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लॉकडाउन विफल होना क्या सच नहीं?

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लॉकडाउन विफल होना क्या सच नहीं?
कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी ने मंगलवार को वीडियो कांफ्रेंसिंग के जरिए प्रेस कांफ्रेंस की और कहा कि कोरोना वायरस का संक्रमण रोकने के लिए लागू किया गया लॉकडाउन विफल हो गया है। उन्होंने और भी कई बातें कहीं पर मुख्य बात यह थी कि उन्होंने उस लॉकडाउन को विफल बताया, जिसके दम पर सरकार की ओर से लाखों लोगों को संक्रमित होने से बचाने और हजारों लोगो की जान की रक्षा करने का दावा किया जा रहा है, जिसके दम पर दुनिया के सबसे महान नेता के तौर पर प्रधानमंत्री की ब्रांडिंग हो रही थी। तभी इसके अगले दिन रविशंकर प्रसाद ने जवाबी प्रेस कांफ्रेंस की। ध्यान रहे रविशंकर प्रसाद भाजपा के मौजूदा नेताओं में से सबसे पुराने प्रवक्ता हैं और केंद्रीय कानून व सूचना-प्रौद्योगिकी मंत्री हैं। सो, उन्हें राहुल का जवाब देने के लिए उतारने से ही लग रहा है कि राहुल ने जो कहा वह मामूली बात नहीं है। जाने-अनजाने में उन्होंने सच कह दिया है, जिसे कहने से विपक्ष के ज्यादातर नेता घबरा रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि संकट के समय में ऐसा सच कैसे कहा जाए! वे ‘न ब्रूयात सत्यं अप्रियम’ के अंदाज में राजनीति कर रहे हैं। बहरहाल, रविशंकर प्रसाद ने अपना ट्रेडमार्क बन गई शैली यानी गुस्से में लाल-पीला होते हुए राहुल पर हमला किया और कहा कि राहुल गांधी ने ऐसा बयान देकर कोरोना वायरस से खिलाफ लड़ाई को कमजोर किया है। अब सबसे पहला सवाल तो यहीं है कि राहुल या किसी भी विपक्षी नेता के बयान देने भर से कोरोना की लड़ाई कैसे कमजोर हो जाएगी?अव्वल तो विपक्ष के किसी नेता के बयान से किसी भी चीज पर कोई खास फर्क नहीं पड़ता है। वह भी आज के समय में जब कोई भी अखबार या चैनल विपक्ष के किसी नेता की कोई बात दिखाता ही नहीं है। दूसरे, भाजपा के मुताबिक कोरोना से लड़ाई नरेंद्र मोदी लड़ रहे हैं, जिनके सामने राहुल की हैसियत ‘पप्पू’ वाली है। सो, वे कैसे उस लड़ाई को कमजोर कर सकते हैं, जिसका नेतृत्व खुद नरेंद्र मोदी कर रहे हैं? तभी यह कोरोना वायरस से लड़ाई को कमजोर करने वाली बात तो जनता को बताने के लिए है कि मोदी जी बहुत चौक-चौबंद तरीके से लड़ाई लड़ रहे हैं और अगर वह लड़ाई कहीं कमजोर हो रही है तो उसका कारण मोदी जी या उनकी सरकार की अक्षमता नहीं, बल्कि विपक्षी पार्टी के नेता का बयान है। राहुल के ऊपर इतने आक्रामक तरीके से हमले का मकसद इस तरह की बातों को फैलने से रोकना है कि लॉकडाउन विफल हो गया है। असल में सरकार इसका दूसरा नैरेटिव बनवा रही है। स्वास्थ्य मंत्रालय और आईसीएमआर के जरिए सरकार यह तथ्य स्थापित करना चाह रही है कि अगर लॉकडाउन नहीं हुआ होता तो लाखों लोग संक्रमित होते और हजारों लोगों की जान गई होती। यह अलग बात है कि ज्यादातर लोग इस तथ्य पर भरोसा करने की बजाय यह देख रहे हैं कि इतने सख्त लॉकडाउन के बावजूद संक्रमितों की संख्या डेढ़ लाख से ज्यादा हो गई और इस बीच सरकार ने सब कुछ खोल कर हालात सामान्य दिखाने का ढोंग शुरू कर दिया। लॉकडाउन को सफल बताने के लिए सरकार की ओर से बार बार दुनिया के दूसरे देशों में संक्रमितों और मरने वालों की संख्या से तुलना की जा रही है। यह सही है कि अमेरिका