिससे बच्चों का एक बड़ा वर्ग कुपोषण का शिकार हो सकता है। अगर स्कूल-कॉलेज बंद रहने के सामाजिक असर का विश्लेषण करें तो कई समस्याएं साफ दिख रही हैं। गांवों, कस्बों और छोटे शहरों में बाल श्रम में बढ़ोतरी हो रही है। स्कूल बंद होने, खाने-पीने की सुविधा की कमी और आर्थिक परेशानियों के कारण निम्न आय वर्ग वाले परिवारों ने कम उम्र के बच्चों तो काम-धंधे में लगा दिया है। ऐसे बच्चों के फिर से स्कूल लौटने की संभावना खत्म हो गई है। इसी तरह स्कूल-कॉलेज बंद होने से बाल विवाह में बढ़ोतरी की आशंका है तो कम उम्र के लड़के-लड़कियों के शहरों की ओर पलायन और ट्रैफिकिंग दोनों की आशंका बढ़ गई है। इसका मतलब है कि जब तक स्कूल खुलेंगे तब तक लाखों बच्चे स्कूल-कॉलेज यानी पढ़ाई से दूर जा चुके होंगे। यह तय है कि जब भी स्कूल-कॉलेज खुलेंगे तब ड्रॉपआउट रेट यानी स्कूल छोड़ने की दर बढ़ी हुई मिलेगी। ऐसा नहीं है कि सरकारों को इसका अंदाजा नहीं है लेकिन ऐसा लग रहा है कि वे कोरोना के बहाने अपनी जिम्मेदारी से पीछा छुड़ा रहे हैं। इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि बिहार से लेकर गुजरात तक हजारों की संख्या में स्कूल बंद होने की खबरें हैं। हजारों निजी स्कूल हमेशा के लिए बंद हो गए क्योंकि प्रबंधन स्कूल की व्यवस्था को चलाए रखने में सक्षम नहीं था। स्कूल की इमारतों के किराए से लेकर बिजली-पानी के बिल और शिक्षकों व शिक्षकेत्तर कर्मचारियों के वेतन का खर्च उनके लिए भारी पड़ने लगा तो उन्होंने स्कूलों को बंद करना बेहतर समझा। कई राज्यों में सरकारी स्कूलों के भी बंद होने की खबरें हैं। कम साधन में चलने वाले स्कूल बंद हो रहे हैं तो भारी-भरकम फीस वसूलने वाले संस्थान कोरोना काल में भी सरकारी व अदालती आदेश के जरिए ऊंची फीस वसूल कर ऑनलाइन शिक्षा का तमाशा चलाए हुए हैं। सरकारों की ओर से छोटे और कम साधन वाले संस्थानों को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया गया। उनके लिए किसी राहत पैकेज की घोषणा नहीं की गई। MP Board 10th Result 2021 हैरानी की बात है कि कोरोना के केसेज कम होने के साथ ही अनलॉक की प्रक्रिया शुरू हो जाती है लेकिन महामारी की दोनों लहर में स्कूल-कॉलेजों को अनलॉक से दूर रखा गया। केंद्र और राज्य सरकारों ने कोविड-19 प्रोटोकॉल के तहत शिक्षण संस्थानों को खोलने के बारे में विचार ही नहीं किया। इसे प्राथमिकता में सबसे आखिर में रखा गया। निजी व सरकारी दफ्तर खुलने लगे, विमान और रेल यात्रा शुरू हो गई या चलती ही रही, मॉल और बाजार खुल गए, जिम और योग केंद्रों की मंजूरी दे दी गई, कम संख्या के साथ सामाजिक-सांस्कृतिक गतिविधियां चलने लगीं, कई राज्यों में चुनाव हुए, रैलियां हुईं लेकिन शिक्षण संस्थानों को नहीं खोला गया। सोचें, भारत में शिक्षण संस्थानों को सिनेमा हॉल की श्रेणी में रखा गया है! इस समय देश के ज्यादातर राज्यों में सिर्फ दो ही चीजें- सिनेमा हॉल या शिक्षण संस्थान बंद हैं। इससे अंदाजा लग रहा है कि सरकारें शिक्षा को कितनी गंभीरता से ले रही हैं। Read also: गांधी और मंडेला: नया समाज अगर शिक्षा सरकार की प्राथमिकता में होती तो काफी पहले शिक्षण संस्थान खुल गए होते। जिस तरह से स्वास्थ्यकर्मियों और फ्रंटलाइन वर्कर्स को प्राथमिकता से टीका लगाया गया उसी तरह देश के हर शिक्षण संस्थान में काम करने वाले शिक्षकों और शिक्षकेत्तर कर्मचारियों को प्राथमिकता के साथ टीका लगाने का बंदोबस्त किया जाता और उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ने वाले छात्रों को भी टीका लगा कर स्कूल-कॉलेज खोल दिए जाते। अगर एक बार में सारे बच्चों को स्कूल या कॉलेज में नहीं बुलाया जाता तो रोटेशन के तहत उनकी पढ़ाई का इंतजाम किया जा सकता था। देश के नए रेल मंत्री ने आते ही अपने मंत्रालय में दो शिफ्ट में कर्मचारियों को बुलाने का ऐलान किया तो उसकी बड़ी वाहवाही हुई। उसी तरह से स्कूल-कॉलेजों में भी दो शिफ्ट में पढ़ाई कराई जा सकती थी। लेकिन यह तब होता, जब सरकारें शिक्षकों से राशन बंटवाने या चुनाव ड्यूटी कराने की बजाय उनको बच्चों को पढ़ाने के काम में लगातीं। यहां तो फ्रंटलाइन वर्कर बने शिक्षक राशन बांट रहे हैं या विधानसभाओं और पंचायतों के चुनाव करा रहे हैं। इससे भी शिक्षा के प्रति भारत की संघीय और प्रादेशिक सरकारों की गंभीरता का अंदाजा होता है। open schools colleges open schools colleges सरकार के पास यह तर्क है कि ‘बच्चों का जीवन अनमोल है और उसे खतरे में नहीं डाला जा सकता है’। इस तर्क के सहारे स्कूल-कॉलेज बंद रखने को न्यायसंगत ठहराया जा रहा है। लेकिन यह कोई नहीं सोच रहा है कि बच्चों का जीवन खतरे में डाले बगैर कैसे उनको शिक्षा दी जा सकती है? क्या यह कोई सोच रहा है कि शिक्षा के बिना क्या जीवन होगा? ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर जो तमाशा चल रहा है उससे बच्चे कुछ सीख नहीं रहे हैं, बल्कि कई किस्म की मानसिक और शारीरिक परेशानियों में फंस रहे हैं। इसलिए यह तमाशा तत्काल बंद करके पर्याप्त सुरक्षा के साथ स्कूल-कॉलेज खोलने का काम सर्वोच्च प्राथमिकता के साथ किया जाना चाहिए।
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