बेबाक विचार

जॉब मांगना क्या बुरी बात है?

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जॉब मांगना क्या बुरी बात है?
भारत में युवाओं का सबसे मुख्य और संभवतः सबसे प्रिय काम जॉब यानी नौकरी खोजना है। हर साल करोड़ों की संख्या में नौजवान किसी न किसी किस्म की डिग्री लेकर दुनिया के महासागर में नौकरी खोजने उतरते हैं। जिसके पास जिस स्तर की शिक्षा या डिग्री होती है वह उस स्तर पर नौकरी खोजता है। किसी की आंखों में अपने घर के पास ही नौकरी करने का सपना होता है, कोई दिल्ली, मुंबई में नौकरी खोजने जाता है तो किसी की आंखों में अमेरिका, इंग्लैंड में नौकरी पाने के सपने होते हैं। सबको नौकरी चाहिए क्योंकि नौकरी, सुखी जीवन की गारंटी मानी जाती है। अगर नौकरी ऊपर की आमदनी वाली हो तो क्या कहने। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘नमक का दारोगा’ में बंशीधर को उनके पिता ने समझाया था कि ‘वेतन तो पूरनमासी का चांद होता है, जो घटते घटते एक दिन लुप्त हो जाता है मगर ऊपरी आमदनी बहता हुआ स्रोत है’। यह अलग बात है कि बंशीधर ने अपने पिता की सलाह नहीं मानी थी पर आज सरकारी नौकरी चाहने वाले युवाओं की एकमात्र इच्छा यहीं दिखती है कि कोई ऐसी नौकरी मिल जाए, जहां ऊपरी कमाई हो! भारत में नौकरी, अच्छी शादी की भी गारंटी होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सबसे ज्यादा चाहने वाले फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार ने एक फिल्म में गाना गाया था कि ‘जब नौकरी मिलेगी तो क्या होगा, जिस्म पे सूट होगा, पांव में बूट होगा, हाथों में गोरी का हाथ होगा’। शादी के लिए नौकरी एक तरह से अनिवार्य शर्त है। ‘नौकरी और छोकरी’ का जुमला एक साथ ही बोला जाता है। शादियों के विज्ञापन देखें तो उसमें भी दिखेगा कि लड़के वालों को जहां ‘पढ़ी लिखी, सुंदर, लंबी और गोरी’ लड़की चाहिए वहीं लड़की वालों की प्राथमिकता सरकारी नौकरी वाले लड़कों की होती है। यहां घर वाले अपने बच्चों को पढ़ाई के लिए यह कहते हुए भी प्रेरित करते हैं कि ‘परीक्षा में कटने वाला हर अंक तुम्हारे हनीमून को स्विट्जरलैंड से शिमला के करीब ले आएगा’। यानी जीवन के सारे सुख, सारी खुशियां, सारी उपलब्धियां नौकरी से जुड़ी हैं। इस लिहाज से ऐसा लगता है कि नौकरी खोजना या मांगना कोई बुरी बात नहीं है। पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन दिनों अक्सर कहने लगे हैं कि वे युवाओं को ‘जॉब खोजने वाले की जगह जॉब देने वाला’ बनाना चाहते हैं। उन्होंने पिछले दिनों नई शिक्षा नीति के बारे में बताते हुए भी कहा कि यह नीति युवाओं को जॉब खोजने वाले की जगह जॉब देने वाला बनाएगी। जॉब देने वाला होना अच्छी बात है। पर इससे जॉब खोजना बुरी चीज नहीं हो जाती है या जॉब करने वाले छोटा नहीं हो जाता है। दोनों बराबर महत्व के होते हैं। पर प्रधानमंत्री की बातों से ऐसा लग रहा है कि जॉब खोजने या करने वाला छोटा होता है। और माफ कीजिएगा प्रधानमंत्री जी नई शिक्षा नीति में ऐसी कोई बात नहीं है, जिससे अगले पचास, सौ बरस में भारत में कोई बिल गेट्स, स्टीव जॉब्स या मार्क जकरबर्ग पैदा हो जाएगा। इन्हें पैदा होना होगा तो सहज, नैसर्गिक गुणों के साथ अपने आप हो जाएंगे। नई शिक्षा नीति में तो छठी क्लास से जो कौशल विकसित किया जाएगा उससे बड़ी संख्या में किशोर और नौजवान उच्च