यह बात चीन के संबंध में भी सही है और नेपाल जैसे छोटे से छोटे देश से लेकर पाकिस्तान जैसे जन्म जन्मांतर के दुश्मन देश के बारे में भी सही है कि कूटनीति कभी भी सैन्य ताकत का विकल्प नहीं हो सकती है। अटल बिहारी वाजपेयी ने लाहौर तक बस यात्रा करके कूटनीति की थी पर पाकिस्तान को जो बात समझ में आई वह कारगिल की लड़ाई में मिली निर्णायक हार थी। उसी तरह नरेंद्र मोदी ने नवाज शरीफ को अपने शपथ में बुला कर और बाद में उनके घर जाकर एक कूटनीति की थी लेकिन वह बात पाकिस्तान को समझ में नहीं आई। उसको सर्जिकल स्ट्राइक या एयर स्ट्राइक ही समझ में आती है।
सो, चीन के साथ भी कूटनीतिक वार्ता से नतीजा निकलेगा इसमें संदेह है क्योंकि चीन अपनी सैन्य ताकत के मद में चूर है और उसे लग रहा है कि भारत मनोवैज्ञानिक रूप से लड़ने को तैयार नहीं या भारत में नेतृत्व के स्तर पर वह क्षमता नहीं है कि चीन को सीधे जवाब देने का फैसला हो सके। इसलिए वह भारत को कूटनीतिक या सैन्य वार्ता में उलझा रहा है और सीमा पर अपनी स्थिति मजबूत कर रहा है। उसने भारत को 50 दिन से ज्यादा समय से बातचीत में उलझा रखा है। 15 जून की रात को तो अचानक भारतीय सैनिकों के पहुंचने पर झड़प हो गई और तब देश को पता चला कि चीन कितना अंदर तक घुसा हुआ है और क्या क्या कर रहा है।
हालांकि उसके बाद भी भारत उसके साथ वार्ता में उलझा हुआ है। पहले विदेश मंत्री एस जयशंकर ने चीन के विदेश मंत्री वांग यी से वार्ता की। उसके बाद भारत, रूस और चीन के विदेश मंत्री की त्रिपक्षीय वार्ता हुई। फिर भारत के सैन्य कमांडर ने मोल्डो में जाकर चीन के साथ सैन्य अधिकारी से वार्ता की। कहा जा रहा है कि यह वार्ता 11 घंटे तक चली। इसके बाद दोनों देशों के विदेश मंत्रालयों के संयुक्त सचिव स्तर की वार्ता हुई। यह खबर आई कि दोनों देशों के सेना पीछे हटने को तैयार हो गई है। ध्यान रहे ऐसी खबर पहले भी आई थी और भारतीय सेना के सर्वोच्च स्तर से कहा गया था कि चीन की फौज पीछे हटने लगी। मीडिया ने आगे बढ़ कर कहा कि चीन की सेना ढाई किलोमीटर पीछे हट गई। उसके बाद ही 15 जून वाली हिंसक झड़प हुई थी।
उसी तरह विदेश मंत्री, सैन्य कमांडर और संयुक्त सचिव स्तर की वार्ता के बाद स्थिति यह है कि चीन ने कुछ नए इलाकों में घुसपैठ कर ली है और भारतीय सेनाओं की पेट्रोलिंग में बाधा डाली है। पहले चीन ने पूर्वी लद्दाख की गलवान घाटी, पैंगोंग लेक, डेमचक और दौलत बेग ओल्डी में घुसपैठ की, जिसमें से उसका फोकस गलवान घाटी और पैंगोंग लेक पर था। उसने गलवान घाटी में झड़प की और पैंगोंग लेक में बड़े इलाके पर कब्जा कर लिया। अब कई स्तर की कई वार्ताओं के बाद खबर है कि उसने दौलत बेग ओल्डी में भारतीय सैनिकों को गश्त करने से रोका है और देपसांग में घुसपैठ की है। ध्यान रहे चीन देपसांग में पहले 2014 में भी घुसपैठ कर चुका है। इससे भारत को वार्ता की हकीकत समझ में आ जानी चाहिए थी। भारत को यह तथ्य भी ध्यान में रखना चाहिए कि 2003 के बाद से दोनों देशों के बीच सीमा विवाद सुलझाने के लिए खासतौर से बनाए गए समूहों की 22 बार बैठकें हो चुकी हैं। यह शीर्ष नेताओं की शिखर वार्ताओं से अलग है। इतनी बैठकों के बाद विवाद सुलझाने की दिशा में रत्ती भर तरक्की नहीं हुई है।
जाहिर है चीन का मकसद इस तरह की वार्ताओं के जरिए भारत को उलझाए रखने की है। चीन यह भ्रम पैदा करना चाहता है कि वह वार्ता के जरिए ही मामला सुलझाना चाहता है और इसे लेकर गंभीर है। पर असल में वह सिर्फ भारत को उलझाए रखना चाहता है और इस बीच अपनी सैन्य तैयारियां बढ़ा रहा है। उसने पूर्वी लद्दाख में ही कई जगहों पर स्थायी निर्माण कर लिया है। कई जगह टेंट लगा दिए हैं, भारी हथियार जुटा लिए हैं और सैनिकों की तैनाती बढ़ा दी है। गलवान घाटी से लेकर देपसांग तक वह सैनिक तैनाती बढ़ा रहा है। इसलिए भारत को समझना चाहिए कि उससे बातचीत करने की कोई उपयोगिता नहीं है। बातचीत होती भी है तो 11 घंटे उसके साथ बैठने का कई मतलब नहीं है। भारत को दो टूक अंदाज में चीन से कहना चाहिए कि वह अप्रैल से पहले की यथास्थिति बहाल करे और अगर नहीं करता है तो भारत सैन्य ताकत के दम पर यथास्थिति बहाल कराने का प्रयास करेगा।
इस प्रयास में सफलता मिले या नहीं मिले वह अलग बात है पर बातचीत की टेबल पर अपनी संप्रभुता और अपना भूभाग गंवाने से बेहतर है कि लड़ कर गंवाया जाए। सीमित युद्ध में तो फिर भी इस बात की संभावना है कि भारत के जवान अपनी बहादुरी के दम पर अपनी सरजमीं हासिल कर सकते हैं पर वार्ता की टेबल पर तो गारंटी है कि भारत को नुकसान होगा। नुकसान इसलिए होगा क्योंकि चीन का इरादा ठीक नहीं है। वह अपनी विस्तारवादी सोच के तहत भारत की सीमा में घुस कर बैठा है और उसका इरादा लद्दाख में यथास्थिति बदलने का है। उसे अपनी सीपीईसी परियोजना और डैमर बाशा डैम प्रोजेक्ट की वजह से भी यह कबूल नहीं है कि लद्दाख भारत का केंद्र शासित प्रदेश रहे। तभी वह सैनिक ताकत के जरिए इस इलाके में यथास्थिति बदलने का प्रयास कर रहा है और भारत को भी कूटनीतिक वार्ता को सैन्य ताकत का विकल्प नहीं बनाना चाहिए। भारत को भी चीन को जैसे को तैसा जवाब देने की तैयारी करनी चाहिए।
कूटनीति नहीं है सैन्य ताकत का विकल्प
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