में या रूस, ब्राजील, स्पेन, इटली, ब्रिटेन आदि में संक्रमितों की संख्या बहुत ज्यादा है और मरने वालों की तादाद भी भारत से ज्यादा है। पर उन देशों के साथ भारत की तुलना नहीं की जा सकती है। भारत की तुलना दक्षिण एशिया के देशों के साथ ही होनी चाहिए। क्योंकि जलवायु से लेकर आबादी के स्वरूप, बीसीजी के यूनिवर्सल टीकाकरण, उम्र के खांचे और जेनेटिक आधार पर भारत की ज्यादा समानता पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश के साथ है। यूनिवर्सिटी ऑफ मैसाचुसेट्स एम्हर्स्ट के दो अध्यापकों- दीपाकंर बसु और प्रियंका श्रीवास्तव ने दक्षिण एशिया के तीन देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश और श्रीलंका के साथ भारत के कोरोना केसेज की तुलना करते हुए एक लेख इंडियन एक्सप्रेस में लिखा है। दीपाकंर बसु और प्रियंका श्रीवास्तव ने सीधे सीधे तथ्य सामने रख कर दिए हैं। उन्होंने बताया है कि इन देशों में प्रति दस लाख की आबादी पर संक्रमितों की संख्या के लिहाज से सबसे ज्यादा केसेज बांग्लादेश में आए और सबसे कम मामले भारत में आए। लेकिन संक्रमितों की संख्या में मरने वालों की दर भारत में सबसे ज्यादा रही और बांग्लादेश में सबसे कम। यानी जहां प्रति दस लाख पर सबसे ज्यादा केसेज आए वहां मरने की दर सबसे कम है और जहां सबसे कम मामले आए वहां मृत्यु दर सबसे ज्यादा है। इस वस्तुनिष्ठ आकलन से यह निष्कर्ष निकलता है कि किसी देश ने लॉकडाउन लागू किया या नहीं किया और किसी देश के पास नरेंद्र मोदी जैसा नेता है या नहीं है, इसके कोई खास फर्क नहीं पड़ा है। इन चारों देशों में कमोबेश एक जैसी स्थिति है। यह भी एक आधार बनता है यह कहने का कि लॉकडाउन सफल नहीं हुआ क्योंकि पहले दिन से कोरोना वायरस से लड़ने की भारत की रणनीति गलत रही। 23 जनवरी को वुहान में लॉकडाउन शुरू हुआ था और 27 जनवरी को वुहान से एक विमान केरल पहुंचा था, जिसमें तीन लोग बुखार से पीड़ित थे और 30 जनवरी को उनमें से एक व्यक्ति कोरोना से संक्रमित निकला। वह भारत का पहला केस था। उसी दिन तमाम अंतरराष्ट्रीय उड़ानों से आने वालों की जांच और क्वरैंटाइन का फैसला हुआ होता तो भारत में संक्रमण फैलता ही नहीं या अगर फैलता भी तो बहुत मामूली होता, जिसे रोका जा सकता था। लेकिन भारत में अंतरराष्ट्रीय उड़ानों पर रोक लगाने का फैसला मार्च के मध्य में हुआ। उस बीच दुनिया भर से लोग आते रहे, जिनसे देश भर में कोरोना फैला। सरकार की इस विफलता पर चर्चा होनी चाहिए कि उसने समय रहते वायरस को फैलने से रोकना का प्रयास नहीं किया। हवाईअड्डों को खुला रखा गया, नमस्ते ट्रंप से लेकर तमाम दूसरी राजनीतिक गतिविधियां होने दी गईं, इलाज और जांच की सुविधा नहीं बढ़ाई गई और एक दिन अचानक बिना तैयारी के समूचे देश में लॉकडाउन लागू कर दिया गया। जिस तरह नोटबंदी बिना सोचे समझे और बिना तैयारी के लागू की गई, महीनों तक हर दिन नए दिशा-निर्देश जारी किए गए और फिर एक दिन पहले से ज्यादा नकदी बाजार में आ गई। उसी तरह लॉकडाउन बिना तैयारी के और बिना सोचे समझे लागू किया गया, उसके बाद से हर दिन नए दिशा-निर्देश जारी होने लगे और जिस दिन वायरस का संक्रमण नियंत्रण से बाहर हुआ उस दिन हाथ खड़े करके सब कुछ खोल दिया गया। यहीं कोरोना वायरस से भारत की लड़ाई का सच है, जिस पर निश्चित रूप से चर्चा होनी चाहिए।
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