शिक्षा में जाने या शोध करने की बजाय पहले ही स्कूल छोड़ देंगे और मोटर मैकेनिक, इलेक्ट्रिशियन, कारपेंटर आदि बन जाएंगे। ये काम भी छोटे नहीं हैं पर वह तो नई शिक्षा नीति के बगैर ही लोग कर रहे हैं। फिर यह भी सवाल है कि अगर सब जॉब देने वाले हो जाएंगे तो जॉब करेगा कौन? जॉब देने वालों की संख्या तो हमेशा सीमित रहने वाली है, इसलिए सबको जॉब देने वाला बनाने की बात एक सहज जुमलेबाजी के सिवा और कुछ नहीं है। यह जुमला अनुप्रास अलंकार के हिसाब से है और सुनने में अच्छा लग रहा है या यह एक तरह से बड़ी बात है, सिर्फ इसलिए ऐसा कहना करोड़ों लोगों का अपमान है। ध्यान रहे प्रधानमंत्री भी एक जॉब ही कर रहे हैं। वे जॉब खोजने निकले थे और देश के लोगों ने उन्हें यह जॉब दी है। वे खुद को प्रधान सेवक ही कहते हैं। उनकी सरकार में काम करने वाले मंत्री और तमाम अधिकारी भी जॉब ही कर रहे हैं। कानून बनाने वाले सासंद-विधायक और उनके बनाए कानून की व्याख्या करने वाले जज भी नौकरी ही कर रहे होते हैं। दूसरी बात यह है कि थोड़े से खानदानी सेठ-साहूकारों को छोड़ दें तो ज्यादातर जॉब देने वाले भी कभी न कभी जॉब करते थे। उसके अनुभव और ज्ञान ने उनके अंदर उद्यमशीलता पैदा की और उन्होंने अपना उद्यम शुरू किया, जिसमें उन्होंने सैकड़ों, हजारों लोगों को नौकरी दी। देश और दुनिया के हजारों, लाखों वैज्ञानिक या शोधकर्ता नौकरी ही कर रहे होते हैं। दुनिया की किसी लैब में अगर कोरोना वायरस की वैक्सीन बनी है तो वह उस लैब में काम करने वाले किसी वैज्ञानिक ने ही बनाई होगी। दुनिया भर के वैज्ञानिक रात-दिन अपने को खपाए रहते हैं कैंसर, अलजाइमर, डिमेंशिया, परकिंसन्स, एड्स जैसी बीमारियों की दवा खोजने में। वे अपना जॉब ही कर रहे होते हैं। वे किसी और को जॉब देने वाले नहीं हैं, सिर्फ इसलिए उनका काम छोटा नहीं हो जाता है। यह सही है कि अदार पूनावाला के सीरम इंस्टीच्यूट ऑफ इंडिया में वैक्सीन की करोड़ों डोज बनेगी पर वह वैक्सीन ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में नौकरी करने वाले वैज्ञानिक ही बना कर देंगे। अदार पूनावाला जॉब देने वाले हैं पर वे वैक्सीन बनाने वाले वैज्ञानिक से बड़े भला कैसे हो सकते हैं? आज भारत के लोग बड़े गर्व से गूगल के सीईओ सुंदर पिचाई और माइक्रोसॉफ्ट के सीईओ सत्या नडेला को याद करते हैं, ये दोनों भी तो जॉब ही कर रहे हैं! वैसे भी हम अपनी आंखों से जो कुछ भी देखते हैं उसे या तो ईश्वर ने बनाया है या किसी डॉक्टर, इंजीनियर ने! एक जमाना था, जब भारत में कहा जाता था- उत्तम खेती, मध्यम बान, निषिद्ध चाकरी, भीख निदान। पर तब दुनिया एक वैश्विक गांव नहीं बनी थी, तब भारत पूरी तरह से कृषि पर आधारित था, नौकरी के नाम पर सिर्फ सरकारी नौकरियां होती थीं और लोगों की जरूरतें बहुत सीमित थीं। तब लोग खेती को उत्तम और व्यापार को मध्यम मानते थे और नौकरी करना तीसरे दर्जे का काम था। पर अब स्थितियां बदल गई हैं। अब देश में किसान कम और खेत मजदूर ज्यादा हैं और कारोबार करने वाले भी चाहते हैं कि उनके बच्चे अच्छी नौकरी करें। बिग कॉरपोरेशन और कॉरपोरेट खेती की अवधारणा ने हालात पूरी तरह से बदल दिए हैं। इसलिए बड़े जुमले बोल कर लोगों को भ्रम देने की बजाय ठोस वास्तविकताओं को नजर के सामने रखते हुए काम किया जाना चाहिए।
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