बेबाक विचार

सिर्फ सरकार बनाने का चुनाव नहीं

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सिर्फ सरकार बनाने का चुनाव नहीं
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में चुनाव का प्राथमिक मकसद नई सरकार चुनना होता है। लेकिन कई बार मतदाता सिर्फ इसलिए वोट नहीं डालते हैं कि उन्हें नई सरकार चुननी है। कई चुनाव ऐसे होते हैं, जो अन्य कारणों से अलग और महत्वपूर्ण हो जाते हैं। जैसे 1977 में लोगों ने सिर्फ नई सरकार चुनने के लिए वोट नहीं किया था। 1984 और 1989 का आम चुनाव भी सिर्फ नई सरकार चुनने का चुनाव नहीं था। इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लगा कर कोई असंवैधानिक काम नहीं किया था। संविधान में इमरजेंसी का प्रावधान है, जिसका इस्तेमाल उन्होंने किया था। इमरजेंसी के दौरान आम लोगों पर जुल्म भी नहीं ढाए गए थे। इसके बावजूद लोगों ने इंदिरा गांधी को हरा कर लोकतंत्र के प्रति आस्था जाहिर किया था। लोगों ने एकाधिकारवादी सोच के शासन को खारिज किया था। इसी तरह 1984 का चुनाव सिर्फ राजीव गांधी के प्रति सहानुभूति का चुनाव नहीं था, बल्कि आतंकवाद के खिलाफ और देश की एकता व अखंडता के पक्ष में आम भारतीय की आस्था का चुनाव था। ऐसे ही 1989 का चुनाव निर्णायक रूप से एक पार्टी के राज के अंत और गठबंधन की राजनीति की शुरुआत का चुनाव था। election form a government इस तरह के चुनाव राज्यों में होते रहे हैं। दिल्ली, असम, आंध्र प्रदेश जैसे राज्यों में ऐसे कई चुनावों की मिसाल दी जा सकती है, जिनमें लोगों ने सिर्फ एक नई सरकार चुनने के लिए मतदान नहीं किया। वैसे ही इस बार उत्तर प्रदेश का विधानसभा चुनाव है। इस बार मतदान सिर्फ एक नई सरकार चुनने के लिए नहीं हुआ है। नतीजा चाहे जो भी आए वह दूरगामी असर का होगा। आमतौर पर ऐसा देखने को मिलता है कि नतीजों के बाद पार्टियां जनता को कोसती हैं। राजनीतिक विश्लेषक भी अपने हिसाब से निष्कर्ष निकाले होते हैं और अगर उनका निष्कर्ष सही नहीं होता है तो वे भी मतदाताओं को कोसते हैं। लेकिन असल में जनता कभी गलती नहीं करती है। वह अपने हितों को किसी भी पार्टी के नेता या राजनीतिक विश्लेषक से बेहतर जानती है और उसी को ध्यान में रख कर वोट करती है। कुछ मतदाता जरूर किसी वक्ती घटना या लालच से प्रभावित होते हैं लेकिन व्यापक रूप से नतीजे समाज के मूड को बताने वाले होते हैं और उनके जरिए जनता कोई खास मैसेज भी डिलीवर करती है।   इस लिहाज से उत्तर प्रदेश का जनादेश बहुत खास होने वाला है। देश के सबसे बड़े राज्य की जनता जो मैसेज डिलीवर करेगी वह आगे की राजनीतिक दिशा तय करने वाला होगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि यह चुनाव एक और सामान्य चुनाव की तरह नहीं है। पिछले तीन चुनाव बहुत सामान्य चुनाव थे और सिर्फ नई सरकार चुनने वाले थे। लोगों ने 2007 में मायावती को पूर्ण बहुमत से चुना और पांच साल बाद 2012 में उनको बदल कर अखिलेश यादव को चुन दिया। लोग उनके कामकाज से भी संतुष्ट नहीं हुए तो 2017 में भाजपा को चुन दिया। ध्यान रहे 2017 में लोगों ने योगी आदित्यनाथ को नहीं चुना था, भाजपा को चुना था। इस बार भाजपा चाह रही है कि मतदाता योगी आदित्यनाथ को चुनें। इस बार फर्क यह है कि 2007 से 2017 के बीच जो राजनीति हुई थी और जो सामाजिक-आर्थिक स्थितियां थीं, वैसी स्थितियां 2017 से 2022 के बीच नहीं रहीं। contesting elections election form a government Read also अब पूतिन खुद बात करें झेलेंस्की से पिछले पांच साल प्रदेश के 24 करोड़ लोगों के जीवन में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव वाले रहे। पिछली बार नोटबंदी का हल्ला था, जब योजनाबद्ध तरीके से अमीर या मध्य वर्ग को गरीब बनाने का अभियान चला था। उसके बाद पांच साल लोगों ने नोटबंदी के भयावह असर को भोगा है। लोग जबरदस्त आर्थिक तंगी से गुजरे हैं। दो साल कोरोना की महामारी रही, जिसमें लोगों ने सदी का सबसे बड़ा संकट झेला। अस्पतालों के बाहर और सड़कों पर लोगों ने अपने परिजनों को ऑक्सीजन की कमी से दम तोड़ते देखा। मजबूर परिवारों ने अपने प्रियजनों के शव गंगा में बहाए या गंगा किनारे दफन किए। पिछले दो साल से बड़ी आबादी का जीवन सरकार की ओर से दिए जा रहे पांच किलो अनाज और एक किलो दाल के सहारे चल रहा है। भारतीय जनता पार्टी ने चुनाव से पहले नमक और तेल के पैकेट भी बांटे, जिसके आधार पर कहा जा रहा है कि मतदाताओं ने उनका नमक खाया है। इन पांच सालों में महंगाई और बेरोजगारी चरम पर पहुंची। एक-एक बहाली की परीक्षाएं कई कई बार हुईं लेकिन युवाओं को नौकरी नहीं मिली। इसी दौरान पूरे एक साल किसान आंदोलन करते रहे और उनको देशद्रोही ठहराने का अभियान चलता रहा। पांच साल तक एक व्यक्ति का एकाधिकारवादी ठोको राज चलता रहा। यह पिछले पांच साल की यूपी गाथा का एक पहलू है। दूसरी ओर इन पांच सालों में सुप्रीम कोर्ट के फैसले से ही सही लेकिन अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण शुरू हुआ। काशी विश्वनाथ के मंदिर को भव्य-दिव्य बनाने के लिए काशी कॉरिडोर बना। ‘आजम खान, अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी’ को जेल में रखा गया। आंदोलन-प्रदर्शन करने वालों की पहचान करके उनसे सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के बदले मुआवजा वसूला गया। गाड़ी पलट-पलट कर मुठभेड़ कराई गई और बिना सुनवाई के ‘अपराधियों’ का इनकाउंटर किया गिया। सरकार ने पुलिस, वकील और जज तीनों की भूमिका निभाई और बिना सुनवाई के लोगों के घरों पर बुलडोजर चले। इसे कानून-व्यवस्था की वापसी कहा गया। यह दूसरा पहलू सांस्कृतिक पुनरूत्थान और कानून के शासन की बहाली के दावे का है। सवाल है कि क्या कथित सांस्कृतिक पुनरूत्थान से लोगों का पेट भर रहा है? क्या पांच साल में हुए हजारों मुठभेड़ों से अपराध कम हो गया है और सचमुच कानून का राज बहाल हो गया है? क्या ‘आजम खान, अतीक अहमद और मुख्तार अंसारी’ के जेल में होने से राज्य के आम हिंदुओं का जीवन सुरक्षित हुआ है? क्या भगवा पहनने वाले एक महंत का राज होने से हिंदुओं का गौरव बढ़ा है? क्या मुफ्त अनाज और दाल पर जीवन चलना मानवीय गरिमा के अनुकूल है? क्या बेरोजगारी का जवाब बुलडोजर हो सकता है? क्या महंगाई का जवाब मंदिर से दिया जा सकता है? इन सब सवालों का जवाब नतीजों से मिलेगा। भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश की 20 फीसदी अल्पसंख्यक आबादी का एक भी उम्मीदवार चुनाव में नहीं उतारा है और तभी बार बार 80 फीसदी बनाम 20 फीसदी का चुनाव बताया जा रहा है। तभी अगर इस चुनाव में भाजपा जीतती है तो इसका मतलब होगा कि 80 फीसदी जनता के लिए महंगाई, बेरोजगारी, कोरोना के कुप्रबंधन, जीवन की बुनियादी जरूरतों से ज्यादा महत्वपूर्ण ‘मजबूत नेता’ और ‘हिंदू राष्ट्र’ का निर्माण है। हालांकि इसके लिए भी जनता को नहीं कोसना चाहिए क्योंकि लोग ऐसा सिर्फ प्रचार की वजह से नहीं करेंगे, बल्कि अपने भोगे हुए यथार्थ और अपने हितों को ध्यान में रख कर करेंगे। फिर आने वाले दिनों में इस राजनीति का विस्तार पूरे देश में होगा। अगर भाजपा हारती है तो उसके लिए भी जनता को कोसने की जरूरत नहीं है क्योंकि ऐसा करके जनता यह मैसेज डिलीवर करेगी कि भूख, बेरोजगारी व महंगाई से निजात और जीवन की बुनियादी जरूरतें उनके लिए ज्यादा अहम हैं। उनका जीवन बेहतर होगा तो राष्ट्र भी मजबूत हो जाएगा। यह प्रचार से बने ‘मजबूत नेता’ और ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने की राजनीति के अंत की शुरुआत होगी। 
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